मे अल खलील बेरुत की एक हौसले वाली महिला है। मैराथन दौड़ने का शौक था। रोज सवेरे सड़कों पर निकल जाती। मीलों दौड़ती। सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन एक दिन जब ये रोज की तरह सड़क पर दौड़ रही थी, इन्हें एक बस ने टक्कर मार दी। महीनों अस्पताल में रही। छत्तीस से भी ज्यादा सर्जरी हुई। फिर कही जाकर अपने पैरों पर खड़ी हुई। दोबारा दौड़ने भी लगी। लेकिन वो पहले वाली बात नहीं रही। एक कहावत है कि दूध फटने का गम उसी को सताता है, रसगुल्ला बनाना जिसको नहीं आता है। खलील ने भी अपनी हालत पर तरस खाने के बजाय और भी बड़ा करने की ठानी। पहले दौड़ती थी, अब मैराथन आयोजित करने चल पड़ी।
बेरूत के बारे में जिनको थोड़ा भी पता है वो जानते हैं कि ये धर्म और राजनीति के आधार पर बंटा हुआ इलाका है। हिंसक झड़पे आम बात है। लेकिन बेरुत ‘यूनाइटेड वी रन’ के प्रचार-प्रसार के लिए खलील गांव-गांव शहर-शहर घूमी। सरकारी हुक्मरानों से मिली। खून-खराबे में लगे लोगों से सम्पर्क किया। आश्चर्य की बात थी कि मैराथन के दिन खूनी संघर्ष में भिड़े गुटों ने सीजफायर घोषित कर दिया। और तो और, उन्होंने दौड़ लगाने वालों को पानी पिलाया, जूस परोसा। गोली इस दिन भी चली लेकिन वो दौड़ शुरू होने के संकेत के तौर पर। देश-विदेश के हजारों लोगों ने इसमें भाग लिया। तब से हर साल वो इसका आयोजन करती है। वहां के प्रधानमंत्री की हत्या के बाद जब सारा बेरुत सदमे में था, खलील ने पीस मैराथन का आयोजन किया। इसमें साठ हजार लोगों ने भाग लिया। बेरुत में अस्थिर सरकार और गृह युद्ध के बीच मैराथन अबाध चल रहा है। अब अगल-बगल के देश भी इस तरह के आयोजन के लिए खलील से सलाह करते हैं। उनका कहना है शांति स्थापित करना कोई फरार्टा नहीं, ये तो एक मैराथन दौड़ जैसा है।
1999 में जब एक जिले में एसपी था तो तब के मुख्यमंत्री का आना हुआ। शाम होते ना होते वे अपनी राजनैतिक सहयोगियों को दफा कर देने के आदी थे। फिर स्थानीय अफसरों के साथ घंटों बैठते। दुनियां भर की बात करते। गुजरे सालों के बड़े लीडरों के किस्से सुनाते। रौब गालिब करने के लिए कभी प्रधानमंत्री को फोन लगाते, कभी किसी और बड़े ओहदेदार को। जैसे ही मौका मिलता चालाक किस्म के अफसर अपना सिक्का उछाल देते। पुलिस के काम पर टीका-टिप्पणी आम था। इज्जत बचानी मुश्किल हो जाती। एक दिन थानेदार के बदजुबानी की चर्चा चल पड़ी। मुख्यमंत्री जी ने कहा इन्हें अच्छे व्यवहार के लिए ट्रेनिंग दो। मैंने भोलेपन से कहा कि थानेदार से भला और आज्ञाकारी किस्म का प्राणी तो मुझे कहीं दिखा ही नहीं। बात-बात पर सलाम ठोकते हैं। जो कहो करने को तैयार हो जाते हैं। कोई अपराधी घटनास्थल पर अपना विजिटिंग कार्ड छोड़ कर नहीं जाता फिर भी रिकार्ड टाइम में उसे पकड़ लाते हैं। जबाव मिला कि आप तो पुलिस कप्तान हैं। आपके से साथ तो ये अदब से पेश आएंगे ही। मैंने चुपके से सरकाया कि इसका मतलब ये हुआ कि थानेदार को अच्छा बात-व्यवहार करने आता है। बस वो सामने वाले की औकात देखकर बात करता है। एक मिनट के लिए तो शांति छा गई। सारे चुप। फिर किसी और ने कोई और राग छेड़ दिया। बात आई-गई हो गई।
एसपी के दिन तो देखते-देखते निकल गए। जिले में लगते ही तबादले की बात होने लगती। सारा समय भाग-दौड़ में निकलता। जब तक कुछ नया करने की सोचता, कुर्सी बदली हुई मिलती। दस-बारह साल बाद रेंज में आईजी लगा। बड़ा इलाका था। उतनी मारा-मारी नहीं थी। कुछ करने की सोच सकते थे। मुझे पता था कि एसएचओ का लोगों से कायदे से पेश नहीं आने का समाधान किसी ट्रेनिंग स्कूल के पास नहीं है। एक ही आदमी से आप क्या-क्या कराएंगे? पड़ोसी फंस जाए तो खुश हो जाते हैं कि अब आंटे-दाल के भाव का पता चल जाएगा। किसी कारण छूट जाए तो लाख लानतें भेजते हैं कि कोई डील हो गई होगी। खुद फंसते हैं तो हाथ-पैर मारते हैं कि कोई बिचौलिया मिल जाए तो कुछ ले-देकर पीछा छूटवा दे। कोई बदमाश फंस जाए तो सोचते हैं कि उसका भूत बना दे। उसी झोंक में किसी और की भी ऐसी-तैसी कर दे तो रोते हैं कि ऐसा कैसे कर दिया।
मैंने इसे बदलने की एक तरकीब सोची। एसएचओ से कहा कि आप को अपने इलाके के पचास ऐसे लोगों की पहचान और उनसे बात-मुलाकात होनी चाहिए जिनका आगे बीस-पच्चीस अन्य लोगों पर प्रभाव हो। सोचा इस चक्कर में ये थाने से निकलेंगे, गाड़ियों से उतरेंगे, लोगों से बात करेंगे। ऐसे लोगों की पहचान का मैंने एक सरल तरीका निकाला। कहा बड़ी रैलियां के पार्किंग में जाएं। गाड़ियां के रेजिस्ट्रेशन नम्बर से इनके सवारों का पता लगाएं। यही वे लोग हैं जो क्राउड-वेंडर का धंधा करता हैं। कहीं भी भीड़ लगानी हो, ये पहुंच जाते हैं। इसी बात का रौब स्थानीय लीडरों पर गांठते हैं।
अब सवाल ये था कि कैसे पता करें कि वे ऐसा कर रहे हैं। इसके लिए कहा कि मैं हर जिले में मैराथन कराऊंगा। एसएचओ अपने इलाके के पचास प्रभाव रखने वाले लोगों और उनके बीस-पच्चीस संगी-साथियों को इसमें भाग लेने के लिए प्रेरित करने के जिम्मेवार होंगे। सोच ये थी एसएचओ इसके चक्कर में इलाके के लोगों से बात-चीत रखेगा। नहीं तो इसके कहने से दौड़ने जैसी चीज के लिए कौन आएगा? अपनी क्षवि भी ठीक रखेगा नहीं तो लोग आ भी गए तो कहेंगे कि दौड़ बाद में होगी, पहले इस थानेदार का इलाज करो, बड़ा खून पीता है।
प्रयोग लोगों को बड़ा रास आया। एसएचओ के व्यवहार में कितना परिवर्तन आया ये तो शोध का विषय है लेकिन रोड-रेस इतना लोकप्रिय है, ये पहली बार पता चला। 2015 से अब तक दर्जनों मैराथन हुए। प्रत्येक में पचास हजार से ऊपर लोगों ने भाग लिया। पूछते रहते हैं कि फिर कब कराओगे?
ओपी सिंह
(लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।)
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