‘कभी-कभी यूं भी हमने अपने दिल को बहलाया है, जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है’ निदा फाजली की ये पंक्ति वर्तमान हालातों पर चस्पा हो जाती है। 13 मई की रात जब प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ के ‘आत्मनिर्भर’ पैकेज का ऐलान किया तो पूरे देश के गली-मोहल्लों में ‘मोहल्लानोमिस्ट्स’ के बीच ये चर्चा तेज हो गई कि किसके हिस्से में कितना पैसा आएगा। सोशल मीडिया पर तो कुछ लोग भारत की आबादी से 20 लाख करोड़ को गुणां कर सबका हिस्सा बता गणितज्ञ बन गए। हालांकि 20 लाख करोड़ की चमक-धमक के पीछे भी दो पेहलू हैं।
एक ऐसे अप्रत्याशित वक्त में जहां वश्विक अर्थव्यवस्था अनिश्चितता के दौर से घिरी हुई है। ये अनिश्चितता के बादल इस तरह छाए हुए हैं कि आईएमएफ भी आने वाली स्थिति का पूरा अनुमान नहीं लगा पा रहा है। हालांकि आईएमएफ ने इस बात संकेत जरूर दिए है कि 2020 में वैश्विक जीडीपी 3 प्रतिशत तक कम हो जाएगी। यह संभवत: 1930 के दशक में आए ‘द ग्रेट डिप्रेशन’ से भी भयावय स्थिति हो सकती है। ऐसी वैश्विक मंदी के दौर में आए भारत के ‘आत्मनिर्भर’ पैकेज को एक मौके के रूप में देखा जा रहा था। हालांकि जब यह पैकेज पूरी तरह से सामने निकल के आया तो वास्तविकता थोड़ी अलग दिखाई दी।
ऐसे हालातों में जब लोगों की जेब खाली हैं, पेट खली है और बाजार से रौनक गायब है, ऐसे वक्त में बाजार में मांग बढ़ाना जरूरी था। मांग बढ़ाने के लिए लोगों को सीधी सहायता की जरूरत थी। पर इस पैकेज से ऐसी कोई भी सीधी सहायता नही मिली। पैकेज में ज्यादातर उपाए तरलता से संबंधित हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा इस साल के पूर्व प्रस्तावित बजट से लिया गया है और एक दूसरा बड़ा हिस्सा बैंकों पर आश्रित है, तीसरा हिस्सा क्रेडिट गारंटी के रूप में है और चौथा हिस्सा सुधारों पर आश्रित है। एमएसएमई सेक्टर को तत्काल और सीधी राहत की जरूरत थी लेकिन उसे वह राहत नहीं मिली। बैंकों पर वर्तमान में तकरीबन 93.8 लाख करोड़ रूपए के लोन का भार है जिसमें से तकरीबन 15.9 लाख करोड़ रुपए एमएसएमई पर बकाया है। अब सोचने वाली बात यह है जो पहले से कर्ज में दबा है वो और कर्ज क्यों लेगा। जिन्हें जमानत के बिना कर्ज मिल जाएगा, वो हो सकता है आगे जाके डिफाल्टर हो जाएं।
पैकेज का ज्यादातर हिस्सा कर्ज पर आश्रित है। साफ है, पहले से खराब हालात से झूझ रही बैंकों पर अतिरिक्त भार पड़ने वाला है और आने वाले समय में बैंकों का एनपीए और बढ़ने की उम्मीद है। पैकेज के दौरान जो सुधार लाए गए हैं, ये सुधार या तो पहले से ही चर्चा में थे या ये पहले हो चुके सुधारों का पुर्नपाठ हैं। कुछ उपाय पिछले साल और इस साल के बजट में भी प्रस्तावित थे। हालांकि इनमें से कुछ सुधार राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं जिन्हें केंद्र द्वारा सुझाया जा सकता है पर बाध्य नहीं किया जा सकता। कुछ सुधार ऐसे भी हैं जो संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं जिन्हें राज्यों की सहमति से लागू किया जा सकता है। हालांकि ऐसी स्थिति में केंद्र और राज्यों के बीच विवाद होने पर केंद्र का निर्णय सर्वोपरी है। एक बात और है जिस पर चर्चा होनी चाहिए, वो है कि ये सुधार दीर्घकालीन फायदा दे सकते हैं, पर इनसे तत्काल रहत नहीं मिल सकती।
विमानन क्षेत्र इस महामारी के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों में से एक है। नागरिक विमानों के लिए भारतीय हवाई क्षेत्र को पूरी तरह खोलने का प्रस्ताव भी इस पैकेज से काफी पहले दिया गया था। हालांकि ये उपाय विमानन क्षेत्र को दीर्घकालीन लाभ दे सकता है पर सवाल उन विमानन कंपनियों के अस्तित्व को बचाने का है, जिसके लिए उन्हें तत्काल सहायता की जरूरत थी, जो उन्हें नहीं मिली। कुछ उपाय जरूरी उपयोगी और प्रासंगिक हैं, लेकिन यह दीर्घकालीन हितों में महत्वपूर्ण है, फिलहाल यह पैकेज एक महामारी से निपटने के उद्देश्य से लाया गया था जो एक तरीके से विफल रहा। दलाल स्ट्रीट भी इस पैकेज से खुश नहीं हुई। शेयर बाजार पैकेज के परतें खुलते साथ ही लुढ़कना शुरू हो गया। अब जरा इस पैकेज को आंकड़ों में समझ लेते हैं। यह कुल पैकेज 20,97,053 करोड़ रूपए का है जिसमें से 11,02,650 करोड़ रूपए नए पैकेज से हैं, 1,92,800 करोड़ रूपए इससे पहले के सरकार द्वारा किए गए उपाए से हैं और 8,01,603 करोड़ रूपए आरबीआई द्वारा लाए गए उपायों से हैं। इसे और विस्तार से समझने पर पता चलता है कि अब तक के सरकार द्वारा किए गए सारे उपाए का मिलाकर राजकोषीय राहत जीडीपी का मात्र 1.08 प्रतिशत या करीब 2,17,095 करोड़ तक सीमित है। इन 2,17,095 करोड़ में से 1,08,495 करोड़ रुपए इस पैकेज से पहले सरकार द्वारा किए गए उपायों से हैं।
पांच दिनों में आए सरकार के ‘आत्मनिर्भर पैकेज’ में सरकार की अतिरिक्त राजकोषीय लागत मात्र 1,08,600 करोड़ रुपए की है जोकि जीडीपी के मात्र 0.545 प्रतिशत के बराबर है। बाकी का हिस्सा या तो इस साल के बजट से है, कुछ हिस्सा बैंकों पर आश्रित है और कुछ क्रेडिट या डेब्ट मार्किट पर आश्रित है। केंद्र सरकार द्वारा पिछले दो महीनों में गरीबों को दी गई धनराशि 33,176 करोड़ पर सीमित है।
सोचने के लिए एक प्रश्न यह है कि सामान्य स्थिति में जब जीडीपी 6-7 प्रतिशत की दर से बढ़ता है तब भी सरकार और आरबीआई के उपायों को मिलाकर हर साल जीडीपी का तकरीबन 30 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया जाता है और यह एक अप्रत्याशित समय है। क्या इस समय में ऐसे उपाय कारगर साबित होंगे? यह बात तो साफ है कि सरकार की ओर से कोई सीधी या तात्कालिक मदद अभी तक नहीं मिली है। सरल भाषा में कहें तो इस पैकेज का उद्देश्य अल्प राहत प्रदान करना और मरीज को आईसीयू से बाहर निकालना है। मांग बढ़ाने के लिए कोई राजकोषीय साहयता नहीं है।
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अक्षत मित्तल
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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