लॉकडाउन के चौथे चरण में 19 मई से मार्केट खुल गई। 25 से घरेलू हवाई सेवाएं भी शुरू हो जाएंगी और एक जून से आम लोगों के लिए नॉन-एसी ट्रेनें भी। लेकिन यह भी विचित्र है, कि दूकानें तो खुली हुई हैं, मगर ग्राहक लापता है। एसी, कूलर, पंखे या फ्रिज तो छोड़िए, लोग कपड़े, जूते तथा अन्य जरूरत के सामान भी नहीं ले रहे हैं। सिर्फ आटा, दाल, चावल और मसालों की बिक्री ही हो रही है। और वे दूकानें तो लॉक-डाउन के पहले दिन से बदस्तूर खुली हुई हैं। उनमें भीड़ भी है और ग्राहक भी। मोर, रिलायंस फ्रेश, ईजी डे या बिग बाजार अथवा पातंजलि मेगा स्टोर में लगातार भीड़ रही। इसके अलावा लोकल लाला की दूकानों में भी। पर मिठाई की दूकानों या होटल, रेस्तरां अब खुले भी हैं, तो कोई जा नहीं रहा।
इसकी दो वजहें हैं। एक तो खरीददार मध्य वर्ग डरा हुआ है। वह अभी बाहर निकल नहीं रहा। दूसरे इस मध्य वर्ग के पास अब अतिरिक्त पैसा है नहीं, जो है भी उसे वह और आगे के लिए बचा रहा है। उसे भय है, कि आने वाले कई महीनों तक कोरोना जाने से रहा। और अगर गया भी तो उसकी नौकरी अथवा प्रोफेशन पहले की तरह चलेगा, इसकी गारंटी नहीं। उसे अब सरकार पर भरोसा नहीं है, कि सरकार हमें इस संकट से उबार लेगी। इसलिए वह सिर्फ जीने के लिए अपरिहार्य वस्तुओं को छोड़ कर अन्य चीजें नहीं खरीदना चाहता। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। अगर खरीददार न निकला तो अर्थ व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो जाएगी। कोरोना एक प्राकृतिक आपदा है, और ऐसी आपदा, जो हमारी ही मूर्खता से उपजी है। हमने प्रकृति से छेड़छाड़ की, उसने कुपित होकर हमें औकात पर ला दिया।
पूंजीवाद के नव उदारवादी दौर में विकासशील देशों को विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए अपने देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की छूट देनी पड़ती है। इन देशों की सरकारों ने विदेशी निवेश को न्योता और उन लोगों ने आपके देश के सारे संसाधनो को दुह लिया। कच्चा माल आपसे औने-पौने दामों में लिया और फिनिश्ड प्रोडक्ट अपनी शर्तों पर बेचा। जो देश सिर्फ़ प्रकृति की इस देन को ही सिर्फ बेच पाते हैं, उनकी अपनी अर्थ व्यवस्था कभी विकसित नहीं हो पाती। खाड़ी देश इसकी बड़ी निशानी हैं। तेल उनके यहां खूब है, पर वे उसे रिफाइन नहीं कर पाते। नतीजा वहां के शेख सिर्फ रॉयल्टी से ही ऐश कर रहे हैं। लेकिन कब तक करेंगे? कोविड बीमारी चीन के पहले उनके मुल्क में आ गई थी। वर्ष 2002 में सार्स और मार्स उसी का पूर्वाभास था। क्योंकि वहां विदेशी सिर्फ प्राकृतिक सम्पदा को लूटने आते हैं।
ब्राजील और भारत भी इसी के नमूने हैं। ये दोनों देश अपनी ऊष्ण कटिबंधीय स्थिति के लिए जाने जाते हैं। दोनों ही जगह खूब बारिश होती है। वर्षा-वन भी यहां खूब हैं। इसलिए विभिन्न प्रकार के वृक्षों और लताओं की कमी नहीं। किसी भी उद्योग के लिए वृक्ष कच्चे माल का काम करते हैं। जाहिर है, इन वनों की बुरी तरह कटाई हुई। वृक्ष काट डाले गए तो इन क्षेत्रों का मौसम भी प्रभावित हुआ। नतीजा गर्मी में बारिश होती है, और बारिश का सीजन सूखा जाता है। ऐसी हालत में कोई भी वायरस कहीं से भी प्रकट हो जाता है। यह जरूरी नहीं कि ये वायरस या वीषाणु जीवित हों, एक कोशकीय हों। ये मृत और जड़ भी हो सकते हैं। लेकिन मनुष्य या पशु अथवा पक्षी, कीट-पतंगों में प्रकट होकर ये हरकत करने लगते हैं। और फिर शुरू होता है, इनका क्षिप्र प्रसार। इनके प्रकट होने में भले एक निश्चित तापमान और क्लाईमेट चाहिए होगा, किंतु जब ये फैलते हैं, तब न मौसम देखते हैं न तापमान न देश न आयु वर्ग न आय वर्ग। सबको अपने लपेटे में लिए जाते हैं। इनमें से कितने मरेंगे या कितने जिएंगे, इसका कोई पुख्ता आंकड़ा नहीं मिलता। सब कुछ अनुमान है।
चूंकि कारपोरेट वर्ल्ड के लिए मनुष्य नहीं बस पूंजी का ही महत्त्व है, इसलिए मरने-जीने के आंकड़े और दवा का प्रचार-प्रसार भी ये नफा-नुकसान देख कर करते हैं। इनको जब वर्क-फोर्स चाहिए, तब दवाओं का प्रचार-प्रसार होता है। जब रोबोट चाहिए, तब इनके लिए मनुष्य की जान की कोई कीमत नहीं। यही कारण है, कि इतने सक्षम वैज्ञानिक चिंतन और अनुसंधान के होते हुए भी कोविड-19 का कोई तोड़ अब तक नहीं ढूंढा गया। मजे की बात, कि यह बीमारी भले अमीर से गरीब तक आई हो, लेकिन मारे गए गरीब ही। इसीलिए मुझे लगता है, कि कोविड-19 एक कारपोरेट गेम है। पूरा विश्व भयभीत है, किंतु किसी भी सत्तासीन के चेहरे पर मातम नहीं पसरा है। क्योंकि वे इसे समझते हैं। इसलिए मजदूरों के पलायन या निकट भविष्य में होने वाले मध्य वर्ग के पलायन से इन्हें कोई चिंता नहीं है।
यूं मजदूरों का गांवों की तरफ पलायन इनके लिए एक सुखद खबर है। इन मजदूरों की उन्हें अब शहरों में जरूरत भी नहीं है। और जितने मजदूर उन्हें चाहिए, उतने उन्हें मिलते रहेंगे। उन्हें यह भी लगता है, कि महानगरों में पड़ी यह विशाल भीड़ (प्रवासी मजदूर) शहर की सूरत खराब कर रही है, इसलिए जाने दो इस भीड़ को। इसके बाद नम्बर आएगा, विशाल मध्य वर्ग का। जो अपने बच्चों को शहर में नामी और महंगे स्कूलों में पड़ा रहा है। जितनी तनख्वाह बढ़ती है, उससे अधिक उसके खर्च बढ़ जाते हैं। नतीजा उसकी जिंदगी ईएमआई पर चल रही है। जब नौकरियां गयीं या वेतन कट हुआ, तब इस ईएमआई को वह कैसे भरेगा। जाहिर या तो वह सब कुछ लुटा कर भागेगा या हताशा का शिकार होगा। वही बच पाएगा, जिसने अपनी जिÞंदगी में सादगी के उसूल बना रखे हों। कारपोरेट की यह निर्मम दुनियां जब सफाया करती है, तो अपने-पराए का भेद नहीं करती। दिक़्कत तो यह है, कि हमारे देश के सभी राजनीतिक दल इस कारपोरेट मतिभ्रम के शिकार हैं।
पहले प्रकृति को नष्ट करना, फिर उसके कुपित होने पर बढ़ती आबादी को जिम्मेदार बताना, एक ऐसा कारपोरेटी गेम है, जिसे समझे बिना समस्या का हल नहीं निकल सकता। इसका एक हल तो यह था, कि नव-उदारवाद के मायाजाल में हम न फंसते। हम सादगी का जीवन अपनाए रहते और अपनी परंपरा पर दृढ़ रहते, कि उतने ही पांव पसारो, जितनी बड़ी चादर है। किंतु व्यवस्था ने पहले तो मध्य वर्ग को उपभोक्ता बनाया और उसके बाद उसकी चादर खींच ली। नतीजा वह मध्य वर्ग जो इस कारपोरेटी दुनियां के नियंताओं के इशारे पर गरीब मजदूरों को ही प्रकृति को नष्ट करने का कारक मान रही थी, वह अब ऐसे चक्रव्यूह में फंस गई है, जिससे बाहर आने का रास्ता उसे भी नहीं मालूम। लेकिन कुछ भी हो, ये बड़े शहर बने रहेंगे और ये पलायन करता मजदूर गांवों में जाकर उसकी सप्लाई चेन का सबसे नीचे का पुर्ज़ा (पल्लेदार) बन जाएगा। किंतु मध्य वर्ग का क्या होगा? जिसके लिए न अब शहर बचे हैं और न गांव, जहां से सब कुछ बेच-बाच कर वह आ गया। इसीलिए पुराने लोग कहते थे, कि गांव-घर की जमीन न बेचो न छोड़ो, क्योंकि संकट में गांव सहारा देता है। किंतु शहर तो सिर्फ उनका होता है, जो हृदयहीन होते हैं।
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शंभूनाथ शुक्ल
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)