अंबाला। 10वीं लोकसभा के चुनाव मध्यावधि चुनाव थे, क्योंकि पिछली लोकसभा को सरकार के गठन के सिर्फ 16 महीने बाद भंग कर दिया गया था। चुनाव विपरीत वातावरण में हुए थे और दो सबसे महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दों, मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने और राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद विवाद के चलते इन्हें ‘मंडल-मंदिर’ चुनाव भी कहा जाता है।
जहां एक ओर वीपी सिंह सरकार द्वारा लागू मंडल आयोग की रिपोर्ट में सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था जिसके कारण बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और सामान्य जातियों के छात्रों ने देशभर में इसका विरोध किया, वहीं दूसरी ओर मंदिर अयोध्या के विवादित बाबरी मस्जिद ढांचे का प्रतिनिधित्व करता था जिसे भारतीय जनता पार्टी अपने प्रमुख चुनावी मुद्दे के रूप में उपयोग कर रही थी।
मंदिर मुद्दे के कारण देश के कई हिस्सों में दंगे हुए और मतदाताओं का जाति और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण हो गया। राष्ट्रीय मोर्चे में फैली अव्यवस्था ने कांग्रेस की वापसी के संकेत दे दिए थे।
3 चरणों में चुनाव 20 मई, 12 जून और 15 जून, 1991 को आयोजित किए गए। यह कांग्रेस, भाजपा और राष्ट्रीय मोर्चा- जनता दल (एस)- वामपंथियों मोर्चे के गठबंधन के बीच एक त्रिशंकु मुकाबला था।
20 मई को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मतदान के पहले दौर के एक दिन बाद तमिल ईलम लिबरेशन टाइगर्स द्वारा श्रीपेरुम्बुदूर (तमिलनाडु) में चुनाव प्रचार के दौरान हत्या कर दी गई। चुनाव के शेष दिनों को जून के मध्य तक के लिए स्थगित कर दिए गया और अंत में मतदान 12 जून और 15 जून को हुआ।
इस बार के संसदीय चुनावों में अब तक का सबसे कम मतदान हुआ, इसमें केवल 53 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।
चुनावों के परिणामों के बाद एक त्रिशंकु संसद बनी जिसमें 232 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और 120 सीटों के साथ भाजपा दूसरे स्थान पर रही। जनता दल सिर्फ 59 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रहा।
21 जून को कांग्रेस के पी.वी. नरसिंहराव ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। राव, नेहरू-गांधी परिवार के बाहर दूसरे कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। नेहरू-गांधी परिवार के बाहर पहले कांग्रेसी प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री थे।