यूपी के शाहजहांपुर निवासी अखिलेश गुप्ता ने व्यवसायिक कर्ज न चुका पाने के कारण परिवार सहित आत्महत्या कर ली। लखनऊ की एक फ्लोर मिल में काम करने वाले महेश अग्रवाल ने नौकरी चले जाने के अवसाद में खुदकुशी कर ली। हमारा देश ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 94वें स्थान पर पहुंच गया। इससे अधिक शर्मनाक यह है, कि पड़ोसी श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान हमसे बहुत अच्छी स्थिति में हैं। सात साल पहले भारत 55वें स्थान पर था। सरकार ने रोटी के लिए मोहताज 80 करोड़ लोगों को नवंबर तक मुफ्त राशन मुहैया कराने का फैसला किया है। एक साल के भीतर दो हजार से अधिक उद्योग बंद हो गये। तीन हजार से अधिक उद्योगपितयों ने खुद को दिवालिया घोषित कराने के लिए आवेदन किया है। करीब एक हजार को दिवालिया का तमगा भी दे दिया गया, मगर वो पूरी शाहखर्ची से जिंदगी जी रहे हैं। देश में बेरोजगारी की दर 12.2 फीसदी पहुंच गई है। करीब 40 करोड़ लोग बीते दो साल में बेरोजगार हो गये हैं। होनहार युवा मनरेगा में काम करके रोटी जुटा रहे हैं। भारत का संविधान हमें कल्याणकारी गणराज्य बनाता है। जो अपने नागरिकों के समान हित के लिए प्रतिबद्ध है। बावजूद इसके, देश के आम नागरिकों को बराबरी तो दूर, अभिजात्य वर्ग के आसपास फटकने का भी अधिकार नहीं है। खरबपतियों का करीब 8 लाख करोड़ रुपये का कर्ज माफ हो जाता है, मगर गरीब और मध्यम वर्ग को छोटे-छोटे कर्जों की वसूली के लिए इतना तंग किया जाता है कि हजारों लोग आत्महत्या कर रहे हैं।
देश की आजादी के चंद महीने पहले ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंसटन चर्चिल ने अपनी संसद में कहा था कि “ भारत में सत्ता दुष्टों, बदमाशो और लुटेरो के हाथो में चली जाएगी। वहां के सभी नेता ओछी क्षमता वाले और भूसा किस्म के व्यक्ति होंगे। उनकी जुबान मीठी मगर दिल निकम्मे होंगे। वे सत्ता के लिए एक दूसरे से लड़ेंगे। इन राजनितिक झगड़ों में भारत का खात्मा हो जाएगा। एक दिन आएगा, जब वहां हवा और पानी पर भी टैक्स लगा दिया जाएगा”। मौजूदा वक्त मे हम उनकी बातों को सही होते देख रहे हैं। भारत में थोक महंगाई दर 12.9 फीसदी पार कर रही है। पेट्रोलियम पदार्थ हों या कोविड-19 से जूझते मरीजों का इलाज, सभी टैक्स की भारी मार झेलने को विवश हैं। हवा और पानी पर भी जीएसटी लग चुका है। विश्व में जनता से सबसे अधिक टैक्स हमारे देश में वसूला जा रहा है। बदले में कोई सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा नहीं मिल रही। वहीं, केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों पर हर मिनट होने वाला खर्च, भारत के नागरिकों की प्रति व्यक्ति सालाना आय के बराबर है। सिर्फ प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगी एसपीजी का हर मिनट का खर्च प्रति व्यक्ति मासिक आय के बराबर है। अन्य खर्च भी तकरीबन उतना ही और है। संविधान में लोकसेवक के रूप में परिभाषित अफसरशाही मंत्रियों से कम खर्च नहीं करती। “मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस” का वादा उलट गया है। अफसरशाही बढ़ गई। आमजन उसके भार में दबा जा रहा है।
चंद साल पहले देश में भ्रष्टाचार का शोर था, तब भारत वैश्विक भ्रष्टाचार इंडेक्स में 80वें स्थान पर था, मगर अब वही बढ़कर 86वें पायदान पर पहुंच गया है। साफ है कि कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार इतना बढ़ा कि हम विश्व में शर्म से सिर झुकाने को मजबूर हैं। सरकार भले दावा करे, कि वह भ्रष्टाचार मुक्त और साफ सुथरी छवि की है, मगर दुनिया उसका भ्रष्टाचार देख रही है। इसका जिम्मेदार कौन है? हमारे एक मित्र अफसर बताते हैं कि जहां पहले 100 रुपये का नोट चलता था, वहां अब 500 से 2 हजार का नोट चलता है। भारतीय संस्कृति में रामराज को श्रेष्ठ माना जाता है, मगर उन्हीं का मंदिर बनाने के लिए होने वाली खरीद में भ्रष्टाचार सबके सामने है। सरकार उसे रोकने के बजाय, पर्दा डालने में जोर लगाए हुए है। पिछली सरकारों पर मौजूदा सत्ता दल ने भ्रष्टाचार के जितने आरोप लगाए थे, उन सभी में उसे क्लीन चिट दे दी गई है। अब वही लोग अपनी सरकार पर लगने वाले आरोपों की जांच कराने को भी तैयार नहीं हैं। कोई तथ्य और सच सामने लाता है, तो उसको लांक्षित कर मुंह बंद करने की रणनीति अपनाई जाती है। सच कहते और लिखते वक्त मुकदमों और जेल का खौफ सामने होता है।
देश के नागरिकों पर टैक्स और सेस का भार इस कदर बढ़ा है कि कहावत बन गई है “हम अपने लिए नहीं बल्कि सरकार के लिए कमाते हैं”। आमजन को भ्रमित करने के लिए सत्ता समर्थक कहते हैं कि करदाता आबादी का सिर्फ एक फीसदी हैं। सच यह है कि एक फीसदी आयकरदाता हैं, न कि करदाता। नवजात शिशु हो, या फिर मृतशैय्या पर पड़ा बुजुर्ग और गरीबी रेखा से नीचे का व्यक्ति, सभी टैक्स और सेस का भुगतान करते हैं। यही टैक्स देश की अर्थव्यवस्था का आधार भी है। आयकर सहित सभी टैक्स अदा करने वालों से सरकार औसतन 58 फीसदी कर वसूलती है, जबकि आयकर न अदा करने वाले भी औसतन 32 फीसदी टैक्स देते हैं। सरकार का खजाना भरने वालों को, वह न कोई सामाजिक सुरक्षा देती है और न सहायता। हालात ये हैं कि सरकार अब अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से भी पल्ला झाड़ने लगी है। उसने सार्वजनिक क्षेत्र की दर्जनों कंपनियों, बैंकों और विभागों को निजी हाथों में सौंपना शुरू कर दिया है। 70 फीसदी सरकारी उद्यम अब निजी कंपनियां चला रही हैं। कारपोरेट घराने संपत्ति के लालच में सरकारी कंपनियों को औने पौने दाम पर कब्जा रहे हैं। चिकित्सा और शिक्षा इस वक्त सबसे अहम विषय हैं। सरकार ने इस क्षेत्र में भी 70 फीसदी प्रभुत्व निजी कंपनियों को सौंप दिया है। करीब एक हजार कंपनियां दो साल में दिवालिया घोषित हो गईं। सत्ता में रसूख रखने वालों ने उन्हें खरीदने के लिए सरकारी बैंकों से कर्ज ले लिया, जबकि इन कंपनियों पर लाखों करोड़ रुपये पुराना कर्ज बकाया था।
महामारी के बुरे वक्त में उम्मीद थी कि सरकार इन संकटों से निपटेगी। जनता को टैक्स के बोझ से बचाएगी मगर वह तो ट्वीटर और सजग मीडिया से लड़ने में व्यस्त है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के दो साल बाद भी शांति बहाली नहीं हो पा रही है। व्यवस्था भी पटरी पर नहीं है। जनजीवन और खबरें दोनों संगीनों के साये में हैं। लोकतंत्र बंधक है। आतंक और कालेधन से लड़ने के नाम पर हुई नोटबंदी ने देश की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी। कालेधन का हाल यह है कि कोरोना महामारी के दौरान पिछले साल भारतियों ने 20,700 रुपये स्विस बैंक में जमा किये हैं। यह खुलासा खुद स्विस सेंट्रल बैंक ने किया है। स्वच्छता अभियान और किसान कल्याण सेस में बदल गया। कोरोना से लड़ाई में भी जनता पर बोझ बढ़ा दिया गया। कोरोना से लड़ाई सेस के टीके से लड़ी जा रही है। सांप्रदायिक हमले हो रहे हैं और अपराध-अराजकता तेजी से बढ़े हैं। सरकार खामोश तमाशाई बनी हुई है। वह पीड़ित से नहीं, आरोपी से धर्म-लिंग-क्षेत्र के आधार पर सहनुभूति रखती है। विरोध प्रदर्शन करने वाली कालेज-विश्वविद्यालय की बेटियों को आतंकियों की तरह जेल में यातनायें दी जाती हैं। संवैधानिक संस्थाओं पर सरकार का इतना आतंक है कि वो जांच और इंसाफ करने को भी जल्दी तैयार नहीं होतीं। देश की सीमाओं में पड़ोसी घुसपैठ किसी से छिपी नहीं है। जो घट रहा है, वह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कलंक है। देश को अपने प्रधानमंत्री से बहुत उम्मीदें हैं। वह खुद एक स्वस्थ लोकतंत्र के कारण इस पद तक पहुंचे हैं, इसलिए उन्हें इसे बचाने के लिए तत्काल उचित कदम उठाना चाहिए। अगर अब भी ऐसा नहीं हुआ तो देश और संस्थाओं के साथ ही मानवता भी मर जाएगी।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं।)