कोरोना का कहर पूरी दुनिया में आतंक मचाया हुआ है। हर तरफ हाहाकार जैसी स्थिति बनी हुई है। अलग-अलग देशों में सरकारें अपने-अपने हिसाब से तमाम तरह के इंतजामात कर रही है। इस बीच दुनिया की हर सरकार के सामने यह सवाल है कि वह अपने देश की अर्थव्यवस्था को बचाए, अपनी वित्तीय हालत खराब होने की चिंता करे या लोगों की जान बचाए? अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को इस बात के लिए लोगों की आलोचना झेलनी पड़ी है कि वे आम अमेरिकी की जान से ज्यादा कारोबार, आर्थिकी और देश की वित्तीय हालत को तवज्जो दे रहे हैं और इसलिए वे पूरे देश में लॉकडाउन नहीं कर रहे हैं। जिन राज्यों में लॉकडाउन किया गया वहां भी ट्रंप की मर्जी को ठुकरा कर राज्यों के गवर्नरों ने अपने स्तर पर फैसला किया। ध्यान रहे अमेरिका इस समय कोरोना वायरस से सर्वाधिक संक्रमित देश है। फिर भी देश पूरी तरह से लॉकडाउन नहीं है। कारोबारी गतिविधियां जारी हैं। ट्रंप का कहना है कि यात्रा परामर्श जारी करने से काम चल जाएगा। भारत में इसके बिल्कुल उलट मॉडल अपनाया गया। भारत में जब बहुत कम मामले थे, तभी लॉकडाउन शुरू हो गया। यहां भी केंद्र सरकार के लॉकडाउन से पहले खुद राज्यों ने ही पहल करके अपने यहां सारी गतिविधियां बंद करनी शुरू कर दी थीं। प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन का एलान किया उससे पहले ही दिल्ली, झारखंड जैसे कई राज्यों ने अपने यहां बंदी का एलान कर दिया था। 25 मार्च को जिस दिन से भारत में लॉकडाउन चालू हुआ उस दिन देश में संक्रमण के कुल 519 मामले थे। उसी दिन पूरा देश बंद कर दिया गया। जाहिर है इस फैसले के पीछे आर्थिकी की परवाह किए बगैर देश के लोगों की जान बचाने की सोच थी।
भारत के संदर्भ में एक खास बात यह है कि यहां की आर्थिकी पहले से ही बुरी हालत में थी। पिछली कई तिमाहियों से लगातार विकास दर गिर रही थी। जाहिर है पहले से गिरती अर्थव्यवस्था को कोरोना वायरस के संकट के समय संभाल लेना संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि संकट सिर्फ भारत का नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया का है। इससे पूरी दुनिया का कारोबार प्रभावित हुआ है। भारत इसका लाभ तभी उठा सकता था, जब भारत में निर्माण इकाइयां पहले से काम कर रही होती। अब संभव नहीं है कि संकट के समय निर्माण इकाइयों को पुनर्जीवित किया जाए और दुनिया के बाजार में भारत को स्थापित किया जाए। यह समय ऐसा भी नहीं है कि मेक इन इंडिया के विचार को आगे बढ़ाया जाए। अमेरिका की स्थिति अलग है। वहां की अर्थव्यवस्था छलांग मार रही थी इसलिए कोरोना की वजह से वह उसे बैठने नहीं दे सकता। तभी भारत के लिए बेहतर होगा कि वह अपने लोगों की जान बचाने पर ध्यान दे। जान बची यानी कोरोना ने भारत में महामारी का रूप नहीं लिया तो तीन महीने या छह महीने के बाद अर्थव्यवस्था पटरी पर लाई जा सकती है। आखिर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत गिरी हुई है और दुनिया के दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था भी खराब हुई है। सो, भारत पुनर्वापसी करने में ज्यादातर देशों से बेहतर स्थिति में होगा। अपने लोगों की जान बचाने को प्राथमिकता देने की रणनीति का एक फायदा यह भी है कि पिछले कई बरसों से लगातार बिगड़ती अर्थव्यस्था अपने आप कोरोना वायरस के साथ जुड़ जाएगी।
पिछले दिनों वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज (पीएमजीकेपी) सिर्फ उस सीमा तक स्वागत योग्य है, जहां तक यह कोविड-19 के सामाजिक खतरे के कारण गरीब परिवारों के सामने आने वाली कठिनाइयों को दूर करेगा। इसमें टैक्स से जुड़ी राहतें भी हैं। आरबीआइ ने भी ब्याज दरें घटाने के साथ बैंकों को टर्म लोन की किस्तें स्थगित करने की अनुमति दी है। सरकार और इसकी संस्थाओं की इसके लिए प्रशंसा की जानी चाहिए। वित्त मंत्री की 26 मार्च 2020 की घोषणा के अनुसार, भविष्य में निश्चित ही ऐसे और उपाय किए जाएंगे। यह और भी उपयुक्त होता अगर सरकार ने टैक्स, गरीबों, औपचारिक और अनौपचारिक कर्मियों, उद्योगों और व्यापार खासकर एमएसएमई और स्वास्थ्य संसाधनों के लिए एक ही बार में व्यापक उपाय किए होते, क्योंकि ये सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं। आरबीआइ भी इसके समानांतर वित्तीय उपाय पेश कर सकता था। पीरियॉडिक लेबर फोर्स के 2017-18 के सर्वे अनुसार, गैर कृषि क्षेत्र में नियमित मजदूरी/वेतन वाले 72.8% श्रमिकों के पास औपचारिक रोजगार कॉन्ट्रैक्ट नहीं है, इनमें से लगभग 53% को सवैतनिक छुट्टी नहीं मिलती और इनमें से 48% के पास कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। यह जान लेना जरूरी है कि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के लगभग 85% (4.77 करोड़ श्रमिक), नॉन-मैन्युफैक्चरिंग के लगभग 95% (इसमें भवन निर्माण की हिस्सेदारी लगभग 93% है, जिनमें ज्यादातर अनौपचारिक श्रमिक हैं) और सेवा क्षेत्र के लगभग 79% श्रमिक अनौपचारिक हैं। शहरों में भवन निर्माण क्षेत्र के 70.4% श्रमिक अनियमित हैं। संगठित फैक्टरी क्षेत्र में कुल कामगारों में से आधिकारिक रूप से 35% ठेका श्रमिक हैं।
पीएमजीकेपी में बिना किसी आधार के कहा गया है कि सिर्फ उन्हीं लोगों की नौकरी जाने का खतरा है जो 100 कर्मचारियों से कम को रोजगार देने वाले संस्थानों में काम करते हैं और जिनका वेतन 15,000 रुपये महीना तक है। इसी तर्क के आधार पर इसमें कर्मचारी (15,000 से कम आय वाले) और नियोक्ता दोनों के हिस्से के ईपीएफ अंशदान का भुगतान करने का प्रस्ताव है। यानी सरकार तीन महीने तक उनके वेतन के 24% के बराबर राशि उनके पीएफ खाते में जमा कराएगी। इसके लिए 5,000 करोड़ रुपये का प्रस्ताव किया गया है। सरकार का दावा है कि इस उपाय से कामगारों की नौकरी बचाने में मदद मिलेगी। सरकार इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स एक्ट 1947 के चैप्टर V-बी और ईपीएफ एक्ट 1952 के बीच स्पष्ट रूप से उलझ गई है। पहला कानून 99 से अधिक कर्मचारियों वाली केवल पंजीकृत फैक्टरियों, खदानों और बागानों में लगातार एक साल काम करने वाले श्रमिकों को रोजगार सुरक्षा प्रदान करता है। इन फर्मों को श्रमिकों की छंटनी और उन्हें निकालने से पहले अनुमति लेनी पड़ती है। ईपीएफ एक्ट के तहत 15 हजार रुपये महीने से कम आय वाले कर्मी नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के अंशदान के लिए पात्र होते हैं। अगर सरकार 15 हजार रुपये से कम आय और 100 से कम कर्मचारियों वाले संस्थानों में ईपीएफ अंशदान का भुगतान करती है, तो नौकरी जाने के खतरे से मिलने वाली सुरक्षा बहुत मामूली होगी।
बहरहाल, इधर-उधर की बातें करने से बेहतर है कि पहले जान की सुरक्षा की जाए। कहते हैं कि जान बचे तो लाख उपाय। जान बची रहेगी तो बाकी काम भी बाद में कर लिए जाएंगे। कोरोना वायरस यानी कोविड-19 पूरे विश्व में एक व्यापक संक्रामक महामारी का रूप ले चुका है। रोग की भयावहता और इसकी तेज गति के संक्रमण के कारण कई देशों ने अपने यहां पूर्ण लॉकडाउन कर दिया, यानी सभी काम रोक दिए गए और सभी व्यक्तियों को अपने घरों में रहने के लिए बाध्य कर किया गया। विश्व में पहली बार इस तरह की घटना हुई कि पूरा विश्व ही जैसे इस महामारी से बचाव के लिए रुक गया हो। खैर, जरूरी यह है कि जान बचाने के लिए प्रयास किया जाए।