गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानंद महाराज गतांक से आगे -शास्त्राध्ययन में भी यह बात उतनी ही उपयोगी है जितनी श्रवण में शास्त्र अनुभवी महापुरुष द्वारा विरचित हो। वास्तव में उनके अनुभवों का कोष होता है शास्त्र। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शास्त्रों में अनुभवी महापुरुषों ने स्वयं को ही बंद कर दिया है। उनके अनुभवों का पूरा लाभ उठाइए, एकाग्रता में भरकर शास्त्रों का अध्ययन कीजिए। आध्यात्मिक शास्त्र जीवन को उसकी यथार्थता की ओर अग्रसर करने में महान भूमिका निभाते हैं। अध्ययन में आपको ऐसे ऐसे जीवनोपयोगी एवं साधनोपयोगी विचार मिलते रहेंगे जो निरंतर अध्यात्म पथ पर अग्रसर होने के लिए आपका उत्साहवर्धन करेंगे। ये आपको निराशा की ओर जाने से बचाते रहेंगे तथा सही दिशा-निर्देश करके मार्ग में आने वाली संभावित बाधाओं से समय-समय पर सचेत करते रहेंगे। आध्यात्मिक मंजिलों को निर्बाध तय करने हेतु स्वाध्याय विशेष महत्त्व से कभी भी इन्कार नहीं किया जा सकता।
स्वाध्याय मन को लक्ष्य पर केन्द्रित रखने में अत्यन्त सहायक है। ऋषियों, महर्षियों तथा मूर्धन्य सतशास्त्रों की रचना करके हमारे ऊपर महान अनुग्रह किया है। उनका परिश्रम हमको सफल करना है-उनके द्वारा प्रणीत शास्त्रों को आत्मसात करते हुए आत्मोन्मुखी बनकर। मननशील ही मनुष्य है! श्रवण और अध्ययन के पश्चात वास्तविकता के अनुभव में अत्युपयोगी द्वितीय साधन है- मनन अथवा गम्भीर एवं गहन चिन्तन। मनन का अभिप्राय है- विचार करना, सोचना, जिसकी विशेष उपलब्धि सृष्टिकर्ता की ओर से मानव के पास है। वस्तुत: मनुष्य शब्द हो इंगित करता है- जो मननशील है। इसके अभाव में मानव, मानव न रहकर दानव की श्रेणी में आ जाता है जिसका स्पष्ट उदाहरण आधुनिक समाज के भीषण वातावरण में देखने को मिल रहा है। अपनी अनमोल मनन शक्ति को प्रयोग में न लाकर ही, मानव अपनी मानवता से पतित होता जा रहा है, श्रेय साधन से लुढ़कता जा रहा है और अपने हित-अहित पर भी ध्यान न देकर अपने साथ-साथ अन्य का भी अहित करने पर उतारु हो चुका है। मानव वास्तव में बाह्य आकृति अथवा व्यक्तित्व का नाम अपितु मानव की यथार्थ पहचान है उसकी विचारधारा। विपरीत विचारधारा मनुष्य को अधोगति में ले जाती है जबकि सही विचार प्रणाली के माध्यम से वह अपने को उत्कर्ष की ओर ले जा सकता है। वह अपना सर्वांगीण विकास करता हुआ परम एवं चरम लक्ष्य की प्राप्ति में सुचारु रूप से सफल हो सकता है।