रघुपति राघव राजा राम, सब को सन्मति दे भगवान। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अगुआई में पांच न्यायमूर्तियों की पीठ ने शनिवार को राममंदिर और बाबरी मस्जिद को लेकर लंबे समय से चले आ रहे विवाद में फैसला सुनाकर यही संदेश दिया है। अदालत ने तमाम भ्रांतियों, परिस्थितियों और तथ्यों के मद्देनजर फैसला देते हुए सांप्रदायिक सद्भाव को भी कायम किया है। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले के जरिए राममंदिर पर होने वाली राजनीति पर भी विराम लगा दिया है। उसने स्पष्ट किया है कि विराजमान रामलला ही संपत्ति के मालिक हैं, उनकी ठेकेदारी किसी को नहीं दी जा सकती। उन्होंने तमाम हिंदू संगठनों की याचिकायें खारिज कर दी हैं। अदालत ने सिर्फ राम के अस्तित्व को स्वीकारा है। केंद्र सरकार को इसके लिए एक प्रबंधन ट्रस्ट बनाने का आदेश भी दिया है, जिसमें निमोर्ही अखाड़े को एक सेवायत के कारण उसमें सदस्य बनाने को कहा है मगर उनकी संपत्ति में दावेदारी को पूरी तरह खारिज कर दिया है। अदालत ने दिसंबर 1949 में जबरन मूर्तियां रखने और दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने को गैरकानूनी बताया है। न्यायमूर्तियों ने मुस्लिम पक्ष को भी सम्मान देते हुए आदेश दिया कि समुदाय को अयोध्या में उचित स्थान पर पांच एकड़ भूमि मस्जिद बनाने के लिए दी जाये। बाबरी मस्जिद के एतिहासिक महत्व को अदालत ने स्वीकार नहीं किया है।
दोनों अहम पक्षों को राहत देते हुए राममंदिर की एतिहासिकता और धार्मिक महत्व को अदालत ने स्वीकार किया है। अदालत ने दूसरे पक्ष के धार्मिक महत्व को भी अहमियत देकर सामाजिक तानेबाने को मजबूत बनाने वाला फैसला किया। सामान्यत: शनिवार को सुप्रीम कोर्ट में छुट्टी होती है मगर भारत के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने शुक्रवार को रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिया कि कल (शनिवार) कोर्ट नं.-1 में मो. सिद्दीकी बनाम महंत सुरेश दास एवं अन्य सिविल वाद को निर्णय के लिए लगाया जाये। इस फैसले के साथ ही शिया वक्फ बोर्ड द्वारा दायर की गई एसएलपी को भी फैसले के लिए लिस्ट करने का निर्देश दिया गया था। अदालत ने पहले इसी मामले में फैसला सुनाया और कहा कि 30 मार्च 1946 को फैजाबाद के सिविल जज के फैसले के खिलाफ यूपी शिया वक्फ बोर्ड 24964 दिनों तक कहां था? अब उनकी कोई भी दलील बेजा और निर्थक है, जिससे उसे खारिज कर दिया गया। अदालत ने जब मुख्य पक्षों के सिविल वाद पर चर्चा की तो उसने सिर्फ दो पक्षों की ही वैधानिकता को ही स्वीकारा। राममंदिर और बाबरी मस्जिद के नाम पर किसी को भी सियासत करने का मौका अदालत ने नहीं दिया। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि राम यहीं पैदा हुए थे या मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई इसके कोई प्रमाण नहीं हैं। पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट और धार्मिक मान्यताओं को महत्व देते हुए देते हुए अदालत ने यह माना कि मस्जिद जिस स्थान पर बनी वहां पहले कोई हिंदू स्थापत्य का स्थान था।
अदालत ने फैसला भावनाओं के आधार पर न करते हुए तथ्यों और पौराणिक मान्यताओं पर किया है। जिसे पांचों न्यायमूर्तियों, रंजन गोगोई, एसए बोबडे, डा. धनंजय वाय चंद्रचूड़, अशोक भूषण और एस. अब्दुल नजीर ने पूर्ण सहमति से किया। पांचों न्यायमूर्तियों ने पुरातत्व विभाग के खनन में मिले सबूतों को पुख्ता आधार बनाया है। इसके बाद हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षों की इस मान्यता को स्वीकारा है कि राम अयोध्या में ही पैदा हुए। हिंदुओं की मान्यता कि राम चबूतरा ही जन्म स्थान है को अदालत ने मान्यता के आधार पर स्वीकार कर लिया। जिससे यह स्थान राम जन्मभूमि के रूप में चिन्हित हो सका। अदालत ने राममंदिर में कोई बाधा उत्पन्न न हो इसको ध्यान में रखते हुए सभी भूमि रामलला विराजमान के स्वामित्व में देने का फैसला करके भविष्य में होने वाली समस्याओं से भी मुक्ति दिला दी है। इस फैसले ने किसी का हक मारने या हार-जीत जैसी किसी राजनीति को किनारे कर दिया है। फैसला किसी आंदोलन या अभियान का हिस्सा नहीं बना, जिससे कोई सियासी दल या सरकार इसे अपनी उपलब्धि नहीं बता सकता है। हालांकि सियासी और धार्मिक संगठनों के नेता अपने चेहरे चमकाने की कोशिश में लग गये हैं। तमाम नेता आमजन से शांति और सद्भाव बनाने की अपील कर रहे हैं जबकि आमजन खुद समझदारी के साथ फैसले को देख रहा है। उनकी अपील सिर्फ खुद को नेता दिखाने की अधिक प्रतीत हो रही है। ओवैसी जैसे नेताओं ने जो मुकदमे में पार्टी भी नहीं हैं माहौल बिगाड़ने की बातें भी की, मगर मुस्लिम आवाम ने उसे अनसुना कर दिया। देर शाम सुन्नी वक्फ बोर्ड के चेयरमैन जफर फारुखी ने भी स्पष्ट कर दिया कि अदालत के फैसले को सभी को स्वीकार्य करना चाहिए। सुन्नी वक्फ बोर्ड इस मामले में पुनर्विचार याचिका दाखिल नहीं करेगा।
07 जनवरी 1993 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को अपना प्रश्न भेजकर न्यायालय की राय मांगी कि ‘क्या ढांचे वाले स्थान पर 1528 से पूर्व कोई हिंदू मंदिर/भवन था?’ उस वक्त के प्रधान न्यायमूर्ति वेंकटचलैया की अध्यक्षता में 5 न्यायमूर्तियों की पूर्ण पीठ बनी। इसी आधार पर भारत सरकार ने विवादित भूमि सहित 68 एकड़ भूमि एक्ट (अयोध्या अधिग्रहण एक्ट 1993) बनाकर राम मंदिर/बाबरी मस्जिद के लिए भूमि अधिगृहित कर ली थी। अदालत ने अपने पैरा नं. 24-25 में उसका जिक्र किया है और वही भूमि राम मंदिर के लिए देने का आदेश दिया है। साफ है कि अदालत ने किसी का स्वामित्व छीनकर मंदिर बनाने को अयोध्या की जमीन नहीं दी, बल्कि जो जमीन तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने मंदिर के लिए भारत के राष्ट्रपति के नाम अधिगृहित कराई थी, वही भूमि दी है। अदालत ने राष्ट्रपति के अयोध्या भूमि अधिगृहण एक्ट 1993 के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर हुए मुकदमें ‘डा. एम इस्माइल फारुकी बनाम भारत सरकार’ के 24 अक्तूबर 1994 में आये फैसले और केंद्र सरकार के संवैधानिक कदमों का भी जिक्र किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अदालत ने शनिवार को जो फैसला दिया है, वह किसी दबाव या प्रभाव में नहीं बल्कि संवैधानिकता के आधार पर दिया है,अदालत ने अपने फैसले के पैरा 25 में 23 अक्तूबर 2002 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर पुरातत्व विभाग से वैज्ञानिक जांच और जियो-रेडियोलाजी तथा अन्य तकनीक के माध्यम से विवादित परिसर में बनी मस्जिद के पहले के निर्माण सहित अन्य विषयों की जांच के आदेश का जिक्र किया है। इस फैसले में यही रिपोर्ट सबसे बड़ा आधार भी बनी है क्योंकि मस्जिद के अलावा बाकी सभी मान्यताएं एवं परंपरायें, कहानियों की तरह थीं, उन्हें साबित करने का कोई मजबूत आधार नहीं था, सिवाय महाकाव्यों के। इसी आधार पर 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद की लखनऊ खंडपीठ के न्यायमूर्ति एसयू खान, सुधीर अग्रवाल एवं डीवी शर्मा ने अपना फैसला दिया था, जिसमें राममंदिर का मालिकाना हक सिद्ध हो गया था मगर तीन पक्ष होने के कारण विवाद बना रहा। शनिवार को सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ एक पक्ष माना और वह भी कोई संगठन नहीं बल्कि रामलला विराजमान। रामलला को देवता के रूप में संपत्ति का स्वामी माना गया।
अपनी 41 दिनों की सख्त रुख और तेज सुनवाई के दौरान पांचों न्यायमूर्तियों ने हर पक्ष को सुना, मौका दिया मगर सभी को तय समय सीमा में ही अपनी बात रखने को कहा। यह एक अच्छा प्रयास था, जो भविष्य के लिए भी नजीर है कि बड़े और महत्व के मामलों को जिनमें जनहित शामिल हो वक्त की सीमा में सुनकर फैसले किये जायें। अगर ऐसा होने लगेगा तो देश की तमाम अदालतों में लंबित तीन करोड़ से अधिक मुकदमों के निस्तारण में अधिक वक्त नहीं लगेगा। सुनवाई के दौरान न्यायमूर्तियों पर आरोप लगाने की कोशिश भी हुई। मुख्य न्यायमूर्ति रंजन गोगोई पर आरोप लगा कि वह कांग्रेस पार्टी के असम में मुख्यमंत्री रहे केशव चंद्र गोगोई के बेटे हैं, जिससे वह भाजपा के विरोधी हैं मगर उन्होंने आरोपों की परवाह कभी नहीं की। उन्होंने बगैर किसी दबाव के तमाम मामलों में निष्पक्षता और तेजी से काम किया। यह भी एक अच्छा संदेश है कि न्याय किसी भावना, आरोप या तथ्यविहीन चचार्ओं से प्रभावित नहीं होता। न्याय पंच परमेश्वर की अवधारणा पर आधारित होता है। न्याय की देवी आंखों पर पट्टी इसीलिए बांधती हैं क्योंकि वह यह नहीं देखतीं कि सामने कौन है और फैसले से किसको लाभ या हानि होगी। वह सिर्फ मौजूद तथ्यों, सबूतों और परिस्थितियों के आधार पर न्याय करती हैं।
जयहिन्द
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)