उन दिनों कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे और राजनाथ सिंह भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष। गोविंदाचार्य संगठन मंत्री थे। भगत सिंह कोश्यारी एमएलसी थे, चुनाव नहीं जीत पाये थे, तो बैकडोर इंट्री मिली थी। हम लखनऊ में ही संवाददाता थे। कोश्यारी से हमारी इन तीनों लोगों के यहां कई बार मुलाकात हुई। हमने वहां कोश्यारी की हैसियत भी देखी और एक सिंगल कॉलम खबर छापवाने के लिए चक्कर लगाते भी देखा। खुद को सिद्धांतवादी बताकर मदद के लिए याचना करते देखा था। अब एक राज्य के संवैधानिक प्रमुख के पद पर उन्हें देख रहा हूं, जब उनके पद का दायित्व सिद्धांतों और विधि अनुकूल राजकीय कार्यों को संचालित कराने का है। हमें तब आश्चर्य नहीं हुआ था, जब उन्होंने रातों रात बगैर किसी विधिक आधार के भाजपा सरकार बना दी थी। वजह, उनके रीढ़ नहीं है, यह हम 22 साल पहले देख चुके थे। अचरज तब हुआ, जब उन्होंने अपने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को चिट्ठी लिखकर कहा कि आप धर्मनिरपेक्ष कब हो गये। हम सभी को पता है कि भारत के संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष गणराज्य होने की बात लिखी है। उसी की संरक्षा की शपथ लेकर कोश्यारी भी राज्यपाल पद का सुख भोग रहे हैं। वह भाजपा के जन्म से उसके सदस्य रहे और तमाम पद पाये हैं। उसी भाजपा के संविधान के अनुच्छेद-2 (उद्देशिका) में स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्षता पर पार्टी सच्चा विश्वास रखेगी। विश्व में भारत को जो सम्मान मिलता है, उसका बड़ा कारण हमारे देश का धर्मनिरपेक्ष होना भी है। उसी धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनका घृणा भाव किसी भी देशप्रेमी के लिए चिंता का विषय होना लाजिमी है।
कोश्यारी ने अपनी चिट्ठी में व्यंगात्मक लहजे में दैवीय पूर्वाभास शब्द का प्रयोग किया। संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग अनुचित है। संविधान दैवीय टिप्पणियों जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करता। इस भाषा में पत्र लिखकर उन्होंने अपनी सीमाएं लांघ दी हैं। सरकार चलाना राज्यपाल का काम नहीं है। राज्य संविधान के अनुसार काम करे यह सुनिश्चित करना उनका काम है। इसमें धर्मनिरपेक्षता या सांप्रदायिकता का कोई मसला नहीं है, क्योंकि राज्य व्यक्ति नहीं होता। राज्यपाल को अपनी चिट्ठी में सभी धर्मों के पूजास्थलों का ज़िक्र करते हुए उनको खोलने की व्यवस्था करने के संदर्भ में सरकार को निर्देश देना चाहिए था, न कि सिर्फ मंदिरों की बात करनी चाहिए थी। अगर वह जनहित और जनभावनाओं का जिक्र करते हुए ऐसा करते, तो शायद बड़ी लकीर खींचते। एक और घटना विचलित करने वाली है। जेवरात का व्यवसाय करने वाली टाटा समूह की कंपनी तनिष्क ने त्योहारों के लिए एक विज्ञापन बनाया था, जिसमें हिंदू मुस्लिम एकता के लिए रीति रिवाजों को दर्शाया गया था। इस विज्ञापन के खिलाफ नफरत का बवाल खड़ा कर दिया गया। हमने भी 10 बार यह विज्ञापन देखा मगर कुछ ऐसा नहीं मिला कि आपत्ति कर सकें। विज्ञापन बनाने वालीं, फिल्मकार जोइता पटपटिया को इन संस्कारित लोगों ने सोशल मीडिया पर जिन शब्दों से ट्रोल किया, वह किसी भी नारी के लिए दुखद है। इस विज्ञापन में एकता का संदेश देते हुए पुली कुडी बना रहे परिवार को दर्शाया गया है। यह मलयाली लोगों की गोद भराई रस्म का अहम हिस्सा होता है। विज्ञापन में एक परिवार अपनी बहू पर पूरा प्यार लुटा रहा है। जोइता से जब इस पर बात हुई, तो उनकी आंखों में आंशू आ गये। बोलीं, इतनी नफरत देखकर वह सिहर गई हैं। आजादी के सात दशक बाद, हम उम्मीद करते थे कि हम आगे बढ़ रहे हैं मगर अब लगता है, अंधकार में जा रहे हैं।
देश और विश्व संकट काल से गुजर रहा है। हमें मानवता और विश्व बंधुत्व की भावना के साथ आगे बढ़ने के मार्ग तलाशने चाहिए, यही सनातन धर्म का ध्येय है। विश्व के तमाम नीति निर्धारक और विचारक पदों पर भारतीय मूल के लोग, इसलिए पहुंचे हैं क्योंकि हम लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य हैं। विश्व मुद्रा कोष की मुख्य अर्थशास्त्री डॉ. गीता गोपीनाथन ने बताया है कि कोविड-19 और उसके पहले भारत की गलत नीतियों के कारण ही देश काफी पीछे चला गया है। उन्होंने सरकार को सलाह भी दी है कि अगर तेजी से भरपाई करनी है, तो आम लोगों और उद्योगों को सरकार सीधी मदद देनी होगी। सौहार्दपूर्ण वैश्विक व्यवहार का माहौल बनाना होगा। जब ऐसा होगा, तब कहीं देश 2022 में 2019 की स्थिति पर लौटेगा। हमारी विडंबना यह है कि जिन्हें हमने चुना और राज्य संचालन का मौका दिया, सभी में अपने छिपे एजेंडे को पूरा करने की सनक सवार है। उनके लिए देश और उसकी समृद्धि शायद मायने नहीं रखती। यही कारण है कि वह देश के बदतर हालात को सुधारने के लिए भारतीय मूल के महानतम अर्थशास्त्रियों, विज्ञानियों से चर्चा करने के बजाय सांप्रदायिकता का जहर घोलते हैं। उन्हें अपने काम पर भरोसा ही नहीं है। नफरत की सियासत के बूते सत्ता की सीढ़ी चढ़ने का हाल यह है कि पिछले 15 सालों में बिहार और यूपी दुर्दशा का शिकार हो गया। नितिश कुमार को विकास के नाम पर चुना गया था। उनके राज को सुशासन का नाम दिया गया था मगर अब हाल बुरे हैं। देश के औसत के मुकाबले बिहार पिछले दो दशक में सबसे बुरी हालत में है। देश के गृह राज्य मंत्री जैसे अहम ओहदे पर बैठे नित्यानंद राय, बिहार में वोट हासिल करने के लिए जनता को कश्मीर के नाम पर डराते हैं, न कि अपना काम गिनाते हैं। सुशांत सिंह राजपूत की लाश पर सियासत को चमकाकर उसे वोट बैंक बनाया जा रहा है।
संवैधानिक पदों और संस्थाओं में भी नफरत इस हद तक घुसपैठ कर चुकी है कि उनके फैसलों में सांप्रदायिक और जातीय घृणा स्पष्ट नजर आती है। अदालतें न्याय का मंदिर के बजाय सरकारी नियामक बन गई हैं। आपको याद होगा कि तब्लिगी जमात के लोगों को कोरोना का अपराधी बनाने के लिए फर्जी वीडियो बनाये गये थे। हाथरस में गैंगरेप पर पर्दा डालने के लिए देशद्रोह जैसी कहानी रच दी गई। लोगों में नफरत कैसे फैलाई जाती है, इसका जीवंत उदाहरण पालघर कांड है। जहां हिंदू समुदाय के लोगों ने अफवाह के चलते तीन साधुओं को पीटकर मार डाला था मगर उन्हें मुस्लिम प्रचारित किया गया। वहीं जब यूपी के योगीराज में दो दर्जन साधुओं की हत्या हुई तो उस पर चर्चा भी नहीं। वजह साफ है, जहां एक दल विशेष को फायदा होगा, वहां न कोई नैतिकता, न सिद्धांत और न जवाबदेही मगर जब उसी दल को नुकसान होता है तो सब उलट जाता है। नफरत का शिकार सिर्फ सियासी क्षेत्र नहीं है। सिनेमा जगत में दीपिका पादुकोण से लेकर तीनों खान कलाकार इसका शिकार हैं। महेश भट्ट हों या करण जौहर सभी पर धर्मनिरपेक्ष होने के कारण हमले होते हैं। सिनेमा जगत नफरत फैलाने वालों के खिलाफ अदालत चला गया। इसी को देखते हुए करीब 100 जापानी कंपनियों ने भारत आने के बजाय बांग्लादेश में अपने प्लांट लगाने शुरू कर दिये हैं। उद्योगपति राजीव बजाज और पारले जी समूह ने नफरती चैनलों को विज्ञापन न देने का सराहनीय फैसला किया है।
हम जब भारत और विश्व के इतिहास पर नजर दौड़ाते हैं, तो एक ही निचोड़ सामने आता है कि जिस राज्य में शांति, प्रेम और सौहार्द का माहौल रहा, वहां समृद्धि आई है। जहां अशांति-नफरत हुई, वहां बरबादी के सिवाय कुछ हासिल नहीं हुआ। जो देश सांप्रदायिक हैं, उन देशों की हालत बद से बदतर हुई है। जिन देशों ने धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक सौहार्द को अपनाया, वो हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। हमें भी यह समझना होगा कि हम जाना कहां चाहते हैं, भविष्य की पीढ़ी को क्या देना चाहते हैं, बरबादी या समृद्धि?
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)