‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल जबां अब तक तेरी है, बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है, जिस्म-ओ-जबां की मौत से पहले, बोल कि सच जिंदा है अब तक, बोल जो कुछ कहना है कह ले…।’
इस नज्म में क्रांतिकारी शायर फैज अहमद फैज ने लोकतंत्र और आजादी का मतलब समझाया था। बात सिटी ब्यूटीफुल यानी चंडीगढ़ से शुरू करते हैं। शांतिपूर्ण शहर, जहां न कानून-व्यवस्था और न अपराध की चिंता, यहां न तोड़फोड़ होती है और न कोई हिंसक प्रदर्शन। मगर, यहां का पुलिस प्रशासन साल भर आधे शहर में सीआरपीसी की धारा 144 लगाये रखता है। यह तब जबकि यहां विश्व के किसी भी मानक के मुताबिक सबसे अधिक पुलिस बल है। देश में जब भी सरकार कोई बड़ा फैसला लेती है तो तमाम राज्यों में धारा 144 लागू कर दी जाती है, जिससे विरोधी स्वर बुलंद न हो पायें। हालांकि इसको लागू करते वक्त जिला मजिस्ट्रेट लिखता है- ‘उसका पूरा समाधान हो गया है कि संबंधित क्षेत्र में कानून व्यवस्था और समाज में शांति बनाये रखने के लिए जनहित में निषेधाज्ञा लगाना जरूरी है।’ इस धारा का सहारा लेकर प्रशासन, लोगों को एकत्र होने, नारे-प्रदर्शन, किसी भी तरह के अस्त्र-शस्त्र और भाषणों पर रोक लगा देता है। यानी हमारे लोकतांत्रिक अधिकार यह धारा छीन लेता है, जिससे सवाल खड़ा होता है कि क्या हम लोकतांत्रिक गणराज्य के निवासी हैं भी?
अंग्रेजी हुकूमत में हम पर शासन करने के लिए इस धारा का इस्तेमाल किया जाता था। आजादी मिलने के बाद बेहद खराब हालात में ही इसका प्रयोग हुआ, मगर जब इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ आंदोलन आक्रामक हुए तो उनको रोकने के लिए इसका इस्तेमाल हुआ। इसके बाद इसका इस्तेमाल धीरे-धीरे बढ़ता गया। पिछले एक दशक में इसका प्रयोग करके शासन सत्ता की नीतियों के खिलाफ होने वाले आंदोलनों को दबाने का काम किया जा रहा है। अब हालात यह है कि कोई भी बड़ा त्योहार हो या फिर कोई सियासी-अदालती फैसले, सरकार अधिकतर राज्यों में आशंकाओं मात्र पर इसे लागू कर देती है। नतीजतन, लोकतांत्रिक गणराज्य में लोक के अधिकार छिन जाते हैं। पुलिस दमनकारियों की तरह लाठी-डंडों और बंदूकों से लोकतंत्र को हांकती है। नववर्ष 2020 की पूर्व संध्या पर हम मुंबई में थे। शाम से देर रात तक करोड़ों लोग और गाड़ियां सड़कों पर थीं। जश्न में झूमते लोगों को कोई दिक्कत न हो इसके लिए वहां की पुलिस और प्रशासन ने व्यापक इंतजाम किये थे मगर पाबंदी जैसा कुछ नहीं था। भारी ट्रैफिक के बीच हादसों को रोकने के लिए वाहन चालकों की जांच जरूर हो रही थी मगर किसी को परेशान किये बिना। खैर, हर्षोल्लास से नये साल का आगाज हुआ। वहीं चंडीगढ़, लखनऊ और दिल्ली में पुलिस-प्रशासन की कार्यशैली ऐसी थी, जैसे वह नागरिक नहीं, आतंकियों को पकड़ रही हो। उनकी कार्यशैली देख लगा कि हम पुलिस स्टेट के वासी हैं।
हमारा संविधान अपनी प्रस्तावना में ही इस भूभाग को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाता है मगर मौजूं सत्ता का फांसीवाद की ओर बढ़ता कदम ‘लोक’ का विलोप कर ‘तंत्र’ का शासन स्थापित करता है। देश में पहली बार 1861 में बड़ौदा राज्य के अफसर राज रत्न ईएफ देबू ने गायकवाड़ राजाओं के निर्देश पर शांति बहाली के लिए निषेधाज्ञा लागू की थी। बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने हिंदुस्तानियों को दबाने के लिए इसका इस्तेमाल किया। देश में लोकतांत्रिक सत्ता स्थापित होने के बाद प्रशासनिक अफसरों ने अपने प्रभुत्व को कायम रखने के लिए सियासी गठजोड़ कर इसका प्रयोग जारी रखा। अब देश में धारा 144 लागू होना सामान्य घटना हो गई है। अदालतें भी उनके आगे घुटने टेकती नजर आती हैं। इस वक्त देश में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर)के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए करीब आधे देश में निषेधाज्ञा लागू है। शांतिपूर्ण प्रदर्शनों और विरोधी नारों को रोकने के लिए क्रूर तरीके से बल प्रयोग किया गया। कई स्थानों पर आंदोलनकारी आक्रामक भी हुए। इसका फायदा उठाकर सरकारी मशीनरी ने उन्हें हिंसक घोषित कर गोलियों से भून दिया। हजारों युवकों को लाठियों से पीटा गया। हजारों प्रदर्शनकारियों को जेल में डाल दिया गया। तमाम निर्दोष भी इसकी भेंट चढ़ गये।
हम लोकतंत्र में रहते हैं! यह तब यक्ष प्रश्न बन जाता है, जब आईआईटी जैसे संस्थान के कुछ सांप्रदायिक प्रोफेसर, सत्ता से जीवन भर लड़ते रहने वाले फैज अहमद फैज की रचना को सांप्रदायिक बता देते हैं। उन्हें विश्व के तमाम देशों में प्रदर्शनों के दौरान गाई जाने वाली नज्म- ‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन कि जिसका वादा है जो लोह-ए-अजल में लिखा है, जब जुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां रुई की तरह उड़ जाएंगे, हम महकूमों के पांव तले ये धरती धड़-धड़ धड़केगी और अहल-ए-हकम के सर ऊपर जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी, जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएंगे, हम अहल-ए-सफा मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएंगे, सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे, बस नाम रहेगा अल्लाह का, जो गायब भी है हाजिर भी, जो मंजर भी है नाजिर भी, उट्ठेगा अन-अल-हक का नारा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो…।’ फैज वह शख्स थे, जिनको उनकी क्रांतिकारी रचनाओं के कारण पाकिस्तानी सरकार ने वर्षों जेल में डाले रखा। यही वजह है कि उनकी रचनाओं को लोकतंत्र में जनता की आवाज की तरह गाया जाता है। अगर उनकी नज्में सांप्रदायिक होतीं तो पाक सरकार उन्हें जेल में क्यों सड़ाती? पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई प्रोटोकाल तोड़कर उनसे मिलने क्यों जाते? सियासी फांसीवाद का जो दौर चल रहा रहा है, उसमें किसको कब सांप्रदायिक या आतंकी घोषित कर दिया जाएगा, पता नहीं। जब आईआईटी जैसे संस्थानों के प्रोफेसर भी गीतों में सांप्रदायिकता खोजने लगें तो निश्चित है कि ज्ञान घास चरने चला गया है।
तमाम विकसित देशों में भी विरोध प्रदर्शन होते हैं, जो कई बार अराजक भी हो जाते हैं। प्रदर्शनों में हिंसा की कोई जगह नहीं है, मगर उन्हें हिंसक बनाने में सरकार की भूमिका ही संदिग्ध हो, तो यह चिंता का विषय है। हमें याद आता है कि यूपी के मुख्यमंत्री अजय सिंह विष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ की हिंदू वाहिनी ने कुछ साल पहले उनके निर्देश पर वाराणसी में तोड़फोड़ और हिंसा की थी। हमें याद आता है कि 2013 में विरोध प्रदर्शनों के दौरान भाजपा नेताओं ने दुकाने बंद करवाने के लिए तोड़फोड़ की थी। इसका मतलब यह कतई नहीं कि वो आतंकी थे। कुछ गुस्सा, कुछ भ्रम, इसका कारण बना था। आज भी वही हालात हैं मगर अब उन आंदोलनकारियों को आतंकी बताया जाना दुखद है। लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका मित्र की होती है, मुंबई पुलिस के माफिक। वह यूपी और दिल्ली पुलिस की तरह आतंक का पर्याय नहीं बनती। प्रशासन लोक भावनाओं और प्रदर्शनों का गला घोटने का काम नहीं करता बल्कि उन्हें अपनी आवाज उठाने की सुविधायें देता है। सियासतदां और सरकारें अपनी नीतियों की आलोचना-विरोध को दुश्मनी की तरह नहीं देखती। ऐसा करने वालों से बदला नहीं लेती बल्कि उन्हें समझाकर गुस्सा शांत कराने की हर संभव कोशिश करती हैं। जब ऐसा नहीं होता अथवा दमनकारी नीति अपनाई जाती है, तब यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हम लोकतांत्रिक गणराज्य के नागरिक हैं? आलोचनायें आइना होती हैं, इनको आत्मसात कर समीक्षा करना ही स्वस्थ लोकतंत्र का बड़प्पन है।
जयहिंद
ajay.shukla@itvnetwork.com
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)