बड़े-बुजुर्गों के मुंह से सुनते आए हैं- जीवन में शांति जरूरी है और शांति से रहना अपने हाथ में है। शांति तभी मिल सकती है, जब जीवन सरल हो। कन्फ्यूशियस का कथन है- जीवन बेहद सरल है लेकिन हम उसे जटिल बनाने पर आमादा रहते हैं। भारतीय संस्कृति में तो वैसे भी हमेशा से सादा जीवन उच्च विचारों को अहमियत दी गई है। यूं भी कोई अस्त-व्यस्त, भ्रमित, दुविधाग्रस्त और दबाव में नहीं रहना चाहता। भीड़ चाहे लोगों की हो या वस्तुओं की, इच्छाओं की हो या अपेक्षाओं की, व्यक्ति की एकाग्रता को भंग करती है और उसे जीवन के अधिक महत्वपूर्ण कार्यों के प्रति उदासीन बनाती है। भीड़ में खुद को गुम होने से बचाने का प्रयास ही सहज-सरल जीवन की कुंजी है।
त्याग नहीं है सादगी
सादगी त्याग करना नहीं है, न ही गरीबी का प्रदर्शन है। यह तो सीधा सा रास्ता है, जो कई मुश्किलों और तनाव से बचा सकता है। खुशी अगर पैसे या संग्रह से प्राप्त होती तो दुनिया के अमीर देशों में स्ट्रेस, डिप्रेशन या हार्ट प्रॉब्लम्स न होतीं। छोटे से उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। स्त्रियों का वॉर्डरोब कपड़ों से भरा रहता है, फिर भी वे रोज सोचती हैं कि आज क्या पहनें। इसकी वजह है- जयादा विकल्प होना, जिससे उनकी चयन करने की क्षमता प्रभावित होती है यानी वे निर्णय लेने में खुद को असमर्थ पाती हैं। विकल्प न होना जितना बुरा है, उससे कहीं अधिक घातक है अधिक विकल्प होना। सीमित विकल्प हों तो सोचने में वक्त नहीं लगता और चयन में आसानी होती है। इससे समय व ऊर्जा की बचत होती है और दिमाग पर अनावश्यक दबाव नहीं पड़ता जबकि जयादा विकल्प होने से व्यक्ति का दिमाग स्थिर नहीं हो पाता, वह चंचल बना रहता है।
सुविधा न बने असुविधा
सादगी का सबसे बड़ा लाभ यह है कि व्यक्ति के कार्यों में गुणवत्ता आती है। जैसे ही उसके भीतर यह चेतना आती है कि जीवन में क्या और क्यों महत्वपूर्ण है, वह इच्छाओं का सही प्रबंधन करने लगता है। इससे दुविधाएं कम होती हैं और दृष्टिकोण में स्पष्टता आती है। समय-समय पर अपनी जरूरतों और इच्छाओं का आकलन करना जरूरी है। कई बार ऐसा भी होता है कि जिस चीज से आज सुविधा महसूस होती है, वही भविष्य में असुविधा का कारण बन जाती है। हो सकता है, बड़ा घर लेना आज किसी की ख्वाहिश हो मगर उम्र बढऩे के साथ यही घर असुविधाजनक हो सकता है क्योंकि वह इसका रखरखाव अच्छी तरह करने में असमर्थ होता है।
सोच बदलें-संसाधन नहीं
जैसे ही व्यक्ति सादगी में जीने की आदत डालता है, संग्रह की प्रवृत्ति कम होने लगती है। इससे तनाव व दबाव की वे परतें खुलने लगती हैं, जो बोझ बढ़ा रही थीं। किन चीजों से खुशी मिल सकती है, इसके बजाय व्यक्ति यह सोचने लगता है कि किन वस्तुओं के बिना $खुश रहा जा सकता है। इच्छाओं की मृगमरीचिका में फंसने और जीवन भर संसाधन जुटाते रहने के बजाय अपनी सोच बदलने का प्रयास किया जाना चाहिए।
सीखने की प्रक्रिया
भौतिकवादी सोच दिमाग को इतना जकड़ लेती है कि इंसान कितना भी हासिल कर ले, उसे हमेशा कम ही लगता है। सच यह है कि सब कुछ कभी किसी को हासिल नहीं होता। सफलतम लोगों के सामने भी उनसे जयादा सफल लोगों की मिसाल होती है। शायद इसीलिए लोगों को अब सादगी का महत्व समझ आने लगा है। यही वजह है कि खानपान, संबंधों और जीवनशैली में डिक्लटर या डिटॉक्स जैसे शब्दों का प्रयोग बढऩे लगा है। डिटॉक्स डाइट और क्लटर-फ्री होम के अलावा डिजिटल डिक्लटर की जरूरत महसूस की जा रही है। ‘लेस इज मोर या ‘मिनिमलिस्टिक जैसे टर्म चलन में आ रहे हैं।