डॉ. महेंद्र ठाकुर
आज़ादी के अमृत महोत्सव के तहत देश में अनेक कार्यक्रम चल रहे हैं। आज (8 अगस्त 2022) को अचानक ध्यान आया कि 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रास्ताव पारित हुआ था। और अगले ही दिन 9 अगस्त 1942 को ‘करो या मरो’ के नारे के साथ यह आंदोलन शुरु हुआ था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परत दर परत
कई बार टीवी पर होनी वाली बहसों में एक प्रश्न उठता है 1942 में गाँधी के ‘भारत छोडो आंदोलन’ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने क्या भूमिका निभाई थी? प्रश्न ये भी पूछा जाता है कि संघ का देश की स्वतंत्रता में क्या योगदान है? सुप्रसिद्ध लेखक श्री रतन शारदा जी की बेस्टसेलर पुस्तक का अनुवाद करने का सुअवसर मुझे था, जिसका शीर्षक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परत दर परत‘ है।
इस पुस्तक में संघ के आलोचकों और विरोधियों के उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर हैं। सुप्रसिद्ध लेखक श्री संदीप देव की पुस्तक ‘हमारे श्रीगुरुजी’ और श्री रतन जी तथा दूसरे लेखकों के लेखन से मुझे जो कुछ समझ आया उसके आधार पर आईये जानते हैं सन 1942 के भारत छोडो आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका क्या थी?
सरसंघचालक पद से त्यागपत्र देकर आंदोलन में भाग
संघ को एक संगठन के रूप में किसी आंदोलन में भाग लेना है अथवा नहीं, या केवल स्वयंसेवकों को व्यक्तिगत रूप में भाग लेना है, इसका दिशा निर्देश स्वयं डॉ. हेडगेवार सन 1930 के जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर दे चुके थे। तब उन्होंने अपने सरसंघचालक पद से त्यागपत्र देकर उस आंदोलन में भाग लिया था और जेल भी गए थे। सन 1942 में संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी के समक्ष भी यही यक्ष प्रश्न था – क्या संघ को संगठन के रूप में भारत छोडो आंदोलन में भाग लेना चाहिए अथवा स्वयंसेवकों को व्यक्तिगत रूप से?
आंदोलन की दशा और दिशा का आंकलन
आंदोलन की दशा और दिशा का आंकलन करने के लिए श्री गुरूजी ने प्रांत स्तर के कार्यकर्ताओं की एक बैठक बुलाई। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए श्री गुरूजी ने प्रख्यात कृषि विशेषज्ञ, क्रांतिकारी डॉ. पांडुरंगराव खानखोजे और उनकी सहायता हेतु संघ के रणनीतिकार बालासाहब देवरस को भूमिगत नेता जयप्रकाश नारायण से भेंट करने के लिए भेजा था। श्री गुरूजी इस आंदोलन में संघ के कूदने से पूर्व खानखोजे के पास भेजे अपने सात प्रश्नों के संतुष्टिजनक उत्तर जयप्रकाश नारायण से चाहते थे। खानखोजे ने जयप्रकाश नारायण के समक्ष जो सात प्रश्न प्रस्तुत किये थे, वे है :
- ‘करो या मरो‘ वाले आह्वान में ‘मरो ‘का अर्थ तो स्पष्ट है, किन्तु ‘करो ‘ यानी क्या करो? इसके आदेश क्या कांग्रेस कार्यकारणी ने दिए हैं?
- आंदोलन का तात्कालिक और दीर्धकालिक उद्देश्य क्या है? यानी अचूकता से क्या साध्य करना है?
- आंदोलन की कार्यशैली क्या और कैसे रहने वाली है?
- आंदोलन कितने समय तक चलाना है?
- अपनी शक्ति का कुछ तो अनुमान लगाया ही होगा वह शक्ति कितनी है?
- आंदोलन की सफलता के पश्चात क्या करना है?
- वह असफल रहा तो आगे क्या करना है?
जयप्रकाश नारायण से भेंट के उपरान्त डॉ. खानखोजे और बाला साहब देवरस वापस आ गए, डॉ. खानखोजे के अनुसार, “इन महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक का भी संतोषजनक उत्तर श्री जयप्रकाश नारायण के पास नहीं था।”
उपरोक्त 7 प्रश्न श्री गुरूजी की दूरदर्शिता का प्रदर्शन करते हैं। जब जयप्रकाश नारायण जैसे दिग्गज नेता भी इन प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ थे तो इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ‘भारत छोडो आंदोलन‘ को लेकर कांग्रेस की तैयारी कैसी रही होगी? संघ के नेतृत्व से बात करना तो दूर बल्कि कांग्रेस ने शायद जय प्रकाश नारायण जैसे लोगों से भी कोई चर्चा न की होगी।
संघ संगठन के रूप में आंदोलन में भाग नहीं लेगा
इतना ही नहीं, यह तक निश्चित या तय नहीं था कि आंदोलन शुरू करने वाले शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी के उपरांत अनुगामी श्रेणी के नेताओं को क्या करना है या नहीं करना है। इसके स्पष्ट दिशानिर्देश तक नहीं थे।” इस जानकारी को ध्यान में रखते हुए श्री गुरूजी ने अपने सहयोगियों के साथ विचार-विमर्श किया। वह एक संगठन के रूप में संघ के सामर्थ्य और सीमाओं से अवगत थे। उन्होंने इस आंदोलन की वास्तविक स्थिति का भी पता लगाया था।
इस सब के बावजूद, इस आंदोलन के लक्ष्यों संबंधी उनकी कोई दो राय नहीं थी। ऐसी परिस्थितियों में श्री गुरुजी ने निर्णय लिया कि, “संघ संगठन के रूप में इस आंदोलन में भाग नहीं लेगा। क्योंकि यह आंदोलन देश की स्वतंत्रता के लिए किया जा रहा है, इसलिए नागरिक के रूप में स्वयंसेवक इस आंदोलन में देश के किसी भी स्थान में भाग ले सकते हैं। परन्तु, राष्ट्र के लिए, समाज को संगठित करते हुए और प्रत्यक्ष रूप से बिना आंदोलन में भाग लेते हुए, संघ, संगठन के रूप में अपना कार्य करता रहेगा।”
पूर्ण मनोयोग से सहयोग करने की अनुमति
उपरोक्त उद्धहरण को यदि संक्षिप्त रूप से बताया जाए तो तत्कालीन संघ नेतृत्व ने इस आंदोलन में अंतर्निहित जड़ता को भाँप लिया था और देश में संघ के संगठनात्मक स्तर के व्यावहारिक दृष्टिकोण तथा समाज की मानसिक स्थिति के आंकलन के पश्चात ही देशभक्त नागरिकों के रूप में स्वयंसेवकों को कांग्रेस के नेतृत्व में इस राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेकर पूर्ण मनोयोग से सहयोग करने की अनुमति दी।
इसके परिणामस्वरूप ही स्वयं को समाज का अंग मानते हुए अनेक स्वयंसेवक अपने अपने सामर्थ्य अनुसार आम जनता के साथ सहयोग करने के मंतव्य से इस लड़ाई में कूद गए। श्री गुरूजी ने डॉ.हेडगेवार की ओर से निर्धारित सिद्धांतों पर भारत छोडो आंदोलन का समर्थन किया था। जो प्रमाण है कि संघ ने योजनबद्ध तरीके से देश की स्वतंत्रता हेतु हुए आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया। श्री गुरूजी के निर्देशानुसार ही स्वयं को समाज का अंग मानते हुए संघ के स्वयंसेवक अपने अपने सामर्थ्य अनुसार आम जनता के साथ सहयोग करने के मंतव्य से इस लड़ाई में कूद गए।
आंदोलन में भागीदारी के कारण हिरासत में लिये गए
राष्ट्रीय अभिलेखागार में गुप्तचर विभाग में एक साइज की मोटी फाईल में रिपोर्ट बड़े सुरक्षित रखी हुई है। इसी फाईल में संघ के अनेक कार्यकर्ताओं के नाम भी मिलते हैं, जो सन 1942 के आंदोलन में भागीदारी करने के कारण विभिन्न स्थानों पर हिरासत में लिये गए और जेलों में सजा भुगतते रहे। इन रिपोर्टों से यह भी पता चलता है कि विदर्भ के चिमूर आष्ठी नामक स्थान पर तो संघ के कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्र सरकार की स्थापना भी कर ली थी।
संघ के स्वयंसेवकों ने अंग्रेजों की पुलिस द्वारा किए गए कई प्रकार के अमानुषिक अत्याचारों का सामना किया। गुप्तचर विभाग की रिपोर्टों से पता चलता है कि अपनी सरकार स्थापित करने के बाद सरकारी आदेशों से हुए लाठी चार्ज/गोली वर्षा में एक दर्जन से ज्यादा स्वयंसेवक शहीद हुए थे। नागपुर के निकट रामटेक के संघ के नगर कार्यवाह श्री रमाकांत केशव देशपांडे उपाख्य बाला साहेब देशपांडे को 1942 के अंग्रेजो भारत छोड़ो के आंदोलन में भाग लेने पर मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी, परंतु बाद में उन्हें सजा से मुक्त कर दिया गया। इन्होने ही बाद में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ नमक संगठन की स्थापना की।
बाहर रहकर इस आंदोलन में भाग लेने की सहायता करें
गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 20 सितंबर, 1943 को नागपुर में हुई संघ की गुप्त बैठक में जापान की सहायता से ‘आजाद हिंद फौज’ के भारत की ओर होने वाले कूच के समय संघ की संभावित योजना पर भी विचार हुआ था।
संघ के स्वयंयेवकों ने जब आंदोलन में भाग लेकर जेलों में जाना प्रारंभ किया तो सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने स्पष्ट कहा, “जो स्वयंसेवक कारावास में नहीं जा सकते, वे बाहर रहकर इस आंदोलन में भाग लेने वाले बंधुओं एवं उनके परिवारों की सब प्रकार की सहायता करें।” अतः संघ के कार्यकर्ताओं ने आंदोलन का संचालन कर रहे भूमिगत नेताओं को न केवल अपने घरों में सुरक्षित शरण दी अपितु उनके परिवारों की भी हर तरह से देखभाल करते रहे।
बयालीस के आंदोलन
इस आंदोलन में ‘1942 की बिजली‘ के नाते विख्यात हुई कांग्रेस की बड़ी नेता अरुणा आसफ अली ने सन 1968 में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के संपादक के साथ हुई अपनी एक महत्त्वपूर्ण भेंट-वार्ता में कहा था-“बयालीस के आंदोलन में जब मैं भूमिगत थी, तब दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज ने अपने घर पर दस-पंद्रह दिन आश्रय देकर सुरक्षा का पूरा प्रबंध किया था।
अपने यहाँ मेरे निवास का पता उन्होंने किसी को नहीं चलने दिया था। अंत में भूमिगत कार्यकर्ताओं को इतने दिन एक ही स्थान पर नहीं रहना चाहिए, अत: उनके घर से पटीवाला घाघरा और चुनरी ओढ़कर पास से गुजरने वाली एक बारात में भांगड़ा करते हुए वहाँ से निकल आई। मुझे यह पोशाक लालाजी की पत्नी ने दी थी। कुछ समय पश्चात जब मैं उन्हें उसे वापस करने पहुंची, तो उन्होंने यह कहते हुए उसे लेने से मना कर दिया की मैं उसे उनकी शुभकामनाओं के साथ उपहार के रूप में रख लूँ।
छह वर्ष बाद पुष्टि की
इस दौरान संघ के स्वयंसेवकों ने अनेक भूमिगत क्रांतिकारियों और नेताओं के रहने की व्यवस्था पूर्ण मनोयोग से की थी। स्वयं सोलापुर कांग्रेस समिति के सदस्य गणेश बापूजी शिणकर ने भारत छोडो आंदोलन के छह वर्ष बाद सन 1948 में इस बात की पुष्टि की थी। श्री गणेश बापूजी शिणकर ने संघ पर लगे प्रीतिबन्ध को हटाने के लिए सत्याग्रह में भाग लिया। उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर कांग्रेस से त्याग-पत्र दे दिया था और सत्याग्रह में शामिल हो गए थे।
एक अन्य रिपोर्ट में विवरण आता है, “संघ मुख्यालय के प्रमुख अधिकारी लगातार बाहर की शाखाओं का दौरा करते रहे है, ताकि स्वयंसेवकों में संघ कार्य के लिए संघ रूचि जगा सके, उन्हें गुप्त निर्देश दे सकें और स्थानीय संगठन को मजबूत बना सकें। इसके उदाहरण के रूप में संघ के वर्तमान प्रमुख एम. एस. गोलवलकर के इस वर्ष के व्यापक दौरे को देखा जा सकता है। गत अप्रैल माह में वे अहमदाबाद में थे, मई में अमरावती और पूना में थे, जून में नासिक और बनारस में थे। उन्होंने अगस्त में चाँदा, सितंबर में फिर पूना, अक्तूबर में मद्रास और मध्य प्रांत तथा नवम्बर में रावलपिंडी का दौरा किया।”
आंदोलन में न केवल जेल गए अपितु घोर यातनाएं भी सहन की
उपरोक्त संदर्भों के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत छोडो आंदोलन में अपने स्वयसेवकों को पूर्ण रूप से झोंक दिया था। संगठन के रूप में इस आंदोलन में न भाग लेने का संघ का निर्णय डॉ. हेडगेवार द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशानुसार था, साथ ही 1942 में आंदोलन छेड़ने से पूर्व कांग्रेस की अधूरी तैयारी और उस समय संघ के सामर्थ्य पर आधारित था।
संघ के स्वयंसेवक इस आंदोलन में न केवल जेल गए अपितु उन्होंने घोर यातनाएं भी सहन की। उस समय के भूमिगत नेताओं की सुरक्षा और रहने का प्रबंध करना अपने आप में एक साहसपूर्ण कार्य था। स्वयं कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने इसकी पुष्टि की है। दूसरे संघ यदि उस समय आंदोलन से बाहर था या जैसे आजकल संघ विरोधी आरोप लगाते है कि संघ ने स्वतंत्रता संग्राम में क्या किया अथवा क्यों भाग न लिया।
तो उनको स्वयं इस बात पर विचार करना चाहिए कि यदि संघ इस आंदोलन से बाहर था तो फिर अंग्रेजो की गुप्तचर विभाग की रिपोर्टों में संघ और उसके स्वयंसेवकों का उल्लेख क्यों है? क्यों कांग्रेस के तत्कालीन नेता संघ के स्वयंसेवकों और संघ की सराहना करते थे? और यहाँ तक कि उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा भी दिया। वास्तव में संघ का संगठन के रूप में भारत छोडो आंदोलन में न भाग लेना उस समय की वस्तुस्थिति पर आधारित था।
आंदोलन के कारण देश को स्वाधीनता मिली
बिना संगठन भाव और योजना के भारत छोडो आंदोलन की नियति क्या रही उसका वर्णन बयालीस की बिजली कहलाने बाली अरुणा आसिफ अली ने भेंटवार्ता में स्वयं बताई थी,”सभी बड़े बड़े नेता तो जेल में जाकर बैठ गए। बाहर हम सब का मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं था।
जिसके मन में जो भी आया, उसने वैसा ही किया। मैं नहीं मानती की सन 1942 के आंदोलन के कारण अपने देश को स्वाधीनता मिली।” बाद में ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने भी स्वीकार किया था कि 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन के कारण अंग्रेजों ने भारत नहीं छोड़ा था, हमने भारत छोड़ा था नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कारण।” नेताजी अपनी फौज के साथ बढ़ते-बढ़ते इम्फाल तक आ चुके थे, उसके तुरंत बाद नौसेना और वायुसेना में विद्रोह हो गया था।
आंदोलनकारी दिशाहीन और नेतृत्वहीन हो गए
यहाँ अरुणा आसिफ अली साफ़ साफ़ कह रही है है की सभी बड़े बड़े नेता जेलों में थे। कोई मार्गदर्शन करने वाला नहीं था। कारण था इस बार अंग्रेजों ने गांधी जी की अपेक्षा के विपरीत खेल खेला और उनको वार्ता करने को नहीं बुलाया बल्कि सभी नेताओं को जेल में भेजकर उनको विचार मंथन करने का अवसर ही नहीं दिया और कांग्रेस को अवैध संगठन घोषित कर दिया। जिससे सभी आंदोलनकारी दिशाहीन और नेतृत्वहीन हो गए। परन्तु संघ के स्वयंसेवक श्री गुरूजी के दिशानिर्देशानुसार कार्य करते गए। भारत छोडो आंदोलन जहाँ डाँवाँडोल हो गया वही कम्युनिस्टों ने आंदोलन के विरुद्ध कार्य किया और अंग्रेजो की गुप्तचरी की थी।
भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ
श्री गुरूजी का भारत छोडो आंदोलन को लेकर जो आंकलन था वह सत्य सिद्ध हुआ। ऐसी ही एक आशंका से विनायक दामोदर सावरकर ने भी गांधी जी को चेताया था,”भारत छोडो आंदोलन का अंत कहीं भारत तोड़ो न हो जाए।” सावरकर की यह भविष्यवाणी 1947 में सत्य सिद्ध हुई जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग के कुकर्मों के कारण भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ।
श्री गुरूजी के नेतृत्व में संघ ने देश हित में अपने सामर्थ्यनुसार हर सम्भव कार्य किया। भारत विभाजन के समय हुए नरसंहार में हिन्दू सिक्ख शरणार्थियों की हर सम्भव मदद करने का कार्य अपने प्राण न्योछावर करके भी किया। ज्योति जला निज प्राण की पुस्तक में स्वयंसेवकों द्वारा किये कार्यों का विस्तारपूर्वक विवरण दिया हुआ है। मुस्लिम लीग के गुंडों का हर कदम पर संघ के स्वयंसेवकों ने प्रतिकार किया। यहाँ तक कई बार कांग्रेस की बैठके भी संघ के स्वयंसेवकों ने करवाई और उन बैठकों में मुस्लिम लीग के गुंडों द्वारा आराजकता फैलाने से बचाया।
देश की स्वतंत्रता और भारत छोडो आंदोलन में संघ के स्वयंसेवकों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। और उस कांग्रेस और संघ विरोधियों द्वारा अज्ञानता के कारण आरोप लगाना उनके मानसिक दिवालियापन का लक्षण है।
डॉ. महेंद्र ठाकुर, हिमाचल प्रदेश आधारित फ्रीलांसर स्तंभकार हैं साथ ही कई बेस्टसेलर और सुप्रसिद्ध पुस्तकों के हिंदी अनुवादक भी हैं। इनका ट्विटर हैंडल @Mahender_Chem है।
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