पू र्वजों, पितरों का स्मरण करने, उन्हें नमन करने, उनकी पूजा, श्राद्ध-तर्पण करके उन्हें तृप्त करने का काल आश्विन मास में आता है। इसे ‘पितृपक्ष’ भी कहते हैं। भाद्रपक्ष शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष की अमावस्या तक के सोलह दिन पितरों को समर्पित होते हैं। पितरों का श्राद्ध-तर्पण करने का यह पर्व भारत देश में बड़े ही श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। जिन पूर्वजों की कृपा से हम इस धरती पर देह धारण कर सके, जिनकी कृपा व आशीर्वाद से हम समृद्ध, संपन्न बन सके, फल-फूल सके, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने, पितृऋण अदा करने का अनुपम अवसर होता है-यह पितृपक्ष। शास्त्रों में ऐसा कहते हैं कि इस काल में हमारे पितर धरती पर आते हैं और बड़ी ही आशा के साथ हमें निहारते हैं कि हम उनका श्राद्ध-तर्पण करें, उन्हें पिंडदान करें, उनके निमित यथासंभव दान करें, भोजन कराएं, परोपकार के कार्य करें। भारतीय संस्कृति में आश्विन मास का कृष्णपक्ष जिसे ‘श्राद्ध पर्व’ भी कहते हैं, पूर्णतया पितरों को समर्पित होता है।
इस पर्व का उद्देश्य भावी पीढ़ी को परिवार-श्रृंखला से भावनात्मक आधर पर जोड़ना है। इसके साथ ही पितरों के आदर्शों और उनके नैतिक बल से प्रेरणा ग्रहण कर जीवन संघर्ष में उपलब्धियां प्राप्त करना है। इस श्राद्ध पर्व में लोग अपने कुल, परिवार के स्वर्गीय परिजनों, जैसे -स्वर्गीय पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामह आदि पितरों का भावभक्ति सहित तर्पण करके उन्हें तृप्त करते हैं, उनके निमित्त पिंडदान करते हैं। वर्ष के किसी भी मास या पक्ष की जिस तिथि में परिजनों की मृत्यु हुई हो, आश्विन कृष्णपक्ष की उसी तिथि को उस पितर के श्राद्ध करने का विधान है। यदि किसी परिजन का देहांत पूर्णिमा के दिन हुआ है तो उसका श्राद्ध भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन किया जाता है और इसी दिन से महालय का प्रारंभ माना जाता है। इसके साथ पितृपक्ष में भी कुल विशेष तिथियां हैं, जिनमें किसी विशेष वर्ग को श्राद्ध-तर्पण में प्रमुखता दी जाती है, जैसे कुल की मृत नारियों का श्राद्ध-पितृपक्ष की नवमी तिथि को किया जाता है, इस तिथि को ‘मातृ नवमी’ भी कहा जाता है। संन्यासी व्यक्ति का श्राद्ध द्वादशी तिथि को किया जाता है। अकालमृत्यु, विषपान तथा आत्महत्या के कारण दिवंगत हुए व्यक्ति का श्राद्ध पितृपक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। इसके अलावा यदि किसी मृत परिजन, जिनकी मृत्यु-तिथि पर संपन्न न हो सका हो, तो उनका श्राद्ध आश्विन कृष्ण, अमावस्या के दिन किए जाने का विधान है। यह तिथि ‘सर्व पितृ अमावस्या’ के रूप मे भी जानी जाती है, इस दिन सभी ज्ञात-अज्ञात पितरों का तर्पण किया जा सकता है।
तर्पण की परंपरा
भारतीय परंपरा के अनुसार, प्रत्येक माह की अमावस्या को पितरों का स्मरणकर उनके लिए श्राद्ध करना चाहिए। हो सके तो श्राद्ध प्रतिदिन हो और इसके लिए सरलतम उपाय यह है कि अपने पितरों का स्मरण करके गाय, कुत्ता, पक्षियों, चीटियों, मनुष्यों आदि को भोजन कराना चाहिए। इससे परिवार में पितरों की कृपा बनी रहती है, उनका आशीर्वाद हमें सतत मिलता रहता है। श्राद्ध दीप ग्रंथ के अनुसार, श्राद्ध नाम पितृनुद्दिश्य द्रव्यत्याग:।
अर्थात पितरों के निमित्त जो अन्न, जल आदि द्रव्य उन्हें अर्पित किया जाता है, उसे श्राद्ध कहते हैं। मनु के अनुसार, श्राद्ध पांच प्रकार का होता है- नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण। आश्विन मास का पितृपक्षीय श्राद्ध ‘पार्वण श्राद्ध’ कहलाता है। श्राद्ध में मृतात्माओं, पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग किया जाता है। उसे थोड़ा सुगंधित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, पुष्प जैसी सामग्रियां उसमें मिलाई जाती हैं। कुशाओं के सहारे जल की छोटी-सी अंजलि द्वारा मंत्रोच्चारपूर्वक जल डालने मात्रा से पितर तृप्त हो जाते हैं। तर्पण की प्रक्रिया में छह तरह से तर्पण किया जाता है- देव-तर्पण, ऋषि-तर्पण, दिव्य मानव -तर्पण, दिव्य पितृ-तर्पण, यम-तर्पण, मनुष्य पितृ-तर्पण। श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम् अर्थात श्रद्धा से पितरों को जो कुछ अर्पण किया जाता है, उसे श्राद्ध कहते हैं। स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने-पहनने की वस्तुओं आदि से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर को स्थूल उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है, मृत्यु के बाद जीवात्मा का स्थूलशरीर समाप्त होकर केवल सूक्ष्मशरीर रह जाता है। सूक्ष्मशरीर को भूख-प्यास, सरदी-गरमी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, इस शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से भरा अंत:करण या वातावरण ही उन्हें शांति प्रदान करता है। इसलिए श्राद्ध-तर्पण के समय मन की श्रद्धा-भावना का बहुत महत्त्व है। हालांकि स्थूलपदार्थ उन्हें अर्पित किए जाते हैं, लेकिन पितरगण उन्हें सूक्ष्मरूप से ग्रहण कर लेते हैं। श्राद्ध में तर्पण और पिंडदान की प्रक्रिया ही पर्याप्त नहीं होती, ये क्रिया-कृत्य तो मात्रा प्रतीक हैं।
श्रद्धा की वास्तविक कसौटी तो उस श्राद्ध में है, जिसमें पूर्वजों की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मों के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाए। पूर्वजों के छोड़े हुए धन में अपनी ओर से कुछ श्रद्धांजलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए-यही सच्चा श्राद्ध है।
(अखिल विश्व गायत्री परिवार से साभार)
डॉ. प्रणव पांड्या
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