पुरुष प्रधान सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में जब-जब महिलाओं की भागीदारी की बात होगी, तब-तब शीला दीक्षित का नाम बेहद सम्मान से लिया जाएगा। पंजाब की बेटी कैसे अपने दम पर राष्टÑीय राजनीति का धु्रवतारा बन गर्इं यह युगों तक याद किया जाएगा। पंजाब के साधारण परिवार से ताल्लुक रखने वाली शीला दीक्षित की सबसे बड़ी खूबी यही थी कि उनके तमाम धूर विरोधी भी उन्हें हमेशा वो सम्मान देते थे जिनकी वो हकदार थी। जब कांग्रेस का देश में जब जलवा रहा हो या फिर कांग्रेस के जब बुरे दिन रहे हों, शीला दीक्षित ने यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि एक सुलझे राजनेता को किस तरह बिहेव करना चाहिए।
दिल्ली की सत्ता पर जब आम आदमी पार्टी ने कब्जा जमाया तब हालात कुछ और थे। लोग परिवर्तन चाहते थे और उनके पास आम आदमी पार्टी के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं था। पर सत्ता पाते ही जिस तरह मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का केंद्र सरकार के साथ टकराव शुरू हुआ उसने दिल्ली के लोगों को सकते में डाल दिया। इससे पहले दिल्ली के लोगों ने शायद कभी इस तरह दिल्ली के लेफ्टिनेंट जनरल (एलजी) और मुख्यमंत्री को लड़ते देखा हो। उस वक्त सभी की जुबान पर एक ही बात होती थी, शीला जी थीं तो इस तरह की टकराहट का कोई मतलब ही नहीं था।
सत्ता में टकराहट आम बात होती है, लेकिन शीला दीक्षित ने दिल्ली की गद्दी पर 15 सालों तक राज करके यह जता दिया था कि अगर राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को दरकिनार कर जन आंकांक्षाओं पर खरा उतरा जाए तो लोग खुद ब खुद प्यार करने लगते हैं। दिल्ली की गद्दी जब शीला दीक्षित को मिली थी उस वक्त दिल्ली में विकास के बयार बहने की सिर्फ बातें होती थीं, लेकिन एक मुख्यमंत्री के तौर पर शीला दीक्षित ने दिल्ली को वो कुछ दिया, जिसकी दिल्ली को जरूरत थी। एक महिला कैसे सत्ता के शीर्ष पर कायम होकर कैसे जनता के दिलों में जगह बना लेती है यह शीला दीक्षित से सीखा जा सकता है। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रीत्व काल पर तमाम रिसर्च हो चुके हैं। इन रिसर्च के जरिए यह बातें सामने आर्इं थी कि अगर देश को घर मान लिया जाए तो इसे कैसे सजाया और संवारा जा सकता है यह एक महिला से बेहतर कोई दूसरा नहीं जान सकता है। ठीक ऐसा ही व्यक्तिव था शीला दीक्षित का।
शीला दीक्षित की जीवनी अपने आप में बेहद रोचक रही थी। उनकी पहचान जहां एक तरफ पंजाब की बेटी के तौर पर थी, वहीं उत्तरप्रदेश की बहू बनकर भी उन्होंने राज्य को वही सम्मान दिलाया। शीला दीक्षित का जन्म पंजाब के कपूरथला में 31 मार्च 1938 को हुआ। दिल्ली में शिक्षा प्राप्त कर एक राजनीतिक परिवार की बहू बनीं। पति दिल्ली के कॉन्वेंट आॅफ जीसस एंड मैरी स्कूल से दिल्ली यूनिवर्सिटी के मिरांडा हाउस कॉलेज तक का सफर तय करने वाली शीला ने दिल्ली में सीएम की सबसे बड़ी पारी खेली। हालांकि, अपने आखिरी विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा।
शीला को कॉलेज के जमाने में विनोद दीक्षित से प्यार हुआ और जो शादी तक पहुंचा। विनोद दीक्षित आईएएस अफसर रहे। शीला के बेटे संदीप दीक्षित किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वो कांग्रेस के सांसद रहे हैं। शीला का ससुराल यूपी में है और इसके ही मद्देनजर कांग्रेस ने उन्हें अपना सीएम कैंडिडेट बनाया। शीला का ससुराली संबंध यूपी में बड़े कांग्रेसी नेता उमाशंकर दीक्षित के परिवार से रहा। उमाशंकर दीक्षित केंद्रीय मंत्री के साथ-साथ राज्यपाल भी रहे। राजनीति में आने से पहले वे कई संगठनों से जुड़ी रही हैं और उन्होंने कामकाजी महिलाओं के लिए दिल्ली में दो हॉस्टल भी बनवाए। 1984 से 89 तक वे कन्नौज (उप्र) से सांसद रहीं। इस दौरान वे लोकसभा की समितियों में रहने के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र में महिलाओं के आयोग में भारत की प्रतिनिधि रहीं। वे बाद में केन्द्रीय मंत्री भी रहीं। वे दिल्ली शहर की महापौर से लेकर मुख्यमंत्री भी रहीं।
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पर शीला दीक्षित बेहद मुखर रहीं। उन्होंने कई मौकों पर इसकी वकालत की थी महिलाएं जब घर को बना सकती हैं। उन्हें बेहतर तरीके से व्यवस्थित रख सकती हैं, तो अगर वो राजनीति में आएं। सत्ता की बागडोर संभालें तो कितना बड़ा परिवर्तन आ सकता है। उन्होंने दिल्ली की राजनीति में हमेशा महिलाओं को आगे बढ़ाने के प्रति काम किया। शीला दीक्षित अपनी काम की बदौलत कांग्रेस पार्टी में पैठ बनाती चली गर्इं थी। सोनिया गांधी के सामने भी शीला दीक्षित की एक अच्छी छवि बनी और यही वजह है कि राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी ने उन्हें खासा महत्व दिया था। साल 1998 में शीला दीक्षित दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष बनाई गर्इं थी। 1998 में ही लोकसभा चुनाव में शीला दीक्षित कांग्रेस के टिकट पर पूर्वी दिल्ली से चुनाव लड़ीं, मगर जीत नहीं पार्इं थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में उन्होंने न सिर्फ जीत दर्ज की, बल्कि तीन-तीन बार मुख्यमंत्री भी रहीं।
15 साल तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रहने वालीं शीला दीक्षित इससे पहले 1984 से 89 तक कन्नौज (उप्र) से सांसद रहीं। इस दौरान वे लोकसभा की समितियों में रहने के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र में महिलाओं के आयोग में भारत की प्रतिनिधि रहीं। 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहने के बाद दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को मिली अप्रत्याशित जीत के बाद शीला दीक्षित ने राजनीति से दूरी बना ली थी, लेकिन लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी की अगुवाई में उन्होंने दिल्ली की कमान संभाली थी। राजनीति के अंतिम दिनों में प्रदेश स्तर पर शीला दीक्षित बनाम पीसी चाको के बीच अनबन की खबरों ने निश्चित तौर पर एक निर्विदादित महिला राजनेता को अंदर से हिला कर रख दिया था। बावजूद इसके शीला दीक्षित ने राजनीतिक समझबुझ का परिचय देते हुए कभी कांग्रेस पार्टी पर आंच नहीं आने दी। उनका इस दुनिया से विदा लेना राजनीति में महिलाओं के एक स्वर्णिम युग का अवसान है। कांग्रेस पार्टी ने जहां अपना एक सुलझा हुआ राजनेता खो दिया वहीं दिल्ली की जनता ने अपने एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री को। लंबे समय तक यह कमी खलती रहेगी।
कुणाल वर्मा
(लेखक आज समाज के संपादक हैं )
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