Supreme court’s decision on Ayodhya dispute historic: सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या विवाद पर फैसला ऐतिहासिक

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पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर ऐतिहासिक फैसला दिया। जाहिर हर फैसले की तरह यह फैसला भी हर किसी पसन्द नहीं आना था नहीं आया। लेकिन ऐसे लोग नगण्य ही है और बहुमत यानी हिन्दू मुसलमान दोनों के बहुमत ने इसे दिल से स्वीकारा इस देश की स्वस्थ परम्परा का उदाहरण है। जहां औवेसी जैसे मुसलमान कह रहे थे कि मस्जिद के बदले पांच एकड़ देना भीख है हमें नहीं चाहिये और कुछ संकीर्ण सोच वाले हिन्दू सोशल मिडिया पर अयोध्या में मस्जिद हेतु पांच एकड़ के फैसले को हजम नहीं कर पा रहे हैं। एक और मुद्दा टी वी पर भी और सोशल प्लेटफोर्म पर भी नजर आया कि रामलला को पक्षकार किस आधार पर बनाया गया। तो उनको यह बताना पड़ेगा कि यह परम्परा सदियों से व्यवहार में है राज-रजवाड़ों से लेकर ब्रिटिश हुकुमत में भी मान्य थी। आदिवासी इलाकों में ग्रामदेवता को भी सम्पति रखने का अधिकार कानूनन रहा है सदा।
हिन्दुओं को मूर्ति-पूजक तथा पिछड़ा कहने की गलत परम्परा कुछ योरोपियन इतिहास लेखकों की देन है । जिसे आज भी अन्य धर्म व खुद को प्रोग्रेसिव हिन्दू का फतवा देने वाले लोग हिकारत से कहते हैं। लेकिन जरा ध्यान से देखें सोचें कि जो लोग यीशु-मरियम की मर्ूित के सम्मुख श्रद्धा से सर झुकाते हैं या किसी भी धार्मिक पुस्तक यथा कुरआन बाइबल आदि को नमन करते हैं वे क्या सिम्बल या धार्मिक चिह्न की पूजा नहीं करते और क्या। यह लिखते हुए मुझे जर्मन फिलोस्फर शाप्न-हावर का यह कथन याद आता है कि इंडियन्स डू नॉट वर्शिप आइडल दे वर्शिप द आइडिया बिहाइंड द आइडल।जब मैंने इसे पढ़ा तो मैं एमबीबीएस के अन्तिम वर्ष का छात्र था और ब्राह्मण परिवार में जन्म होने से बचपन से आरती पूजा करने लगा था मेडिकल कालेज में आकर स्वामी दयानन्द के चूहे वाले कथा / कबीर के पाहन पूजे हरि मिले मैं पूजूं पहाड़ विज्ञान की शिक्षा के प्रभाव व वामपंथी विचारधारा के सम्मोहन ने पूजा छुड़वा दी थी नास्तिक कहलाने में गर्व होने लगा था। शॉपन हावर के एक लेख की इन पक्तियों ने सोचने को मज्बूर कर दिया आखिर इतना बड़ा विद्वान यह कह रहा है तो कुछ बात कोई तथ्य तो होगा ही इस बात के पीछे। कई दिन शिव मन्दिर जाता रहा मूर्ति को निहारता रहा सोचता रहा आखिर जिस कलावन्त ने इसे बनाया उसकी कल्पना में क्या रहा होगा। जो मुझे तब सूझा वह आपके सामने है। मैंने पाया कि भगवान शिव की जटाओं से गंगा निकलती है, वहीं पर बाल विधु – चंद्रमा है।
माथे पर चंदन का त्रिपुंड है तो जटाजूट, गंगाजी, बाल चंद्र, चंदन का त्रिपुंड बनाने वाले ने कहीं यह संदेश तो नहीं दिया कि हमें अपने मस्तिष्क को ठंडा रखना चाहिये आज भी तो किसी मित्र को गुस्से में आया पाकर या परेशान देखकर हम कहते है ठंड रख ठंड या आज की युवा पीढ़ी का जुमला कूल ब्रदर कूल। आंखें आगे बढ़ी तो पाया भगवान के गले में नाग है कंठ में विष- तो क्या वे यह सन्देश दे रहे कि शत्रु को भी मित्र बनायें पर सावधान रहें उसकी नकारत्मकता को (विष) को न अपनाएं नही तो स्वयंम् विषैले हो जायेंगे। उसके अवगुण याद रखने के लिये कंठ में विष धारण किया कि यह बात भूले नहीं।भगवान के वाहन हैं नंदी महाराज व उनका वस्त्र है बाघम्बर, बैल व बाघ दोनों पशुबल के प्रतीक हैं । तो क्या मूर्तिकार हमें कह रहा है कि हम सब में पाशविक वृत्ति होती है तो हमें उस पर काबू रखना चाहिये जैसा बाबा भोले ने उसे अपना वाहन बना कर काबू किया है और अगर पाशविक बल ज्यादा मुंह उठा रहा है बाघ बन रहा है तो उसे मारकर बाघ चर्म की तरह उपयोग में लायें। भई भगवान का नाम पशुपति नाथ भी तो है।
एक और बात मुझे समझ आयी कि बाबा भोले के हाथ में त्रिशूल है। बाबा तुलसी ने लिखा है, दैहिक दैविक भौतिक तापा राम राज काहू नहीं व्यापा यानि दशरथ के राज्य में ये सारे कष्ट थे लेकिन राम के राज्य में नहीं उसके बाद भी हुए ही। तो कलयुग में तो ये तीनों कष्ट आयेंगे ही मगर त्रिशूल के ऊपर बंधा है डमरू और भगवान का नाम भी तो है नटराज तो भईये सारे कष्टों को नकार कर भूल कर नाचते रहें आनन्द मनाते रहें । मैं हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया बरबादियों का सोग मनाना फिजूल था फिजूल था मै बरबादियों का जश्न मनाता चलाता गया, जैसी मानसिकता अपनाएं। यही नहीं शिव लिंग की आकृति का आणविक भट्टी से मिलना व सुनामी के बाद जापानी वैज्ञानिकों द्वारा उसे ठंडा रखने हेतु समुद्र जल का सतत डालना क्या कहीं महाभारत के आणविक युद्ध (ब्रह्मास्त्र आदि का भरपूर जिक्र तो है ही) के विनाश के बाद इन आणविक भट्टियों को ठंडा रखने की क्रिया आखिर युद्ध उपरांत अनेक पीढियों जो विज्ञान का ज्ञान खो बैठी थी उनसे यह कार्य धर्म से सम्बन्धित बना कर ही तो करवाया जाता जो कालान्तर कालान्तर में एक धार्मिक रूप तो नहीं ले बैठी।
यही नहीं हमारी क्या दुनिया भर की सभ्यताएं आरम्भ में कृषि प्रधान ही थी। हमारी विशेषता यह थी कि हमारे मन्दिर शिवालय गांव के बाहर गांव प्रवेश पर बने होते थे। अब आप देखिये हिन्दू जनमानस जहां मन्दिर देखेगा चाहे बस ट्रेन से सफर करते हुए ही देख ले वह अपना सिर झुका कर हाथ जोड़कर ही आगे निकलेगा। इसी मानसिक अवस्था का उपयोग शिवालय में किया गया। खेत जाते या वापस आते समय हर व्यक्ति ऐसा करेगा ही सो अगर वह घर लौट रहा व्यक्ति किसी कारण गुस्से में है तो मन्दिर से आगे गुजरते हुए ही सिर झुकाकर प्रणाम करते ही उसका गुस्सा कुछ ठंडा अवश्य हो जाएगा। जैसे गैस पर उबल रहे दूध का उफान गैस मन्दी करने से कम हो जाता है वैसे ही उसके गुस्से का उफान भी कम होगा ही।
इसी तरह भगवान राम का जो वर्णन बाबा तुलसी ने किया वह क्या है ? मयार्दा पुरुषोत्तम यानी आज्ञाकारी पुत्र, सहृदय भाई , आदर्श पति व प्रजापालक राजा, सभी जीवों वानर भालू तक की रक्षा करने वाला, यहां कुछ लोग सीता त्याग की बात कर सकते हैं लेकिन पहले यह देखें कि जिस सीता हेतु राम ने लगभग निहत्थे सेना विहीन होते हुए रावण की सेना से युद्ध किया अगर प्रजा हेतु त्याग भी किया तो क्या अनर्थ हुआ?