देश मे मोटरयान अधिनियम (संशोधन) 2019 लागू हो गया है। यह अधिनियम, 1988 में पारित एमवी एक्ट में कतिपय संशोधन कर के बनाया गया है। सबसे पहला एमवी एक्ट 1938 में लागू किया गया था। तब से आज तक आबादी, सड़कों का जाल, मोटर व्हीकल की संख्या और तकनीकी आदि सभी कुछ बढ़ चुकी हैं और यह प्रगति अब भी जारी है। आज का विमर्श इसी विंदु पर है। एक वक्त ऐसा था जब भारत में कारों की गिनती कुछ गिनी चुनी ही थी। पर आज, कारों की भीड़ की वजह से शहर तो शहर, बल्कि गांव और कस्बों की सड़कों पर भी जाम लगने लगा है। भारत में चलने वाली पहली मोटर कार 1897 में कलकत्ता में मिस्टर फोस्टर के मालिक क्रॉम्पटन ग्रीवस ने खरीदी थी। इस के बाद बम्बई में सन 1898 में चार कारें खरीदी गई। धीरे धीरे कारो की तकनीक बदलती गयी और लोगों की जरूरतें भी। आज पूरे देश मे, मई 2017 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, कुल पंजीकृत वाहनों की संख्या 25,23,24,000 है। 1897 की एक कार से सवा सौ साल बाद इतने वाहनों का सफर इस बात का भी प्रतीक है कि हमारी जीवन शैली, समृद्धि और दिनचर्या में पर्याप्त प्रगति हुयी है। 1951 में यह आंकड़ा 3,06,000 का था।
सड़क पर हमारा व्यवहार, हमारी सभ्यता को भी प्रदर्शित करता है। आज से चालीस पचास साल पहले जब हम सब स्कूलों में पढ़ते थे, तो सड़क पर चलने की मूलभूत बातें स्कूलों और घरों मे बतायी जाती थीं। जैसे, फुटपाथ पर चलना, बाएं तरफ ही चलना, सड़क पार करते समय दायें बायें देख कर उसे पार करना आदि आदि। तब अधिकतर के पास एक अदद सायकिल होती थी। कोई मोटर वाहन था नहीं तो लाइसेंस आदि का कोई बवाल भी कम ही लोगों के जिम्मे था। दो ही मॉडल की मोटर कारें लोकप्रिय थीं। एक एम्बेसेडर और दूसरी फिएट। 1985 से मारुति ने जरूर अपना सबसे पहला मॉडल 800 निकाला था, पर वह तब लोकप्रिय नहीं था। धीरे धीरे वक्त बदला और मारुति आज देश की सबसे बड़ी कार निर्माता कम्पनी बन गयी है। 1991 में होने वाली मुक्त अर्थव्यवस्था ने दुनियाभर के कार निर्माताओं को भारत की ओर आकर्षित किया। आज देश मे हर मॉडल और हर कंपनी की मोटरसाइकिल, कार, व्यावसायिक वाहन उपलब्ध हैं। भारत मे मोटर वाहनों का इतिहास लगभग सवा सौ साल पुराना है।
हत्या के अपराध की सजा फांसी है। लेकिन इस सजा से, हममें से अधिकांश नहीं डरते हैं। क्योंकि हत्या को हम सब एक जघन्य अपराध और पाप मानते हैं। फांसी या आजीवन कारावास की सजा का भय हमें सीधे न तो प्रभावित करता है और न ही चिंतित करता है। इस जघन्य अपराध का अपराध बोध हमें वह, अपराध करने से रोक देता है। यहां हम एक विधिपालक व्यक्ति बन जाते हैं। पर जब हम सड़क पर चलते हैं तो सड़क पर चलने के कानून का पालन करते हुए, विधिपालक के बजाय एक ऐसे असरदार व्यक्तित्व के रूप में दिखना चाहते हैं कि सड़क पर हम अपनी मनमर्जी से सारे सड़क कानून को धता बताते हुए चल सकते हैं और न तो सड़क कानून तथा न उक्त कानून का पालन कराने वाला हमारा कुछ बिगाड़ सकता है। हम, ‘जहां तक मैं देखता हूँ, मेरा ही साम्राज्य है,’ के मनोभाव के अतिरेक में डूब जाते हैं। कानून दोनों ही हैं, सजा दोनों में ही है, पर हमारा दृष्टिकोण दोनों ही कानूनों के प्रति अलग अलग हो जाता है ।
हर वैधानिक अधिकार के दो पक्ष होते हैं, जिसे कानून की भाषा मे पॉजिटिव और निगेटिव ओबलीगेशन कहते हैं। जैसे अभिव्यक्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, हर व्यक्ति को यह अधिकार संविधान से प्राप्त है। पर इस अधिकार का हर व्यक्ति उपभोग कर सके, यह जिम्मेदारी राज्य की है। वह फ्री प्रेस, मुक्त आवागमन, सेमिनार, गोष्ठियां, आदि बेरोकटोक हों यह सुनिश्चित करना राज्य का काम है । वैसे ही, सड़क पर हर व्यक्ति का अधिकार है कि वह सुरक्षित चले, पर यह सुरक्षा तभी संभव होगी जब हर व्यक्ति कानून का पालन करे और राज्य का यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी सड़क पर चलने वाले लोग, कानून के अनुसार चलें। पर क्या यातायात नियंत्रण के संदर्भ में यह होता है ? अफसोस, यह नहीं होता है।
अब कुछ ऐसे उदाहरण पढ़िये जो आप सबके सामने भी निश्चय ही घटा होगा, जहां ट्रैफिक नियमों का जमकर उल्लंघन होता है और कार्यवाही शून्य होती है। राजनीतिक दलों के जुलूस में जब झुंड के झुंड बाइकर्स अपने नेता के पीछे नारे लगाते हुये चलते हैं तो, न तो वे हेलमेट पहने होते हैं और न ही एक बाइक पर दो ही सवारी बैठी होती है। कागज हैं या नहीं यह तो बाईक वाला जाने। राजनीतिक दलों के जुलूस में चलने वाले नेता, या तो कार के ऊपर बैठे या बाहर निकल कर दरवाजे खोल कर फुटबोर्ड पर खड़े रहते हैं। सीट बेल्ट उल्लंघन भूल जाइए। धार्मिक जुलूसों में भी ऐसे बाइकर्स और वाहन अराजक होकर चलते हैं, और उनके साथ पुलिस भी रहती है, पर यहां भी कानून की धज्जियां उड़ाई जाती हैं और कोई कार्यवाही नहीं होती है। इस संदर्भ में, यह कहा जा सकता हैं कि यातायात चेकिंग से अधिक जरूरी है शांतिपूर्ण तरीके से जुलूस को निकलवा देना। यह बात बिलकुल सही है। लेकिन यह सार्वजनिक तौर पर किया गया ट्रैफिक उल्लंघन अधिकांश, विशेषकर युवा मन मे यह धारणा बैठा देता है कि, ट्रैफिक कानून कोई कानून ही नहीं है और इसे तोड़ने में कोई हर्ज नहीं है। इसे लागू करने वाली पुलिस या तो नागरिकों को तंग करने के लिये चौराहे चौराहे पर चेकिंग के लिये खड़ी रहती है या फिर पैसा वसूली के लिये। हालांकि यह आरोप बेवजह नहीं है पर ट्रैफिक चेकिंग का उद्देश्य भी यह बिलकुल नही है। नये अधिनियम में जुमार्ने की राशि तीन गुनी तक बढ़ा दी गयी है। अब इस अधिनियम के अनुसार, जो जुमार्ने लगाए जा रहे हैं वे इतने अधिक हैं कि लोग न केवल आक्रोषित हैं बल्कि जगह जगह पुलिस से मारपीट की भी खबरें आ रही हैं। आजकल सबके पास वीडियो कैमरा है, नेट कनेक्शन सुलभ है, लोग तुरंत वीडियो शूट करते हैं और उसे सोशल मीडिया पर डाल देते हैं। घंटे भर में वह खबर हजारों दर्शकों तक पहुंच जाती है। ऐसी खबरें न केवल आक्रोश उपजाती हैं बल्कि समूह को विधिविरुद्ध होने के लिये भी उकसाती हैं। अर्थदंड की अवधारणा के पीछे यह बात भी सरकार को ध्यान में रखनी चाहिये कि जिस जनता पर यह दंड लगाया जा रहा है क्या उसकी भुगतान क्षमता इतनी है भी। सबसे अधिक चालान दोपहिया वाहनों के होते हैं। पर यह तबका जिस वर्ग से आता है वह निम्न मध्यवर्ग या अधिकतर मध्यवर्ग का होता है। अधिकतर छात्र या छोटी नौकरियों के साधारण लोग, इस तबके में आते हैं। वे इतना जुर्माना नहीं दे सकते हैं। उनकी इस बढ़े जुर्माने की तुलना में इतनी आय भी नहीं है। इसका परिणाम या तो सड़कों पर झगड़े होंगे या पुलिस पर आरोप लगेंगे। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि विदेशों में चालान की दरें बहुत अधिक हैं। पर वहां पर सड़क अनुशासन भी हमारे यहां की तुलना में कहीं अधिक है। हमारे समाज को सड़क पर चलने के किसी नियम को गंभीरता से लेने की आदत भी नहीं है। जबकि विदेशों में ऐसा बिल्कुल नहीं है। एमवी एक्ट 2019 की धारा 210 इ. के अनुसार, “कोई अधिकारी, जो इस अधिनियम के प्राविधानों को लागू करने हेतु अधिकृत है, यदि उसके द्वारा इस अधिनियम के अधीन, अपराध किया जाता है तो, वह इस अधिनियम में, उस अपराध के लिये निर्धारित दंड से दुगुना दंड के लिये दंडनीय होगा।” यह प्रविधान समान अपराध के लिये समान दंड के सिद्धांत के विरुद्ध है। यह ट्रैफिक का एक सिद्धांत है। पर शायद ही कोई शहर हो, जहां के फुटपाथ, अतिक्रमण से भर कर बाजार न हो गए हों, सड़के पार्किंग केंद्र न बन गयीं हों, चौराहो पर पान आदि की दुकानें, ठेले वाले न जमें रहते हों, ऐसे आवागमन वाले मार्ग पर केवल जुर्माना लगा कर जब ट्रैफिक रेगुलेट करने की बात सरकार सोचेगी तो लोगों में आक्रोश उपजेगा ही । सड़क पर लोगों के सुरक्षित रूप से चलने के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिये यह राज्य का सकारात्मक दायित्व है कि वह अतिक्रमण और गड्ढा मुक्त सड़कें उपलब्ध कराए। केवल सघन चेकिंग के साथ और चौराहो पर दौड़ा दौड़ा कर चालान काट कर ही इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। सड़कों पर ट्रैफिक चेकिंग के समय ट्रैफिक पुलिस के जवानों के साथ इधर कुछ अराजक तत्वों ने मारपीट की घटनाएं की हैं। यह एक्ट न तो पुलिस ने लागू किया है और न ही इसके चालान के नियम पुलिस मुख्यालय से तय हुये हैं। यह नियम सरकार ने संसद में मंजूरी के बाद लागू किया है, बस उस अधिनियम का उल्लंघन न हो, यह देखना यातायात पुलिस का काम है। ऐसा भी नही कि यह नियम जब से आया है तब से ही ट्रैफिक चेकिंग शुरू हुयी है। बड़े शहरों में यह यातायात चेकिंग बराबर चलती रहती है। देश भर में यातायात पुलिस की सक्रियता अक्सर महत्वपूर्ण क्षेत्रो और चौराहो पर होती है। इसका एक बड़ा कारण है यातयात पुलिस की कमी। पूरे देश मे, पुलिस जनशक्ति की कमी है और यातायात पुलिस में तो यह कमी और भी है। क्योंकि यह विभाग, पुलिस की प्राथमिकता में उतना नहीं आता है जितना अपराध के अन्वेषण, और कानून व्यवस्था से जुड़े पुलिस के मुख्य विभाग आते हैं। ब्यूरो आॅफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट, बीपीआरडी, की एक रिपोर्ट के अनुसार, ” पूरे देश मे कुल ट्रैफिक पुलिस के जवानों की जनशक्ति 72,000 से थोड़ी अधिक है जबकि सड़क पर चलने वाले कुल वाहनो की संख्या लगभग 25 करोड़ है। यह रिपोर्ट 2017 की संस्थान के अध्ययन में दी गयी है। लेकिन अभी भी अगर इसमे दो वर्ष और जोड़ लें तो, यह संख्या अब भी बहुत अधिक नहीं बढ़ी होगी। वाहन और यातायात पुलिस के संख्यागत अनुपात को देखते हुये यह स्पष्ट है कि ट्रैफिक पुलिस की संख्या वाहनों के अनुपात में बहुत कम है। अगर इसका अनुपात जनसंख्या से जोड़ा जाएगा तो, संख्या और भी कम हो जायेगी। पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक, यानी 8,500 यातायात पुलिस के जवान हैं कर्नाटक में, 6,000 और दिल्ली में यह संख्या 6,600 है। यह सारी जनशक्ति केवल बड़े और मझोले शहर में ही दिखेगी, जबकि कस्बों, और छोटे शहरों में यातायात पुलिस की उपस्थिति बहुत ही कम होती है। जवानों की कमी के कारण ही यातायात प्रबंधन के लिये इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की सहायता ली जाती है। सुरक्षित चलने के लिये, और चौराहों पर किसी भी रोक टोक ठोक से बचने के लिये जरूरी है कि हम आप सब यातायात नियमों का पालन करें, बजाय इसके कि अपनी ड्यूटी पर खड़े सिपाही जो इसी समाज का अंग है से उलझें और उससे मारपीट करें। यह अनुचित और निंदनीय तो है ही साथ ही भारतीय दंड संहिता में दंडनीय अपराध भी है।
हत्या के अपराध की सजा फांसी है। लेकिन इस सजा से, हममें से अधिकांश नहीं डरते हैं। क्योंकि हत्या को हम सब एक जघन्य अपराध और पाप मानते हैं। फांसी या आजीवन कारावास की सजा का भय हमें सीधे न तो प्रभावित करता है और न ही चिंतित करता है। इस जघन्य अपराध का अपराध बोध हमें वह, अपराध करने से रोक देता है। यहां हम एक विधिपालक व्यक्ति बन जाते हैं। पर जब हम सड़क पर चलते हैं तो सड़क पर चलने के कानून का पालन करते हुए, विधिपालक के बजाय एक ऐसे असरदार व्यक्तित्व के रूप में दिखना चाहते हैं कि सड़क पर हम अपनी मनमर्जी से सारे सड़क कानून को धता बताते हुए चल सकते हैं और न तो सड़क कानून तथा न उक्त कानून का पालन कराने वाला हमारा कुछ बिगाड़ सकता है। हम, ‘जहां तक मैं देखता हूँ, मेरा ही साम्राज्य है,’ के मनोभाव के अतिरेक में डूब जाते हैं। कानून दोनों ही हैं, सजा दोनों में ही है, पर हमारा दृष्टिकोण दोनों ही कानूनों के प्रति अलग अलग हो जाता है ।
हर वैधानिक अधिकार के दो पक्ष होते हैं, जिसे कानून की भाषा मे पॉजिटिव और निगेटिव ओबलीगेशन कहते हैं। जैसे अभिव्यक्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, हर व्यक्ति को यह अधिकार संविधान से प्राप्त है। पर इस अधिकार का हर व्यक्ति उपभोग कर सके, यह जिम्मेदारी राज्य की है। वह फ्री प्रेस, मुक्त आवागमन, सेमिनार, गोष्ठियां, आदि बेरोकटोक हों यह सुनिश्चित करना राज्य का काम है । वैसे ही, सड़क पर हर व्यक्ति का अधिकार है कि वह सुरक्षित चले, पर यह सुरक्षा तभी संभव होगी जब हर व्यक्ति कानून का पालन करे और राज्य का यह दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी सड़क पर चलने वाले लोग, कानून के अनुसार चलें। पर क्या यातायात नियंत्रण के संदर्भ में यह होता है ? अफसोस, यह नहीं होता है।
अब कुछ ऐसे उदाहरण पढ़िये जो आप सबके सामने भी निश्चय ही घटा होगा, जहां ट्रैफिक नियमों का जमकर उल्लंघन होता है और कार्यवाही शून्य होती है। राजनीतिक दलों के जुलूस में जब झुंड के झुंड बाइकर्स अपने नेता के पीछे नारे लगाते हुये चलते हैं तो, न तो वे हेलमेट पहने होते हैं और न ही एक बाइक पर दो ही सवारी बैठी होती है। कागज हैं या नहीं यह तो बाईक वाला जाने। राजनीतिक दलों के जुलूस में चलने वाले नेता, या तो कार के ऊपर बैठे या बाहर निकल कर दरवाजे खोल कर फुटबोर्ड पर खड़े रहते हैं। सीट बेल्ट उल्लंघन भूल जाइए। धार्मिक जुलूसों में भी ऐसे बाइकर्स और वाहन अराजक होकर चलते हैं, और उनके साथ पुलिस भी रहती है, पर यहां भी कानून की धज्जियां उड़ाई जाती हैं और कोई कार्यवाही नहीं होती है। इस संदर्भ में, यह कहा जा सकता हैं कि यातायात चेकिंग से अधिक जरूरी है शांतिपूर्ण तरीके से जुलूस को निकलवा देना। यह बात बिलकुल सही है। लेकिन यह सार्वजनिक तौर पर किया गया ट्रैफिक उल्लंघन अधिकांश, विशेषकर युवा मन मे यह धारणा बैठा देता है कि, ट्रैफिक कानून कोई कानून ही नहीं है और इसे तोड़ने में कोई हर्ज नहीं है। इसे लागू करने वाली पुलिस या तो नागरिकों को तंग करने के लिये चौराहे चौराहे पर चेकिंग के लिये खड़ी रहती है या फिर पैसा वसूली के लिये। हालांकि यह आरोप बेवजह नहीं है पर ट्रैफिक चेकिंग का उद्देश्य भी यह बिलकुल नही है। नये अधिनियम में जुमार्ने की राशि तीन गुनी तक बढ़ा दी गयी है। अब इस अधिनियम के अनुसार, जो जुमार्ने लगाए जा रहे हैं वे इतने अधिक हैं कि लोग न केवल आक्रोषित हैं बल्कि जगह जगह पुलिस से मारपीट की भी खबरें आ रही हैं। आजकल सबके पास वीडियो कैमरा है, नेट कनेक्शन सुलभ है, लोग तुरंत वीडियो शूट करते हैं और उसे सोशल मीडिया पर डाल देते हैं। घंटे भर में वह खबर हजारों दर्शकों तक पहुंच जाती है। ऐसी खबरें न केवल आक्रोश उपजाती हैं बल्कि समूह को विधिविरुद्ध होने के लिये भी उकसाती हैं। अर्थदंड की अवधारणा के पीछे यह बात भी सरकार को ध्यान में रखनी चाहिये कि जिस जनता पर यह दंड लगाया जा रहा है क्या उसकी भुगतान क्षमता इतनी है भी। सबसे अधिक चालान दोपहिया वाहनों के होते हैं। पर यह तबका जिस वर्ग से आता है वह निम्न मध्यवर्ग या अधिकतर मध्यवर्ग का होता है। अधिकतर छात्र या छोटी नौकरियों के साधारण लोग, इस तबके में आते हैं। वे इतना जुर्माना नहीं दे सकते हैं। उनकी इस बढ़े जुर्माने की तुलना में इतनी आय भी नहीं है। इसका परिणाम या तो सड़कों पर झगड़े होंगे या पुलिस पर आरोप लगेंगे। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि विदेशों में चालान की दरें बहुत अधिक हैं। पर वहां पर सड़क अनुशासन भी हमारे यहां की तुलना में कहीं अधिक है। हमारे समाज को सड़क पर चलने के किसी नियम को गंभीरता से लेने की आदत भी नहीं है। जबकि विदेशों में ऐसा बिल्कुल नहीं है। एमवी एक्ट 2019 की धारा 210 इ. के अनुसार, “कोई अधिकारी, जो इस अधिनियम के प्राविधानों को लागू करने हेतु अधिकृत है, यदि उसके द्वारा इस अधिनियम के अधीन, अपराध किया जाता है तो, वह इस अधिनियम में, उस अपराध के लिये निर्धारित दंड से दुगुना दंड के लिये दंडनीय होगा।” यह प्रविधान समान अपराध के लिये समान दंड के सिद्धांत के विरुद्ध है। यह ट्रैफिक का एक सिद्धांत है। पर शायद ही कोई शहर हो, जहां के फुटपाथ, अतिक्रमण से भर कर बाजार न हो गए हों, सड़के पार्किंग केंद्र न बन गयीं हों, चौराहो पर पान आदि की दुकानें, ठेले वाले न जमें रहते हों, ऐसे आवागमन वाले मार्ग पर केवल जुर्माना लगा कर जब ट्रैफिक रेगुलेट करने की बात सरकार सोचेगी तो लोगों में आक्रोश उपजेगा ही । सड़क पर लोगों के सुरक्षित रूप से चलने के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिये यह राज्य का सकारात्मक दायित्व है कि वह अतिक्रमण और गड्ढा मुक्त सड़कें उपलब्ध कराए। केवल सघन चेकिंग के साथ और चौराहो पर दौड़ा दौड़ा कर चालान काट कर ही इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। सड़कों पर ट्रैफिक चेकिंग के समय ट्रैफिक पुलिस के जवानों के साथ इधर कुछ अराजक तत्वों ने मारपीट की घटनाएं की हैं। यह एक्ट न तो पुलिस ने लागू किया है और न ही इसके चालान के नियम पुलिस मुख्यालय से तय हुये हैं। यह नियम सरकार ने संसद में मंजूरी के बाद लागू किया है, बस उस अधिनियम का उल्लंघन न हो, यह देखना यातायात पुलिस का काम है। ऐसा भी नही कि यह नियम जब से आया है तब से ही ट्रैफिक चेकिंग शुरू हुयी है। बड़े शहरों में यह यातायात चेकिंग बराबर चलती रहती है। देश भर में यातायात पुलिस की सक्रियता अक्सर महत्वपूर्ण क्षेत्रो और चौराहो पर होती है। इसका एक बड़ा कारण है यातयात पुलिस की कमी। पूरे देश मे, पुलिस जनशक्ति की कमी है और यातायात पुलिस में तो यह कमी और भी है। क्योंकि यह विभाग, पुलिस की प्राथमिकता में उतना नहीं आता है जितना अपराध के अन्वेषण, और कानून व्यवस्था से जुड़े पुलिस के मुख्य विभाग आते हैं। ब्यूरो आॅफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट, बीपीआरडी, की एक रिपोर्ट के अनुसार, ” पूरे देश मे कुल ट्रैफिक पुलिस के जवानों की जनशक्ति 72,000 से थोड़ी अधिक है जबकि सड़क पर चलने वाले कुल वाहनो की संख्या लगभग 25 करोड़ है। यह रिपोर्ट 2017 की संस्थान के अध्ययन में दी गयी है। लेकिन अभी भी अगर इसमे दो वर्ष और जोड़ लें तो, यह संख्या अब भी बहुत अधिक नहीं बढ़ी होगी। वाहन और यातायात पुलिस के संख्यागत अनुपात को देखते हुये यह स्पष्ट है कि ट्रैफिक पुलिस की संख्या वाहनों के अनुपात में बहुत कम है। अगर इसका अनुपात जनसंख्या से जोड़ा जाएगा तो, संख्या और भी कम हो जायेगी। पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक, यानी 8,500 यातायात पुलिस के जवान हैं कर्नाटक में, 6,000 और दिल्ली में यह संख्या 6,600 है। यह सारी जनशक्ति केवल बड़े और मझोले शहर में ही दिखेगी, जबकि कस्बों, और छोटे शहरों में यातायात पुलिस की उपस्थिति बहुत ही कम होती है। जवानों की कमी के कारण ही यातायात प्रबंधन के लिये इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की सहायता ली जाती है। सुरक्षित चलने के लिये, और चौराहों पर किसी भी रोक टोक ठोक से बचने के लिये जरूरी है कि हम आप सब यातायात नियमों का पालन करें, बजाय इसके कि अपनी ड्यूटी पर खड़े सिपाही जो इसी समाज का अंग है से उलझें और उससे मारपीट करें। यह अनुचित और निंदनीय तो है ही साथ ही भारतीय दंड संहिता में दंडनीय अपराध भी है।