क हते हैं दुनिया में अच्छाई और बुराई का संतुलन है। ये दोनों सदा ही सम परिमाण हैं। एक बुरा मिटता है, तो अच्छा भी कम होता है। अगर इस संतुलन में कभी बदल होने वाला नहीं है, तो साधना का प्रयोजन क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए ओशो कहते हैं प्रश्न महत्वपूर्ण है। साधकों को गहराई से सोचने जैसा है। साधना के संबंध में हमारे मन में यह भ्रांति होती है कि साधना भलाई को बढ़ाने लिए है। साधना का कोई संबंध भलाई को बढ़ाने से नहीं है, न साधना का कोई संबंध बुराई को कम करने से है। साधना का संबंध तो दोनों का अतिक्रमण, दोनों के पार हो जाने से है. साधना न तो अंधेरे को मिटाना चाहती है, न प्रकाश को बढ़ाना चाहती है। साधना तो आपको दोनों का साक्षी बनाना चाहती है। इस जगत में तीन दशाएं हैं। एक बुरे मन की दिशा है, एक अच्छे मन की दशा है और एक दोनों के पार अमन की, नो-माइंड की दशा है। साधना का प्रयोजन है कि अच्छे-बुरे दोनों से आप मुक्त हो जाएं। और जब तक दोनों से मुक्त न होंगे, तब तक मुक्ति की कोई गुंजाइश नहीं। अगर आप अच्छे को पकड़ लेंगे, तो अच्छे से बंध जाएंगे। बुरे को छोड़ेंगे, बुरे से लड़ेंगे, तो बुरे के जो विपरीत है, उससे बंध जाएंगे। चुनाव है। कुएं से बचेंगे, तो खाई में गिर जाएंगे। लेकिन अगर दोनों कौन चुनें, तो वही परम साधक की खोज है कि कैसे वह घड़ी आ जाए, जब मैं कुछ भी न चुनूं, अकेला मैं ही बधू मेरे ऊपर कुछ भी आरोपितन हो। न मैं बुरे बादलों को अपने ऊपर ओढ़ूं, न भले बादलों को ओढूं। मेरी सब ओढ़नी समाप्त हो जाए। मैं वही बचूं जो मैं निपट अपने स्वभाव में हूं। यह जो स्वभाव की सहज दशा है, इसे न तो आप अच्छा कह सकते और न बुरा। यह दोनों के पार है, यह दोनों से भिन्न है, यह दोनों के अतीत है। लेकिन साधारणत: साधना से हम सोचते हैं, अच्छा होने की कोशिश। उसके कारण हैं, उस भ्रांति के पीछे लंबा इतिहास है। समाज की आकांक्षा आपको अच्छा बनाने की है, क्योंकि समाज बुरे से पीड़ित होता है, समाज बुरे से परेशान है। इसलिए अच्छा बनाने की कोशिश चलती है। समाज आपको साधना में ले जाना नहीं चाहता।
नीति और धर्म की बातें
समाज आपको बुरे बंधन सेहटाकर अच्छे बंधन में डालना चाहता है। समाज चाहता भी नहीं कि आप परम स्वतंत्र होजाएं, क्योंकि परम स्वतंत्र व्यक्ति तो समाज का शत्रु जैसा मालूम पड़ेगा। समाज चाहता है, रहें तो आप परतंत्र ही पर समाज जैसा चाहता है, उस ढंग के परतंत्र हों। समाज आपको अच्छा बनाना चाहता है, ताकि समाज को कोई उच्छृंखलता, कोई अनुशासनहीनता, आपके द्वारा कोई उपद्रव, बगावत, विद्रोह न झेलना पड़े। समाज आपको धार्मिक नहीं बनाना चाहता, ज्यादा से ज्यादा नैतिक बनाना चाहता है। और नीति और धर्म बड़ी अलग बातें हैं। नास्तिक भी नैतिक हो सकता है, और अक्सर जिन्हें हम आस्तिक कहते हैं, उनसे ज्यादा नैतिक होता है. ईश्वर के होने की कोई जरूरत नहीं है आपके अच्छे होने के लिए न मोक्ष की कोई जरूरत है। आपके अच्छे होने के लिए तो केवल एक विवेक की जरूरत है। तो नास्तिक भी अच्छा हो सकता है, नैतिक हो सकता है। जब धन एकत्र करने वाले को कुछ नहीं मिलता, जब धन इकत्र कर-करके कुछ नहीं मिलता, तो धन छोड़कर क्या मिल जाएगा! अगर धन इकत्र करने से कुछ मिलता होता, तो शायद धन छोड़ने से भी कुछ मिल जाता। जब काम-भोग में डूब-डूबकर कुछ नहीं मिलता, तो उनको छोड़ने से क्या मिल जाएगा!
-ओशो
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