That passion of journalism! पत्रकारिता का वह जज्बा!

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यह उन दिनों की बात है जब यूपी में बाबू बनारसी दास की सरकार थी। जोड़तोड़ कर बनाई गई इस सरकार का कोई धनीधोरी नहीं था। बाबू बनारसीदास यूं तो वेस्टर्न यूपी के थे पर वे चौधरी चरण सिंह की बजाय चंद्रभानु गुप्ता के करीबी हुआ करते थे। सरकार चूंकि कई नेताओं की मिलीजुली थी इसिलए भले चंद्रभानु गुप्ता अपना सीएम तो बनवा ले गए मगर चौधरी चरण सिंह और हेमवती नंदन बहुगुणा ने उनको घेर रखा था। इस सरकार के डिप्टी सीएम नारायण सिंह बहुगुणा जी के आदमी थे। उन पर चौधरी चरण सिंह का भी वरद हस्त था। तब कांग्रेस के भीतर मांडा के पूर्व राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का कद बढ़ रहा था मगर उनके भाई-बंधु अपने इलाकों में कहर ढाए थे। ऐसे ही समय हमें सूचना मिली कि इलाहाबाद के दूर देहाती इलाके में तरांव के जंगलों में तीन किसानों को मार दिया गया है। कानपुर में तब मैं फ्रीलांसिंग करता था इसलिए मैने और दो अन्य मित्रों ने ठान लिया कि हम रीवा सीमा से सटे उस तरांव गांव में जाएंगे। मगर किसी अखबार ने यह खबर नहीं छापी थी और तब नेट का जमाना नहीं था इसलिए यह अनाम-सा तरांव गांव, किसान सभा और उन किसानों के बाबत पता करने में बड़ी मुश्किलें आईं। बस इतना पता चला कि किसान सभा कम्युनिस्टों का संगठन है। इसलिए हमने इलाहाबाद शहर जाकर पहले तो भाकपा की स्थानीय इकाई के दफ्तर में जाकर पता किया तो मालूम हुआ कि किसान सभा माकपा का संगठन है। फिर हम माकपा के जिला सचिव जगदीश अवस्थी से मिले, जो वहां पर जिला अदालत में वकील थे। उन्होंने बताया कि तरांव की जानकारी तो उन्हें भी नहीं है पर यह मेजा रोड के पास कुरांव थाने की घटना है। उन्होने मेजा रोड के एक कामरेड का नाम दिया और कहा कि वे आगे की जानकारी देंगे। हम मेजा रोड जाकर उन कामरेड से मिले। वे वहां पर बस स्टैंड के सामने मोची का काम करते थे। उन्होंने बताया कि हमारे तहसील सचिव तो आज लखनऊ गए हैं लेकिन आप कुरांव चले जाएं और वहां पर रामकली चाय वाली हमारी कामरेड है, उसे जानकारी होगी।
शाम गहराने लगी थी और इलाका सूनसान जंगलों और पत्थरों से भरा। हम वहां किसी को जानते भी नहीं थे। मगर हमारे अंदर इस अचर्चित घटना को कवर करने की इतनी प्रबल इच्छा थी कि हम सारे जोखिम मोल लेने को तैयार थे। हम फिर बस पर चढ़े और करीब नौ बजे रात जाकर पहुंचे कुरांव कस्बे में। कस्बे में सन्नाटा था और बस अड्डे पर दो-चार सवारियों के अलावा और कोई नहीं। किससे पूछें, समझ नहीं आ रहा था। हमने बस के ड्राइवर व कंडक्टर से रामकली चाय वाले के बारे में पूछा तो बोले आप आगे जाकर पता कर लो। हम बस अड्डे की तरफ आने वाली गली में आगे बढ़े। तीन-चार चाय की दूकानें मिलीं तो पर रामकली चायवाली का पता नहीं चला। फिर काफी दूर जाने पर एक दूकान पर एक औरत चाय बना रही थी और अंदर कुछ लोग चाय पी रहे थे। हमने उसी से पूछा कि रामकली जी आप ही हो तो वह गुस्साए स्वर में बोली- कउन रामकली हियां कउनो रामकली नाहिन आय। हम आगे बढ़े तो वह फुसफुसा कर बोली अंदर बइठो। हमारे पास चाय आ गई। हमने चाय पी। तब तक अंदर बैठे लोग चले गए तो वह हमारे पास आई और धीमी आवाज में कहने लगी कि हियां से दक्खिन की तरफ जाव। चांद रात है निकल जाओ डेढ़ कोस है तरांव। मरते क्या न करते हम चल पड़े। लेकिन इस बात का अहसास हो गया कि यहां जमींदारों व बड़े किसानों का आतंक है। ये दादू टाइप लोग सबको दबा कर रखते हैं। हम गांव की उस कच्ची सड़क पर चल दिए। अभी कोई आधा किलोमीटर निकले होंगे तो पीछे से आवाज आई- अरे बाबू लोगव रुको आय रहै हन। पीछे मुड़कर देखा तो एकबारगी तो सनाका खा गए। पहलवान नुमा एक अधेड़ आदमी अपने एक हाथ में लालटेन पकड़े और दूसरे में लाठी लिए लगभग भागते हुए हमारी तरफ आ रहा था। हमें लगा कि वह हमें मारने ही आ रहा होगा। पर वह हमारे पास आकर बोला- साहब हम लोगन का बड़ा बुरा लगा कि आप लोग शहर ते हमरी खातिर आए हव और हम लोग आपकी खातिरदारी तो दूर जंगल मां अकेले भेज दीन।
हियां तेंदुआ तो लगतै है ऊपर से ईं ससुर राजा लोग हमार जीना दूभर किए हैं। उसका इशारा वीपी सिंह की मांडा और डैया रजवाड़े की तरफ था। हम समझ गए कि समझ गए कि यहां पर दबंगों को भी हमारे आने की सूचना मिल गई है। करीब घंटे भर उसी ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते, जिसे वहां के लोग बटहा बोलते हैं, पर चलने के बाद हम एक पगडंडी की तरफ मुड़ गए। थोड़ी ही दूर पर कुछ घास-फूस के घर नजर आने लगे। पता चला कि यही तरांव है। उस पहलवान ने हमें वहां कामरेड हिंचलाल विद्यार्थी से मिलवाया और उन्हें बताया कि ईं बाबू लोग आपसे मिलंय के लिए इलाहाबाद से आए हैं। हिंचलाल ने हमारा परिचय पूछा और परिचय पत्र मांगा। हमारे एक साथी बलराम जो तब कानपुर के आज अखबार में रिपोर्टर थे, के पास बाकायदा आज का कार्ड था, वही उन्हें दिखाया गया तो वे हमें अपने उस झोपड़ेनुमा घर के अंदर ले गए। जिसमें दो कच्चे कमरे बने हुए थे। हमारे कमरे के आधे हिस्से में उनकी पत्नी हमारे लिए दाल-चावल बनाने लगीं और बाकी के आधे हिस्से में हिंचलाल हमें किसानों की हत्या के बारे में बताने लगे। कामरेड हिंचलाल ने जो बताया वह आंखें खोल देने वाला था। दरअसल मांडा और डैया रजवाड़ों की जमीनें बचाने के लिए वीपी सिंह और उनके भाइयों ने ट्रस्ट बना रखे थे। उतरते बैशाख की उस रात गर्मी खूब थी मगर हिंचलाल हमें अपने घर के अंदर ही बिठाए बातचीत कर रहा था ऊपर से चूल्हे का धुआं और तपन परेशान कर रही थी। मैने कहा कि कामरेड हम बाहर बैठकर बातें करें तो बेहतर रहे। हिंचलाल बोला कि हम बाहर बैठ तो सकते हैं पर आप शायद नहीं समझ रहे हैं कि भीतर की गर्मी बाहर की हवा से सुरक्षित है। बाहर कब कोई छिपकर हम पर वार कर दे पता नहीं। हिंचलाल ने बताया कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए हैं और दलित समुदाय से हैं लेकिन नौकरी करने की बजाय उन्होंने अपने भाइयों के लिए लड़ना बेहतर समझा। यहां पत्थरों की तुड़ाई होती है और साथ में धान की खेती। एक जमाने में यह पूरा इलाका राजा मांडा और डैया रजवाड़ों की रियासत में था। इन रियासतों के राजाओं ने अपनी जमींदारी जाने पर इस इलाके को फर्जी नामों के पट्टे पर चढ़ाकर सारी जमीन बचा ली और जो उनके बटैया अथवा जोतदार किसान थे उनकी जमीन छीन ली। ट्रस्ट बना कर वही रजवाड़े फिर से जमीन पर काबिज हैं। यूं तो सारी जमीन वीपी सिंह के पास है लेकिन वे स्वयं तो राजनीति के अखाड़े पर डटे हैं और ट्रस्ट का कामकाज उनके भाई लोग देखते हैं। यहां वे किसान इन्हीं ट्रस्टों में काम करते हैं। कई मजदूरों को तो ट्रस्ट में बहाल किया हुआ है लेकिन ट्रस्ट के कामकाज में उनकी कोई दखल नहीं है। वे इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देते और अपने यहां ही काम करने को मजबूर करते हैं। इंकार करने पर मारपीट करते हैं और इसी के चलते तीन किसानों को मार दिया गया।
हिंचलाल अगले रोज सुबह हमें बस पकड़वाने के लिए कुरांव छोड़ने आए तो वहां के बुजुर्ग पत्रकार चंद्रमा प्रसाद त्रिपाठी के घर ले गए। चंद्रमा प्रसाद स्वभाव से क्रांतिकारी थे। उन्होंने हमें राजा मांडा चैरिटेबल ट्रस्ट और राजा डैया चैरिटेबल ट्रस्ट की तमाम जानकारियां दीं तथा सबूत भी। बाद में हम थाने गए जहां के थानेदार ने किसान सभा के तीन किसानों के मरने को सामान्य दुर्घटना करार दिया था और पूरे कस्बे में कोई हमें यह बताने वाला नहीं मिला कि वे तीन किसान क्यों मारे गए। हम वापस इलाहाबाद आए और वहां से कानपुर। महीने भर बाद मेरी विस्तृत रिपोर्ट तत्कालीन बंबई से छपने वाले साप्ताहिक करंट में छपी पर वह रिपोर्ट पढ़ने के लिए हिंचलाल विद्यार्थी जीवित नहीं रहे थे। पता चला कि उन्हें कुछ दादुओं ने सोते वक्त मार दिया था।