(Spiritual) मनुष्य को हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों में ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना माना गया है। प्रभु ने मनुष्य को बौद्धिक एवं विवेक शक्ति से सुसज्जित करके इस संसार रूपी कर्म क्षेत्र में भेजा है। अपने भीतर एवं अपने अंतस की खोज मनुष्य का सर्वोपरि लक्ष्य माना गया है। शास्त्रों में वर्णित योग क्रियाएं, जप, तप, साधना, ध्यान इन सभी का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य को अपने भीतर के अन्वेषण हेतु प्रेरित करना है। केनोपनिषद के ऋषि ने भीतर की खोज को प्रतिबोध कहा है। इस प्रतिबोध का मार्ग प्रशस्त करते हुए कहा गया है कि जब हमारी इंद्रियां संसार के बाहरी भौतिक विषयों से हटकर अंदर की ओर उन्मुख होती हैं तब भीतर के आनंद का मार्ग खुलता है और अमृत्व की प्राप्ति होती है। भीतर की खोज के लिए हमारे ऋषियों ने आध्यात्मिक पुरुषार्थ एवं ज्ञान के आश्रय को श्रेष्ठ माना है। इस शरीर की रचना परमेश्वर ने इस प्रकार की है कि उसकी प्रवृत्ति बाहर के पदार्थों की ओर है।
नौ द्वारों वाले इस पुर अर्थात शरीर में हंस (आत्मा) बाहर की ओर प्रवृत्त होता है इसलिए आत्मा बाहर के प्रबल आकर्षण से युक्त शब्द आदि विषयों से संबंध स्थापित करता है और अपनी अंतरात्मा से सदैव विमुख रहता है। साधना तथा उपासना के माध्यम से जब कोई विवेकी पुरुष अपनी इंद्रियों के बाहरी भटकाव को रोक कर उन्हें अंतर्मुखी कर लेता है तब वह अपने निज स्वरूप को देख पता है। अपने स्वरूप की अनुभूति ही भीतर की खोज है। मनुष्य जीवन पर्यंत अपनी मानसिक तथा आत्मिक शक्तियों को प्रकृति के आकर्षणमय भोग विषयों में लगाए रखता है परंतु यह मार्ग क्षणिक सुख वाला तथा बाद में अशांति, तनाव तथा दुख का मूल कारण बनता है जिससे मनुष्य अपने भीतर के दिव्य आनंद से सदैव वंचित रहता है।
हमारे ऋषियों ने बताया है की आंतरिक सूक्ष्म जगत भौतिक जगत से भी गहरा है। इस देव शरीर के माध्यम से इस विराट ब्राह्मण्ड को अनुभव किया जा सकता है। जब मनुष्य चैतन्य एवं जागृत होकर पुरुषार्थ प्रारंभ करता है तो वह अपने भीतर की ओर उन्मुख होता है। इंद्रियों की बाह्य विषयों के प्रति लिप्सा इस आनंद में बाधक है और जब इंद्रियों की कमान चेतन आत्मा के हाथ में आ जाती है तब मनुष्य भीतर की खोज के असीम आनंद की प्राप्ति का अधिकारी बनता है। अज्ञान तथा प्रमादवश मनुष्य आत्मविस्मृति की अवस्था में चला जाता है। भीतर की यात्रा मानव को अपने वास्तविक स्वरूप से जोड़ती है। चैतन्यता, आत्मिक जागृति की भावना का संचार इसी भीतर की खोज से होता है। मनुष्य के भीतर ही असीम आनन्द का सागर है। संपूर्ण ब्रह्माण्ड की संचालक शाश्वत ईश्वरीय शक्ति की अनुभूति अपने भीतर के आध्यात्मिक अन्वेषण से ही प्राप्त होती है।
आचार्य दीप चन्द भारद्वाज।
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