The energy of the mutual stress of dissipation and dissolution is energy: सम्पोष्ण और विघटन की पारस्परिक तनाव का प्रतिफल ऊर्जा अर्थात शक्ति

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 भारतीय पुरातन धर्म गंथों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश को देवताओं में सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हुए कहा गया है कि ये त्रिदेव ब्रह्म के त्रिगुणात्मक स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रह्मा सृजनमूलक रूप के प्रतीक हैं देश और काल के अंतर्गत चिरन्तन सृजन प्रक्रिया के व्यंजन हैं। विष्णु सम्पोषण के अधिष्ठाता देवता हैं और शिव द्वारा विघटन और सम्पोषण की क्रियाएं होती रहती हैं तथा सृजन प्रक्रिया के द्वारा इन आत्यन्तिक विरोधी प्रवृत्तियों में समन्वय की स्थापना की जाती है। इस सम्पोषण और विघटन के पारस्परिक तनाव के फलस्वरूप एक विद्युतीय उर्जा का स्फुरण होता है। यही ऊर्जा शक्ति है, जिसे जगदम्बा, जगद्धात्री, जगन्माता, जगत्ततारिणी एवं अन्यान्य अनेकानेक नामों से जाना और पुकारा जाता है। शक्ति ब्रह्म का ही प्रकाशित रूप है। निर्गुण और निर्विकार ब्रह्म शक्ति के रूप में अपने को प्रकाशित करता है। इस शक्ति को ब्रह्ममयी भी कहा गया है। शक्ति ही सृष्टि का मूल तत्व है। जब शक्ति की निर्बाद्ध धरा निर्गुण और निर्विकार ब्रह्म को आवृत करती हुई उद्दाम गति से प्रवाहित होती है तभी संसार से सृजन, पोषण और संहार की क्रियाओं का समापन होता है। शक्ति की धारणा से यह स्पष्ट होता है कि क्रिया रहित ज्ञान मृत ज्ञान है। महामाया से ही समस्त सृष्टि व्यापार का उदय हुआ है तथा ब्रह्माण्ड का आदिभूत कारण भी वे ही हैं । महाशक्ति ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की विशिष्ट शक्तियों के रूप में क्रीड़ा करती हैं। वे महामाया हैं कयोंकि वे ही ब्रह्मरूप शिव को अपने आवरणों में छिपाए हुए हैं।
महानिद्रा मग्न शिव शक्ति से युक्त होने पर ही सक्रिय होते हैं। शिव चिरन्तन रूप में सक्रिय होते हैं। चरम निष्क्रियता ही शिव का मूलभूत स्वभाव है। इसीलिए वामाचार सूत्रों में शक्ति रूपा नारी को शिवरूप पर रमण करते हुए दिखाया गया है। शिवा- शिव-रूप शव पर नृत्य करती और मुक्ति प्रदान करती है। वैदिक वाङ्गमय में अनेक देवियों के नाम मिलते हैं। यजुर्वेद में रूद्र की अम्बिका नामक बहन का उल्लेख है। वेदों में अम्ब शब्द जलराशि के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। केनोपनिषद में उमा हैमवती नामक एक देवी का उल्लेख है। विद्वानों ने उमा हैमवती का अर्थ हिमालय से निकली जलराशि किया है।
तैतिरीय आरण्यक में अम्बिका रूद्र की पत्नी है। तैतिरीय आरण्यक में दुर्गा, पार्वती आदि नाम भी आया है। महाकाव्यों में गंगा को भी शिव की पत्नी कहा है। दुर्गा के रूप में अजेय तथा काली रूप में अतिशय कराला उमा जगजननी कहलाई। उन्होंने ही महिषासुरादि राक्षसों का वध किया। अदिति नाम से आकाश तथा अन्तरिक्ष रूपिणी माता की वन्दना ऋग्वेद में की गई है, परन्तु अदिति भी समस्त देवताओं की माता नहीं है तथा अदिति को निखिल विश्व की जननी मानकर देवताओं में प्रथम स्थान नहीं मिला। ऋग्वेद 7/1/6, 7/34/21, 10/92/4-5 में अरमति नाम से भक्ति अथवा उर्वरा पृथ्वी की देवी की वन्दना है। कुमारी अरमति घृत का उपहार लेकर प्रात:- सायं (संध्या) अग्नि के पास आती है। ऋग्वेद 5/43/6 के अनुसार अरमति आकाशिक नारी है। ऋग्वेद में जहां इने गिने कुछ स्थानों पर ही अरमति की वन्दना की गई है वहां आवेस्ता में अमैर्ती नाम से कृषि की देवी को अत्यधिक प्रधानता मिली है। विद्वानों का विचार है कि उमा, पार्वती, दुर्गा एवं काली कदाचित आर्य धर्म में बाहर से आई। पाश्चात्य विद्वान यह भी कहते हैं, मातृपूजक जातियां वे हुई जो स्थिर रूप से कहीं निवास करके खेती-बारी जैसे कर्म करने लगी। ऐसे समाज में स्त्रियों का आदर आवश्यक था। इसके विपरीत खानाबदोश जातियों को अपने योद्धाओं की वीरता पर निर्भर करना था, अत: वे पुरुष शक्तियों की उपासक बनीं। भारतवर्ष में जब आर्य जब स्थिर होकर कृषि कर्म करने लगे, तब उन्होंने मातृपूजा को प्रधानता दी। विद्वानों के अनुसार इरान का पारसी धर्म के वैदिक धर्म से तब अलग हुआ, जब इरान में पशुपालन छोड़कर कृषि पर जोर दिया जाने लगा। उल्लेखनीय है कि उमा हैमवती हिमालय की पुत्री थी। हिम का अर्थ पिघलने वाला काल भी है। इस आधार पर हैमवती उमा, काल अथवा समय रूप से सृष्टि के क्षय एवं उत्पति का कारण अथवा काल रूपी रूद्र की पत्नी होकर पूजित हुई। काल की पुत्री होकर भी पत्नी होना असंगत नहीं क्योंकि नारी-शक्ति, पुत्री, पत्नी तथा माता सभी है। इसी विचारधारा ने तांत्रिक धर्म में कुमारी कन्या की पूजा का रूप लिया।
विद्वान कहते हैं, भूतेश तारामंडल (स्वाति नक्षत्र) के समीप ही कन्या राशि के तारे हैं तथा अनेक आदिम जातियां कन्या मण्डल को भूतेश मण्डल की स्त्री मानती हैं। पार्वती उमा की पुत्री है। पर्वत की पुत्री नदी नहीं हो सकती है, लेकिन वैदिक ग्रन्थों में पर्वत शब्द मेघ के अर्थ में भी व्यवहार हुआ है।
यजुर्वेद 1/19 में वेदवाक्य को पर्वती अर्थात ज्ञानवती तथा पृथ्वी को पार्वतेयी कहा है। ऋग्वेद में वाग्देवी गरणशीला गौरी के नाम से वर्णित है। इस रूप में वह जल तथा जल से उत्पन्न सभी जीवों की श्रष्टा कही गई है। उमा नाम बेबीलोन की मातृदेवी अमा से मिलता-जुलता है, जप मनुष्य तथा अन्य समस्त स्थावर- जंगम सृष्टि की माता थी। मिस्र में सोखित नाम से इसी तारारूपिणी देवी ने सूर्य देवता रा के शत्रुओं को मारा था।
पौराणिक मान्यताएं
शाक्तों के प्रधान ग्रंथ दुर्गा सप्तशती में देवी के अनेकानेक पराक्रमों के वर्णन अंकित हैं। दस्युओं के साथ देवी के जो युद्ध हुए हैं, वे बहुत कुछ इंद्र तथा वृत्र के ऋग्वेदोक्त युद्ध से मिलते हैं। ऋग्वेद के मन्त्रों के आधार पर इन सभी युद्धों की तथा देवी से सम्बन्धित अन्य घटनाओं की आकाशिक व्याख्या सम्भव है। दस्युओं से देवी के सर्वाधिक प्राचीन युद्ध का वर्णन सौर पुराण में मिलता है। सौर पुराण में अंकित कथा के अनुसार शिव ने ही अपनी मातृशक्ति से शिवा की सृष्टि की। इंद्र की प्रार्थना सुनकर शिवा ने रक्ताक्ष तथा धूम्राक्ष नामक राक्षसों को सेना सहित (ससैन्य) नष्ट कर दिया। इस युद्ध में शिवा ने अपनी तीन सिर अर्थात आकाश, अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी एवं बीस हाथ अर्थात दस दिशाओं में से प्रत्येक में दो- दो हाथ बनाए थे। रक्ताक्ष एवं धूम्राक्ष एवं उनके अनुचर वैदिक वृत्र तथा वृत्र की सेना जैसे ही थे। जब दक्ष यज्ञ के विध्वंस हेतु रूद्र ने वीरभद्र नामक बिशालकाय पुरुष को उत्पन्न किया, तब उमा भी भद्रकाली का रूप धारण उस यज्ञ के विध्वंस में संलग्न हो गई ।
दुर्गा सप्तशती में अंकित वर्णन के अनुसार देवी की उत्पति सर्वप्रथम तब हुई जब कल्प के अंत में योगनिद्रा में सोये हुए भगवान विष्णु के कानों के मैल से उत्पन्न मधु एवं कैटभ नामक राक्षसों ने ब्रह्मा अर्थात प्रजापति अथवा संवत्सर को नष्ट कर देना चाहा। ब्रह्मा ने उस समय देवी का जिन शब्दों में आह्वान किया था, वह ऋग्वेद में अंकित वाक अथवा तदित अथवा विद्युत् के स्वकथित वर्णन से बहुत कुछ मिलता है।
दुर्गा सप्तशती में देवी का आवाहन करते हुए ब्रह्मा कहते हैं- देवि ! तुम ही इस विश्व को धारण करती हो। खडगधारिणी, शूलधारिणी, गदा, चक्र, शंख तथा धनुष धारण करने वाली हो । वाण, भुशुण्डि तथा परिध ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। आदि। ऋग्वेद में वाक स्वयं कहती है- मैं देवी रूद्र, वसु, आदित्य तथा विश्वेदेवों के रूप में विचरती हूं। मैं ही ब्रह्मद्वेशियों का वध करने के लिए रूद्र के धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाती हूं। महाभारत ,में अंकित है कि मधु के मारने वाले भगवान विष्णु स्वयं हैं। दुर्गा सप्तशती के अनुसार भी मधु एवं कैटभ को विष्णु ने ही मारा था, परन्तु देवी ने इस कार्य में उनको साथ दिया था। वैदिक काल में मधु वर्ष के प्रथम मास का नाम था। मधु तथा माधव, ये दोनों महीने वसंत ऋतु के होते थे। अत: मधु संवत्सर का शिर था। वृहदारण्यकोपनिषद में संवत्सर तथा यज्ञ दोनों को ही प्रजापति कहा गया है। बाद में यज्ञ तथा यज्ञीय अश्व का अनेक स्थानों पर समीकरण किया गया है। यज्ञ में अश्व का वध होता था । उषा को भी यज्ञीय अश्व का सिर कहा गया है। ऋग्वेद के इंद्र उषा के रथ का ध्वंस करने वाले हैं । छान्दोग्योपनिषद 1/3 में आदित्य को देवमधु, उसकी किरणों को भ्रमर तथा दिशाओं को मधु नाड़ी कहा गया है।
इंद्र के मेघ से सूर्य आच्छादित हो जाता है तथा सूर्य के तिरोहित होने पर उसके स्थान पर तडित अर्थात वाग्देवी का प्रकाश सूर्य के समान रहता है। देवी द्वारा यही मधु का वध है। कैटभ अथवा केतु भी चन्द्रमा तथा सूर्य ही हैं, अकेतु अर्थात अचेतन को केतु अर्थात चेतनशील करता है। धूम्रलोचन, चंड, मुंड, रक्तबीज, निशुम्भ, शुम्भ इन सभी राक्षसों का वर्णन ऋग्वेद में अंकित वृत्र तथा उनके अनुचरों के वर्णन से मिलता- जुलता है। महिषासुर भी महान असुर सूर्य ही है, जिसकी माता अदिति ने ऋग्वेद में अपने पुत्र आदित्य को महिष अर्थात महान कहकर पुकारा। महिषासुर का वध भी वृष्टि के द्वारा सूर्य की लोकनाशक प्रकृति के दमन का रूपक है, अन्यथा महिषासुर वध महान आच्छादक वृत्र का ही वध है। विष्णु द्वारा मधु कैटभ का वध कदाचित संवत्सर द्वारा सूर्य तथा चंद्रमा का नियमबद्ध होना है। वाक ही विष्णु की शक्ति को प्रत्यक्ष करने वाली है।
हिंसक शक्तियों का दमन करती हैं मां
दुर्गा सप्तशती अध्याय दो के अनुसार महिषासुरमर्दिनी देवी का जन्म विष्णु अर्थात यज्ञ तथा रूद्र अर्थात वायु के क्रोध से हुआ। देवी के शरीर में ही सभी देवता हैं तथा देवी ने उन सभी से आयुध लेकर असुर पर प्रहार किया। देवी ने अट्टहास के साथ महिषासुर पर प्रहार किया। देवी तथा असुर ने एक दूसरे पर दीप्तिमान अस्त्र फेंके। असुरों के रक्त से बड़ी- बड़ी नदियां बहने लगीं। कौशिक सूत्र में कृषि की देवी सीता अर्थात खेत में हल द्वारा किये गए गड्ढे की अधिष्ठात्री देवी की वन्दना इस प्रकार की गई है-
कालनेत्रे हविषे नो जुषस्व तृप्तिं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।
याभिदेर्वा असुरानकल्पयन् यातृन्मनून गन्धर्वान राक्षसांश्च ।
ताभिर्नो अद्य सुमना उपागाहि सहस्त्रापोषं सुभगे तराणा।
हिरण्यस्त्रकपुष्करिणी श्यामा सर्वाङ्गशोभिनी … ।।
इस वर्णन में ऋग्वेदोक्त वाक (वाक्) अथवा अदिति तथा दुर्गा सप्तशती के देवी वर्णन दोनों का ही समावेश है। अदिति रूप से आकाश, वाक रूप से अन्तरिक्ष, तथा सीता-काली अथवा दुर्गा रूप से पृथ्वी पर रहने वाली देवी क्रमश: आकाश, अन्तरिक्ष, पृथ्वी अथवा निखिल विश्व की मातृशक्ति हैं, जिनसे उद्भिद, चतुष्पद तथा द्विपद सभी की उत्पति है तथा जो अपनी संतान की रक्षा के हेतु हिंश्रक शक्तियों का दमन अर्थात असुरों का संहार करती रहती है। :- अशोक ‘प्रवृद्ध’