सर्वोच्च न्यायालय ने सेना में महिलाओं के लिए स्थायी कमीशन को मंजूरी देने के साथ ही देश की रक्षा में उनके योगदान को ‘सुप्रीम’ सम्मान दिया है। इससे सेना में महिलाओं का न सिर्फ सम्मान बढ़ेगा, बल्कि देश में लैंगिक समानता की दृष्टि से नया अध्याय भी लिखा जाएगा। लैंगिक समानता व महिला सम्मान का यह मसला सैन्य दृष्टि से स्वीकार्यता के अध्याय लिख देगा, किन्तु देश की महिलाओं को संसद में अब भी इस सम्मान की प्रतीक्षा है। लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण के लिए दशकों से चल रहे प्रयास फलीभूत नहीं हो रहे हैं। ऐसे में संसद के गलियारों से महिलाओं के लिए भागीदारी के कानून की प्रतीक्षा कब समाप्त होगी, यह सवाल यक्ष प्रश्न बन गया है।
सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में देश की रक्षा में अपना सर्वस्व समर्पण का भाव रखने वाली महिलाओं को पुरुषों की भांति स्थायी कमीशन देने का आदेश जारी किया है। इससे महिलाओं के सेना में उच्च पदों तक पहुंचने का पथ प्रशस्त होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं को सैन्य कमान का नेतृत्व संभालने के लिए भी उपयुक्त माना है। ऐसे में अब उम्मीद की जानी चाहिए कि महिलाएं कमांड पोस्ट की जिम्मेदारी संभालते हुए यानी सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए अपने शौर्य का अद्भुत प्रदर्शन करती दिखाई देंगी। महिलाएं वैसे भी लगातार समानता के अधिकार के लिए संघर्षरत हैं। ऐसे में शौर्य की प्रतीक महिलाओं को सेना में महत्व मिलने से उनका हौसला बढ़ेगा। महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी विशिष्टता साबित की है। सेना एकमात्र क्षेत्र रहा है, जहां महिलाओं के अधिकारों व संभावनाओं को सीमित कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद न सिर्फ उन्हें सैन्य क्षेत्र के असीमित आकाश में संभावनाओं के द्वार खोलकर उड़ने का मौका मिलेगा, बल्कि वे सफलताओं के नए प्रतिमान स्थापित कर सकेंगी। सेना में मिले अवसर सार्वजनिक रूप से महिलाओं के लिए समानता के द्वार भी खोलेंगे।
सेना में तो महिलाओं के सम्मान की राह सर्वोच्च न्यायालय ने खोल दी है किन्तु देश की संसद व विधानमंडलों में महिलाओं के आरक्षण की मांग दशकों से लंबित चली आ रही है। देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आने के पहले संसद व विधानमंडलों में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण दिये जाने की बात करती रही है, किन्तु केंद्र में सत्ता की लगातार दूसरी पारी के बावजूद इस दिशा में सकारात्मक निर्णय नहीं हो सका है। देश की राजनीति में 1974 से इस मुद्दे पर चर्चा हो रही है। 1993 में स्थानीय निकायों में तो महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी गयीं किन्तु संसद व विधानमंडलों में आरक्षण पर अब तक सफलता नहीं मिली है। 1996 में तत्कालीन एचडी देवेगौड़ा सरकार ने संसद में इस आशय का विधेयक प्रस्तुत किया था, किन्तु सरकार ही गिर गयी। भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने पर 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर यह विधेयक लोकसभा में पेश किया गया किन्तु सफलता नहीं मिली। 1999, 2002 और 2003 में बार-बार विफलताओं के बाद 2008 में लोकसभा व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से जुड़ा विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया, जो दो साल बाद 2010 में पारित भी हो गया किन्तु महिलाओं का सम्मान सुनिश्चित करने में लोकसभा एक बार फिर हार गयी। तब से अब तक इस मसले पर राजनीतिक दलों में लुकाछिपी जैसा खेल चल रहा है और कोई सकारात्मक प्रयास होते नहीं दिख रहे हैं।
मौजूदा केंद्र सरकार से एक बार फिर महिलाओं को बड़ी उम्मीदें जगी हैं। जिस तरह से तमाम विरोध के बावजूद सरकार ने तीन तलाक पर पाबंदी, नागरिकता संसोधन विधेयक और कश्मीर से धारा 370 के प्रावधान हटाने जैसे बड़े फैसले ले लिये, उसके बाद महिलाओं को आरक्षण देने का फैसला लेना इस सरकार के लिए कठिन होगा, यह कहना उपयुक्त नहीं लगता। जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी बड़े-बड़े फैसले ले रही है, महिलाएं चाहती हैं कि संसद व विधानमंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण का फैसला भी येन-केन प्रकारेण ले ही लिया जाना चाहिए। दरअसल पुरुष प्रधान समाज में तमाम राजनीतिक दल चाहते ही नहीं हैं कि महिलाएं राजनीति में आगे आएं। उन्हें पता है कि महिलाओं ने जिस क्षेत्र में कदम बढ़ाए हैं, वहां सफलता के झंडे लहरा दिये हैं। ऐसे में राजनीति में महिलाएं आईं तो न सिर्फ समाज में उनका वर्चस्व घटेगा, बल्कि महिलाएं सफलतापूर्वक उनका नेतृत्व कर उन्हें पीछे छोड़ देंगी। ऐसे में यह उपयुक्त समय है कि सरकार उनकी प्रतीक्षा समाप्त करे और संसद व विधानमंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण की सौगात देकर देश की राजनीति को नई दिशा देने का पथ प्रशस्त करे।
डॉ. संजीव मिश्र
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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