इस समय पूरी दुनिया में जलवायु संरक्षण को लेकर चल रही मुहिम में भी अधिकाधिक भागीदारी पर जोर दिया जा रहा है। दुनिया बार-बार चिल्ला रही है कि हम खतरे के मुहाने पर हैं। भारत के मौसम चक्र में बदलाव स्पष्ट दिखने भी लगा है। अखबारों में आए दिन अत्यधिक तापमान की खबरें आम हो गयी हैं। नागपुर से कानपुर तक तापमान कब पचास डिग्री सेल्सियस पहुंच जाए, कहा नहीं जा सकता। बिगड़ा जलवायु चक्र हमारी व सरकारों की ढिलाई का नतीजा है। इसका प्रभाव खेती पर भी प्रतिकूल पड़ने लगा है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का मानना है कि तापमान में औसतन तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि गेहूं के उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत तक की कमी कर देगी। भारत 2050 तक दुनिया में सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश हो जाएगा। उसके विपरीत प्राकृतिक संसाधनों की कमी निश्चित रूप से समस्या बनेगी। पर्यावरण व जलवायु संरक्षण पर पर्याप्त ध्यान न दिये जाने के कारण देश में पानी की कमी भी होती जा रही है। वर्ष 2001 में भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1820 घन मीटर थी, जो 2011 में घटकर 1545 घन मीटर प्रति व्यक्ति रह गयी। भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 2025 में 1341 घन मीटर रह जाएगी। यह स्थिति भीषण जल संकट का कारण बनेगी। जल प्रदूषण की भयावहता के कारण उपलब्ध जल भी पूरी तरह उपयोग की स्थिति में नहीं है। वायु प्रदूषण के मामले में तो हम दुनिया का नेतृत्व कर ही रहे हैं, देश का वन क्षेत्र भी लगातार कम हो रहा है।
पिछले कुछ वर्षों से देश में पर्यावरण को लेकर जागरूकता तो दिख रही है, किन्तु प्रभावी क्रियान्वयन का संकट भी साफ दिख रहा है। केंद्र की भाजपा सरकार ने एक साल पहले दूसरी पारी शुरू करते समय प्रदूषण को अपनी प्राथमिकताओं में शीर्ष स्थान दिया था। जलजनित प्रदूषण पर प्रभावी नियंत्रण सुनिश्चित करने की उम्मीदें अलग जलशक्ति मंत्रालय की स्थापना से बढ़ी थीं, वहीं पहले पांच साल की मोदी सरकार में नौ करोड़ शौचालयों के निर्माण की घोषणा के साथ ही हर गांव में सतत ठोस कचरा प्रबंधन लागू करने का वादा हुआ था। ऐसा हुआ तो तात्कालिक प्रदूषण पर अंकुश लगेगा। सरकार ने राष्ट्रीय स्वच्छ वायु मिशन की स्थापना का वादा भी किया था, जिसके अंतर्गत देश के 102 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर मौजूदा खतरनाक स्तर से 35 प्रतिशत नीचे लाने का संकल्प व्यक्त किया गया था। वादा था कि हर गांव, उपनगर व बिना नालियों वाले इलाकों में तरल अपशिष्ट के पूर्ण निस्तारण को मल प्रबंधन व गंदे पानी के पुन: इस्तेमाल के माध्यम से सुनिश्चित किया जाएगा। दावा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद के पहले पांच वर्षों में देश में नौ हजार किलोमीटर वनाच्छादन बढ़ाया गया है। इसे और गति देने का वादा भी किया गया था।
सरकारों के वादे व दावे तो होते रहते हैं किन्तु उन पर अमल का मजबूत ढांचा सुनिश्चित करना जरूरी है। पिछले कुछ वर्षों में सरकारों द्वारा अभियान चलाकर पौधरोपण की पहल भी हुई है। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें तो यहां 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पांच करोड़ से अधिक पौधे एक दिन में ही लगाकर गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रेकार्ड्स में नाम दर्ज कराया था। 2017 में योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में बनी भाजपा सरकार भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहती थी और 2018 में नौ करोड़ पौधे लगाकर कीर्तिमान अपने नाम किया गया। अब दो साल के भीतर लगे 14 करोड़ से अधिक पौधों में से कितने बचे हैं, इसकी चिंता किसी ने नहीं की। इसके अलावा हर साल कागजों पर करोड़ों पौधे लगते हैं। सरकार को इन पौधों की रक्षा भी सुनिश्चित करनी होगी।
अब कोरोना काल में लॉकडाउन के बाद दिल्ली जैसे शहरों में भी प्रदूषण कम होने के आंकड़े सामने आ रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान जहरीला वायु प्रदूषण तो घटा ही है गंगा-यमुना जैसी नदियां साफ दिखे लगी हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े साफ बताते हैं कि लॉकडाउन अवधि में देश के शीर्ष सौ प्रदूषित शहरों में वायु प्रदूषण की गुणवत्ता पचास फीसद तक सुधर चुकी थी। सिस्टम आॅफ एयरक्वालिटी एंड वेदर फोरकॉस्टिंग एंड रिसर्च के अनुसार, लॉकडाउन के शुरूआती दौर में ही दिल्ली का वायु प्रदूषण तीस फीसद तक घट गया था। देश के अन्य शहरों की स्थितियां भी सुधर गयी थीं और गंगा-यमुना का जल साफ दिखने लगा था। दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि लॉकडाउन में मिली छूट ने स्थितियों को फिर से खराब करना शुरू कर दिया है। इस पर्यावरण दिवस पर कोरोना से सबक लेते हुए पर्यावरण सहेजने की पहल करनी होगी। जल, वायु व धरती का संरक्षण ही सृष्टि की समग्र रक्षा कर सकता है। हम अभी नहीं चेते, तो संकट तय है।
डॉ. संजीव मिश्र
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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