Six benefits gained from a deal in India and US: भारत और यूएस में हुए एक सौदे से मिले छह फायदे

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हमारी आजादी के बाद 53 साल तक अमेरिका के केवल तीन राष्ट्रपति भारत के दौरे पर आए, 1959 में ड्वाइट आइजनआवर, 1969 में रिचर्ड निक्सन, और 1978 में जिमी कार्टर। डोनाल्ड ट्रंप जब इस सोमवार को भारत पधारेंगे तो वे पिछले 20 साल में यहां आने वाले पांचवें अमेरिकी राष्ट्रपति बन जाएंगे। करीब 50 साल तक एक-दूसरे से रणनीतिक तौर पर असहज रहे ये दो मुल्क गंवाए गए समय की भरपाई करते दिख रहे हैं। शीतयुद्ध के दौर और सोवियत खेमे के पटाक्षेप के साथ राव-मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों और भारतीय अर्थव्यवस्था के उत्कर्ष का 25 वर्षों का दौर शुरू हो गया था। लेकिन अगर यह पूछा जाए कि इस बदलाव को सबसे ज्यादा रेखांकित करने वाली बात या उपलब्धि क्या है, तो जरा सोचिए कि वह क्या हो सकती है?
मैं भारत-अमेरिका परमाणु संधि का नाम लूंगा। मुझे पता है कि इस पर एक-दूसरे से बिलकुल प्रतिकूल दो प्रतिक्रियाएं मिलेंगी। एक तो यह होगी कि इसमें भला कौन-सी बड़ी बात है, यह तो हर कोई जानता है। दूसरी प्रतिक्रिया यह होगी— हा हाङ्घ बड़ी बात? अरे, उस संधि के बाद अब तक तो एक मेगावाट भी बिजली पैदा करने वाला कोई परमाणु संयंत्र नहीं लगाया गया, और अगले 15 साल तक भी यहां कोई अमेरिकी रिऐक्टर बिजली पैदा नहीं करने वाला। लेकिन अगर आप यह सोचते हैं कि भारत-अमेरिका परमाणु संधि आपसी संबंधों या बिजली हासिल करने के लिए था, तो आप असली मुद्दे की अनदेखी कर रहे हैं। इस संधि को हकीकत में तब्दील करने के लिए मनमोहन सिंह को जिस कठिनाई का सामना करना पड़ा था वह साफ कर देता है कि यह कितना जटिल मसला था और इसके क्या-क्या व्यापक नतीजे निकल सकते थे। हम यहां उनमें से छह की चर्चा करेंगे। इस संधि का सबसे पहला और सबसे बड़ा प्रभाव विचारधारा के स्तर पर पड़ा। भारत ने पहली बार अमेरिका के साथ द्विपक्षीय स्तर पर एक ऐसा समझौता किया था जिसके बड़े रणनीतिक निहितार्थ थे। शीतयुद्ध के बाद के दौर में भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने रुख में 360 डिग्री का नहीं, तो 180 डिग्री का परिवर्तन तो किया ही, इस संधि ने इस अहम सवाल पर हमारे जनमत की एक परीक्षा भी ली कि क्या वह दशकों तक अमेरिका को शक करते रहने के बाद उसके साथ भरोसे से दोस्ती कर सकता है? इस लिहाज से यह कांग्रेस और उसके वामपंथी बौद्धिकों द्वारा बड़ी सफाई से तैयार किए गए विचारधारात्मक राष्ट्रवाद के विपरीत था। यही वजह है कि केवल वाम खेमे ने ही नहीं बल्कि कांग्रेस के पूरे सत्तातंत्र ने भी इस संधि का तुरंत विरोध किया। इसके अलावा हमेशा दोहराया जाने वाला यह कुतर्क भी दिया गया कि इससे मुस्लिम समुदाय नाराज हो जाएगा। लेकिन मनमोहन सिंह ने इसे अपने प्रधानमंत्रित्व की कसौटी बना लिया और अपनी सारी राजनीतिक जमा पूंजी दांव पर लगा दी। उन्होंने सोनिया गांधी तक को इस पर सहमति देने के लिए मजबूर किया, जबकि उनके ‘ओल्ड गार्ड’ इससे मुंह फेर चुके थे। लेकिन इसके बाद, 2009 में जो चुनाव हुआ उसमें भारतीय मतदाताओं ने साबित कर दिया कि राष्ट्रहित के बारे में फैसला करने के मामले में वे ज्यादा स्मार्ट एवं समझदार हैं और पुराने वामपंथियों से ही नहीं बल्कि दक्षिणपंथियों से भी कहीं ज्यादा ईमानदार हैं। भारत दशकों तक जब सोवियत संघ के प्रति सम्मोहित रहा तब जनसंघ या भाजपा को आम तौर पर पश्चिम का पिट्ठू माना जाता था, लेकिन उसने भी इस संधि का सैद्धान्तिक आधार पर विरोध कर रहे वामपंथियों के मुकाबले कहीं ज्यादा विरोध किया, वह भी राष्ट्रवादी आधार पर। दोनों को चुनाव में शिकस्त मिली। यूपीए और बड़े बहुमत से दोबारा सत्ता में लौटा, और अमेरिकावाद के विरोध को इतने गहरे दफना दिया गया कि उसे अब फिर से जिलाना मुश्किल लगता है। शीतयुद्ध के दौर के बाद के भारत का उदय हो चुका था। दूसरा लाभ रणनीतिक सिद्धान्त के मोर्चे पर हुआ। वैसे, योजना आयोग के पूर्व अध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हमारे ‘आॅफ द कफ’ कार्यक्रम में अपनी किताब ‘बैकस्टेज’ पर चर्चा के दौरान मुझसे कहा था कि इस लाभ को वे सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। उन्होंने कहा था कि मनमोहन सिंह इस बात को लेकर काफी चिंतित थे कि भारत को एक परमाणु शक्ति तो माना जाता था मगर परमाणु से जुड़े बाकी मामलों में उसे अछूत माना जाता था, भेदभावमूलक परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के चलते पुराने पूर्वाग्रहों के कारण परमाणु वाणिज्य या टेक्नोलॉजी के आदान-प्रदान में उसके साथ भेदभाव किया जाता था। परमाणु संधि ने भारत को इन बंधनों को तोड़ने का मौका दिया। संयोग से वह एक ऐसा दौर था जब अमेरिकी राष्ट्रपति को चीनी राष्ट्रपति से ज्यादा महत्व हासिल था और वे उन पर भारत के प्रति उदार होने का दबाव डाल सकते थे। भारत को अब एनपीटी वाले दूसरे देशों की तरह ही एक परमाणु शक्ति माना जाता है, बल्कि उसे पाकिस्तान के उलट एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति माना जाता है, जो परमाणु हथियारों का प्रसार नहीं करता। तीसरा लाभ काफी घरेलू महत्व का है। अब तक भारत पर यह साबित करने की बाध्यता नहीं थी कि वह सुरक्षा और पारदर्शिता के अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन कर रहा है या नहीं। इसकी वजह यह थी कि असैनिक और परमाण्विक कार्यक्रमों में कोई अंतर नहीं रखा गया था, और ऐसा एक से दूसरे को ढकने के लिए जानबूझकर किया गया था। पारदर्शिता और निगरानी शून्य थी। इससे संसद को भी परे रखा गया था। इसके साथ ही, चूंकि सैनिक और असैनिक कार्यक्रमों में घालमेल था, भारतीय प्रयोगशालाओं में काम करने वाले वैज्ञानिकों को ऐसे मुक्त वातावरण में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिए संघर्ष करना पड़ता था जिसकी समीक्षा अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक करते थे, क्योंकि हर चीज गोपनीय और संदिग्ध थी। उस परमाणु संधि का एक बड़ा लाभ यह मिला कि भारत का परमाणु कार्यक्रम, उसकी फंडिंग और उसका प्रदर्शन, सब कुछ ज्यादा पारदर्शी दायरे में आ गया। इसने अधिक जिम्मेदारी भरे, जवाबदेह और सुरक्षित कामकाज को बढ़ावा दिया। इसके बाद बारी आती है सामरिक विज्ञान के क्षेत्रों में हुए लाभ की। इसे ‘असैनिक’ संधि कहा गया मगर दरअसल यह एक गहरा सामरिक एवं रणनीतिक समझौता था। इसने भारत को अहम सैन्य तकनीक और साज-सामान देने के मामले में अमेरिकी सत्तातंत्र के पुराने संदेहों और डरों को तुरंत खत्म कर दिया। 1980 के दशक में स्थिति यह थी कि मौसम की जानकारी देने वाला सुपर कंप्यूटर तक भारत को बेचने में अमेरिका को पूरा भरोसा नहीं हो रहा था। यह तब था जब कि राजीव गांधी और रोनाल्ड रीगन के निजी संबंध बेहद अच्छे थे। आज सबसे संवेदनशील सैन्य तकनीक, आंकड़े और खुफिया सूत्रों का आसानी से आदान-प्रदान हो रहा है। यह उस एक बड़ी डील के बिना शायद ही मुमकिन होता, जिसने भारत और अमेरिका के संबंधों में बुनियादी बदलाव ला दिया। पांचवां लाभ क्षेत्रीय भू-राजनीति के मामले में हुआ। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद 15 साल तक अमेरिका भारत के मामले में अपनी नीति को पाकिस्तान से अलग करने की ओर अनमने ढंग से बढ़ता रहा। लेकिन उस संधि के बाद नाटकीय परिवर्तन आ गया। अमेरिका ने भारत के साथ पहली बार एक ऐसी रणनीतिक संधि की थी, जैसी उसने पाकिस्तान से करने की पेशकश नहीं की, और आज तक नहीं की है। अगर आपको यह विश्वास नहीं है कि उसने भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलने की अपनी नीति छोड़ दी है, तो जरा किसी पाकिस्तानी रणनीतिकार से बात करके देख लीजिए। उस संधि के बाद से अमेरिका ने उस नीति को शायद ही अपनाया है। यह तो हम भारतीयों की आदत है, खासकर मोदी सरकार के राज में, कि हम उसी जाल में उलझते रहते हैं बावजूद इसके कि हम अपनी घरेलू राजनीति में पाकिस्तान को बेवजह अहमियत देते रहते हैं। छठा और अंतिम लाभ वह है जिसे मैं बहुत डरते हुए अपना पसंदीदा लाभ कहने की हिम्मत कर रहा हूं। इसका हमारी घरेलू राजनीति में अकूत महत्व है। परमाणु संधि ने, और हमारे वामपंथियों ने जिस तरह जी-जान लगाकर उसका विरोध किया और मात खा गए, उसने हमारी राजनीतिक अर्थनीति के एक अभिशाप, वामपंथ को मिटा दिया। 2008 में उसने अपनी 60 से ज्यादा लोकसभा सीटों के साथ केंद्र सरकार को बंधक बना रखा था। आज उसे लोकसभा में अपनी सीटों की संख्या दहाई अंक में पहुंचाने में भी मुश्किल हो रही है। मनमोहन सिंह सरकार को गिराने के लिए उसने संसद में भाजपा से भी हाथ मिलाया मगर हार गया। इसने वामपंथियों को दो तरह से बेनकाब किया। एक तो उनका सैद्धान्तिक दुराग्रह (अमेरिका का अंधा विरोध) सामने आया, दूसरे उनका ढोंग (जब उन्होंने हिंदुत्ववादियों से हाथ मिलाया) उजागर हुआ। जल्दी ही वे पश्चिम बंगाल से उखड़ गए, शायद हमेशा के लिए। यह लाभ कई पीढ़ियों तक बचा कर रखने लायक है। भले ही इसे हासिल करने में विदेशी हाथ (अमेरिका) का थोड़ा योगदान रहा हो।
(लेखक द प्रिंट के एडीटर इन चीफ हैं, यह उनके निजी विचार हैं।)