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The golden future of the country was in Indira’s eyes: इंदिरा की आंखों में था देश का स्वर्णिम भविष्य

31 अक्टूबर 1984 को दोपहर तक यह खबर फैल चुकी थी कि, दिल्ली में कुछ ऐसा घट गया है जो शायद भारत के इतिहास में एक बड़ी घटना हो। 7 सफदरजंग रोड जो तब प्रधानमंत्री का आधिकारिक आवास था, में इंदिरा गांधी एक विदेशी टीवी चैनल को इंटरव्यू देने जा रही थीं तभी उनकी सुरक्षा में नियुक्त दो सिख जवानो, ने उन पर घात लगा कर हमला किया और वे बुरी तरह घायल हो गयीं। तत्काल उनको वहीं से अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में ले जाया गया जहां शाम तक उनकी मृत्यु की घोषणा हो गयी। मृत्यु तो ध्रुव सत्य है और शायद यही अटल है, पर उनकी मृत्यु इस तरह होगी यह किसी ने अनुमान नहीं लगाया था। यह दिन न केवल एक प्रधानमंत्री की हत्या के कारण देश के इतिहास में काला दिन था, बल्कि यह दिन, सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाले उन दो जवानों, सतवंत सिंह और बेअंत सिंह द्वारा दारुण विश्वासघात का दिन भी था। पुलिस बल का एक सदस्य होने के नाते, यह हम सब वदीर्धारी बलों के सदस्यों लिये, एक शर्मनाक दिन था। इस घटना का उन्हें पूवार्भास था या यह भी कोई संयोग कि, ठीक एक दिन पहले वे भुवनेश्वर में एक सभा मे भाषण देते हुये कहती हैं कि अगर उन्हें कुछ हो जाय तो उनके रक्त का एक एक कतरा इस देश के लिये समर्पित होगा। दुर्योग देखिये, उनका एक एक कतरा खून बहा और वह देश की मिट्टी में समा गया। आज भी वह जगह सुरक्षित है जहां उन पर हमला हुआ था। 31 अक्टूबर की शाम तक उनके मृत्यु की घोषणा होती है और राजीव गांधी को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह शपथ दिला देते हैं। इतिहास के एक अध्याय का अंत हुआ और पर अंतिम पृष्ठ रक्तरंजित और दु:खद था।
इंदिरा अपने महान पिता के समान ही देश के प्रधानमंत्री के पद पर 1966 से 1977 और फिर 1980 से 1984 तक नियुक्ति रहीं। उनके पिता जवाहरलाल नेहरू 1947 से 1964 तक लगातार इस पद पर बने रहे। 1964 में नेहरू जी के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। 1966 में जब शास्त्री जी का निधन ताशकंद में हो गया तब इंदिरा जी को कांग्रेस ने अपना नेता चुना। लाल बहादुर शास्त्री 1965 के भारत पाक युद्ध के नायक थे। वे ताशकंद में एक शांतिवार्ता के लिये गये थे। पर जीवित नहीं लौट पाए। 1966 में कांग्रेस में किंगमेकर के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष, के कामराज नाडार, अतुल्य घोष, एसके पाटिल एस निजलिंगप्पा आदि अन्य पुराने तपे तपाये नेता थे। पर इन्होंने इंदिरा के रूप में एक गूंगी गुड़िया चुनी थी। एक मोहरा या कठपुतली के रूप में उन्होंने सोचा था कि इंदिरा उनके इशारों पर चलेंगी, पर पुराने और बुजुर्ग नेताओं का भ्रम 1969 तक आते आते टूट गया औ? जो नयी इंदिरा उभर कर आयीं वह एक नयी रोशनी थी।
1967 में कांग्रेस को कई राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में झटका लगा था। तब डॉ राममनोहर लोहिया जीवित थे और किसी भी सरकार को उन जैसी प्रतिभा असहज कर सकती थी। उनके गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत ने समाजवादी और जनसंघी विचारधारा के लोगों को एक पाले में खड़ा कर दिया। कांग्रेस को अपना चला आ रहा वैचारिक आधार बदलने की चुनौती थी। इंदिरा कांग्रेस को एक नया वैचारिक कलेवर देना चाहती थीं, और उन्होंने तब आत्मविश्वास से भरे दो साहसिक कदम उठाया, एक, बैंको का राष्ट्रीयकरण और दूसरा राजाओं के प्रिवी पर्स और उनके विशेषाधिकार का खात्मा। 1947 में जब देश आजाद हुआ तो केवल स्टेट बैंक आॅफ इंडिया ही सरकारी बैंक था। शेष बैंक या तो बड़े पूंजीपति घरानों के थे, या राजाओं के। इंदिरा गांधी ने 14 बैंकों को राष्ट्रीयकृत कर के अपने प्रगतिशील विचारों की एक झलक दे दी। 1969 में ही राजाओं के प्रिवी पर्स जो उन्हें भारत संघ में विलय के समय एक वादे के रूप में दिया गया था को भी समाप्त कर दिया गया, पर राज्यसभा में उक्त बिल के पास न होने के कारण, 1971 में उसे पुन: पारित करा कर यह राज भत्ता खत्म कर दिया गया। 1969 में ही, कांग्रेस दो भागों में टूट गयी। एक मे पुराने धुरंधर नेता थे जिसे तब के अखबारों ने सिंडिकेट कहा, और इंदिरा के साथ वाली कांग्रेस, कांग्रेस आई, यानी इंदिरा कांग्रेस कहलाई। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी को प्रबल बहुमत मिला और वह कांग्रेस की सर्वमान्य नेता बन गयी।
1971 सिर्फ पांचवें लोकसभा चुनाव के लिए ही नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान युद्ध के लिए भी जाना जाता है। यह साल इंदिरा गांधी के लिए बेहद अहम था। इस वक्त तक कांग्रेस के दो फाड़ हो चुके थे। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सारे पुराने दोस्त उनकी बेटी इंदिरा के खिलाफ थे। इंदिरा को कांग्रेस के भीतर से ही चुनौती मिल रही थी। मोरारजी देसाई और कामराज फिर से मैदान में थे। चुनावी मैदान में एक तरफ इंदिरा की नई कांग्रेस और दूसरी तरफ पुराने बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं की कांग्रेस (ओ) थी। दरअसल, 12 नवंबर 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा गया गया था। उनपर पार्टी ने अनुशासन के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। इस कदम से बौखलाईं इंदिरा गांधी ने नई पार्टी कांग्रेस (आर-रूलिंग ) बनाई। सिंडिकेट ने कांग्रेस (ओ) का नेतृत्व किया। इंदिरा गांधी अपने एक नारे ‘गरीबी हटाओ’ की बदौलत फिर से सत्ता में आ गईं। उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस ने लोकसभा की 545 सीटों में से 352 सीटें जीतीं। जबकि कांग्रेस (ओ) के खाते में सिर्फ 16 सीटें ही आई।
सागरिका घोष अपनी किताब ‘इंदिरा- भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री’ में लिखती हैं कि अपने प्रमुख सचिव पीएन हक्सर की सलाह पर इंदिरा गांधी ने 1971 में मध्यावधि चुनाव करवा डाले। वह बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की जड़ों पर आघात और कांग्रेस बंटवारे की पृष्ठभूमि में लोकप्रिय नारे ‘गरीबी हटाओ’ के साथ चुनाव मैदान में उतरी थीं। जबकि विरोधियों का नारा था ‘इंदिरा हटाओ’। इस तरह 18 मार्च 1971 के दिन इंदिरा गांधी को तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। दिसंबर 1971 में निर्णायक युद्घ के बाद भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को ‘मुक्ति’ दिला दी। बांग्लादेश का जन्म हुआ। सागरिका घोष लिखती हैं, बांग्लादेश युद्ध के बाद तो इंदिरा गांधी की लोकप्रियता कुलांचें भरने लगीं।
इतनी सफलता और विशेषकर बांग्लादेश के युद्ध मे उनकी दृढ़ता, अमेरिका के महाबली निक्सन और कूटनीतिज्ञ किसिंजर के सामने भी न झुकने वाली लौह महिला, कठिन समय मे सोवियत रूस के साथ अत्यंत घनिष्ठ संबंध बनाकर राजनय को एक नयी परिभाषा देने वाली इंदिरा ने भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास तो बदला ही भूगोल भी बदल कर रख दिया और पचीस साल में ही जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद न केवल खंडित हो गया बल्कि अप्रासंगिक भी हो गया। अब इंदिरा शिखर पर थीं। जहां पहुंचना कठिन तो होता है, पर टिके रहना और भी कठिन होता है। और यही हुआ भी।
1975 में वे राजनारायण द्वारा दायर एक चुनाव याचिका में इलाहाबाद हाईकोर्ट से चुनाव हार गयीं। उनका चुनाव निरस्त हो गया। कायदे से उन्हें अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिये था। पर उन्होंने त्यागपत्र देने के बजाय, पद पर ही बनीं रहीं। उधर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार तथा अन्य आरोपो के खिलाफ सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन चल रहा था। आंदोलन बहुत व्यापक था।

(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं)

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