हम रात में बजरंगी भाईजान फिल्म देख रहे थे। फिल्म में एक किरदार पवन चतुर्वेदी (सलमान खान) का है, जो अपनी सच्चाई और मूल्यों से किसी भी कीमत पर समझौते को तैयार नहीं है। वह मानवता के लिए हर सीमा तोड़ता है, यातनाएं सहता है और महान बन जाता है। यह फिल्म हमें राह दिखाती है कि कोई देश या व्यक्ति उसकी बड़ी सीमाओं के कारण महान नहीं बनता। नागरिकों में मानवीय मूल्यों और सच्चाई पर चलने की चाहत उस देश को महान बनाती है। हमारी वैदिक संस्कृति भी हमें इन मूल्यों के करीब ले जाती है। कालांतर में हम तमाम झंझावतों से जूझते अपनी संस्कृति से ही दूर हो गए, नतीजतन कई तरह के संकट हमारे सामने हैं। आज हालात ये हैं कि हर कोई अपनी सीमाएं बढ़ाने में लगा है, चाहे वह धन की हो या पद और संपत्ति की। बुराई इसमें नहीं है कि कोई कितना बढ़ता है। समस्या तब होती है, जब हम मानवीय मूल्यों और सच्चाई को रौंदकर आगे बढ़ने को अपनी उन्नति मानते हैं। कई बार हम सच से इसलिए दूर हो जाते हैं क्योंकि हमें किसी के नाराज होने का डर होता है। यही कारण है कि स्वार्थ की पूर्ति के लिए हम मूल्यों और सच को भी कुचलने से नहीं हिचकिचाते।
इस वक्त देश में एक भय का वातावरण बना हुआ है। अथर्ववेद का श्लोक समीचीन है, यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यत:। एवा मे प्राण मा विभे:।। इसका अर्थ है जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो। एक और श्लोक का जिक्र करना जरूरी है। सहसा विदधीत न क्रियामविवेक: परमापदां पदूम्। वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धा: स्वयमेव संपद:।। अचानक कोई कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि विवेकशून्यता बड़ी विपत्तियों का घर होती है। जो व्यक्ति सोच-समझकर कार्य करता है, गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती हैं। इन दोनों वैदिक श्लोकों से यह स्पष्ट है कि जो लोग धन-संपदा या किसी लालच में यह सोचते हैं कि वे मानवीय मूल्यों और सच्चाई का गला घोटकर बहुत कुछ पा लेंगे तो उनकी दुर्गति तय है। यह बात विश्व के इतिहास का अध्ययन करने से भी प्रमाणित होती है। बीते कुछ वक्त में सत्ता साधन के लिए अचानक तमाम फैसले किए गए। इन फैसलों ने सैकड़ों निर्दोष लोगों को मौत के मुंह में धकेल दिया। जिससे मानवीय मूल्य निम्नतम स्तर पर पहुंच गए।
एक और घटना का जिक्र करना चाहूंगा। आगरा से लखनऊ जाती ट्रेन में एक युवती कानपुर जा रही थी। डिब्बे में कुछ ट्रांसजेंडर आ गए। वो तालियां बजाते यात्रियों की ओर बढ़े तो डरे से यात्री उनके हाथ में कुछ न कुछ थमाते चले गए। फिरोजाबाद से ट्रेन में चार युवक चढ़ गए। उन युवकों ने युवती से कहा मैडम दिन में रिजर्वेशन नहीं होता, खिसकिये और धकिया कर बैठ गए। युवकों ने युवती के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी। युवती ने विरोध किया मगर सामने की सीटों पर बैठे पुरुषों ने उन युवकों की हरकत पर लड़की का साथ देने की हिम्मत नहीं दिखाई। लड़की का शोर सुनकर ट्रांसजेंडर आ गए। उन्होंने चारों युवकों को कायदे का सबक सिखाया। यहां सवाल यह उठता है कि आखिर सब कुछ देखकर भी सहयात्री अकेली युवती का समर्थन करने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा सके। वजह साफ है कि वो डरे हुए और स्वार्थी लोग थे, जबकि ट्रांसजेंडर बगैर किसी अपेक्षा के केवल अपना कर्म करने निकले थे, जिससे उनमें डर नहीं था। यही अंतर होता है सच्चाई के साथ मानवता के लिए काम करने वालों और स्वार्थी लोगों में। स्वार्थी लोग घृणा के सिवाय न कुछ दे पाते हैं और न ही उन्हें कुछ हासिल होता है।
हाल के दिनों में आमजन की आवाज होने का दम भरने वाली पत्रकारिता और मीडिया संस्थान डरे हुए नजर आ रहे हैं। सरकार का चारण करने वालों की मीडिया में बहुतायत है। जो संस्थान और पत्रकार मुद्दों पर लिखने और बोलने की कोशिश करते हैं, वे भी बचाव मुद्रा में हैं। कई बार खुद निष्पक्ष पत्रकार होने का दावा करने वाले सत्ता प्रतिष्ठान के वकील बनकर खड़े हो जाते हैं। सरकार भी सच बोलने वालों को डराने के हथकंडे दिखाती रहती है। मिर्जापुर में सच दिखाने पर एक पत्रकार साथी पर मुकदमा दर्ज कर दिया गया।
जब केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को महत्वहीन बनाने का अचानक फैसला किया, तो मीडिया ने तार्किक और मानवीय समीक्षा करने की जहमत नहीं उठाई। कश्मीरियों को पिछले एक माह से नजरबंदी के हालात का सामना करना पड़ रहा है मगर मीडिया इस सच्चाई को छिपाने में सरकार के साथ खड़ी हो गई।
फैसला गलत है या सही, इस पर बहस बाद में होगी, पहले तो वहां के नागरिकों के मौलिक जीवन के हालात पर चर्चा होनी चाहिए थी। उनको कष्ट दिए बिना संवैधानिक व्यवस्था के तहत चाहे जो फैसला किया जाता, सुखद होता मगर ऐसा नहीं हो सका। आम कश्मीरियों की तकलीफों और वहां के पत्रकारों के साथ होती घटनाओं पर भारतीय मीडिया संस्थान और पत्रकार संगठन उन्हीं यात्रियों के जैसे नजर आए, जो ट्रेन में एक युवती के साथ होती अश्लील हरकतों पर मौन साधे थे।
जुलाई माह में हम चीन की यात्रा पर थे। भारत के कथित लोकतांत्रिक लोग दावे करते थे कि चीन में लोकतंत्र नहीं है मगर जब हम वहां पहुंचे तो समझ में आया कि लोकतंत्र सिर्फ लिखने से नहीं बल्कि सरकार के आचरण से बनता है। हमें चीन में मानवीय मूल्य और सच्चाई दोनों देखने को मिलीं। हॉन्ग कॉन्ग के लोग जून माह से सरकार के एक विधेयक का विरोध कर रहे थे। हालांकि इस विधेयक से वहां के नागरिकों पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता था मगर उन्होंने लोकतांत्रिक भावनाओं को जीवित किया। यह शांतिपूर्ण विरोध मानवीय मूल्यों पर आधारित था। नतीजतन ढाई माह में ही सरकार को झुकना पड़ा और विधेयक वापस लेने का फैसला आ गया।
यह अच्छी बात है क्योंकि यही लोकतंत्र है, जिसमें हर नागरिक की भावना को महसूस किया जाता है। आज हालात ये हैं कि लोग एक विचारधारा के आगे बेवश नजर आते हैं। वो मानसिक रूप से इतने पीड़ित हैं कि सच्चाई और दूसरों का दर्द उन्हें नहीं दिखता। उनके लिए अपने एजेंडे, मानवीय मूल्यों से बड़े हैं। यही उस वैदिक संस्कृति की हत्या हो जाती है, जो सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय पर आधारित है। हम तो कभी गोमांस के शक में किसी मानव की हत्या कर देते हैं, तो कभी किसी झंडे के अहम पर सांप्रदायिक दंगे करवा देते हैं। हमारी यह सोच हमें विश्व गुरु से विश्व के सबसे अज्ञानी के रूप में खड़ा कर देती है। हम अगर अपने मूल धर्मग्रंथों से ही सीखें तो सच में एक महान राष्ट्र का निर्माण कर सकेंगे। जय हिंद
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)