पिछले दिनों मैं दस दिन की कर्नाटक की यात्रा पर था। अगुम्बे, उडुपी, मैसूरू और बेंगलूरू हमारी यात्रा के पड़ाव थे। वहां एक बात मैंने सामान रूप से देखी कि कर्नाटक-वासियों को अपने वृक्षों से खूब लगाव है। अगुम्बे में तो खैर, वर्षा-वन हैं और वहां प्रकृति ने उदारता पूर्वक वृक्षों, खासकर मैंग्रोव को उगा रखा है। उडुपी में समुद्र-तट वाले ताड़ के वृक्षों की भरमार है। लेकिन मैसूरू और बेंगलूरू में वाडियार राजाओं द्वारा लगाए गए छतनार और फलदार वृक्षों के बाग हैं। बेंगलूरू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की अध्यक्ष और सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. उषारानी राव ने हमें बताया, कि यहां वृक्ष काटने की मनाही है। आप मेट्रो ट्रेन गुजारो या सड़क चौड़ी करो, लेकिन वृक्ष नहीं काट सकते। इसीलिए दक्षिण में मैसूरू और बेंगलूरू ऐसे महानगर हैं, जहां का मौसम न अधिक गर्म होता है न ठंडा। वृक्ष ही हमें ग्लोबल-वार्मिंग से मुक्ति दे सकते हैं।
हम इतिहास में पढ़ते आए हैं कि सबसे पहले सम्राट अशोक ने राजमार्ग बनवाए। कहा तो यहां तक जाता है कि पेशावर से पटना तक पहला राजमार्ग सम्राट अशोक ने ही बनवाया था और उसके दोनों तरफ फलदार व छतनार पेड़ लगवाए थे ताकि राहगीर उन पेड़ों के नीचे विश्राम कर सकें और फल भी खा सकें। यहां तक कि पहले जब राजमार्ग नहीं थे तब भी ग्रामीण अपनी पगडंडी भी पेड़ों के बीच से निकालते थे ताकि सूर्य की तेज धूप से बचा जा सके। तुलसी ने कवितावली में लिखा है कि राम और सीता जब वन को चले तो सीता जी जो सदैव महलों की रहने वाली थीं वे जल्दी ही थक गईं तो अपने पति से निवेदन करती हैं कि ‘जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ पिय छांह करील “ै ठाढ़े।’ दरअसल सीताजी यह नहीं जताना चाहतीं कि वे थक गई हैं इसलिए अपने देवर लक्ष्मण के बहाने से कहती हैं कि हे प्रियतम लक्ष्मण अभी बच्चे हैं वे पानी लेने गए हैं और जंगल भयानक व हिंसक जीवों से भरा हुआ है इसलिए उनका इंतजार कर लीजिए उस करील के पेड़ के नीचे खड़े होकर। यानी मार्गों पर हरे-भरे वृक्ष पहले भी लगाए जाते रहे हैं। यह तो इतिहास में भी मिलता है कि शेरशाह सूरी ने जीटी रोड का पुनरोद्घार करवाया था। यह जीटी रोड पेशावर से हावड़ा तक अबाधित रूप से जाता है। इसीलिए इसे शेरशाह सूरी मार्ग भी कहा गया। अकबर ने भी कई राजमार्ग बनवाए। इसके पहले जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट की थी तो अपना सारा माल-असबाब तथा परिवार व फौजफाटा किसी न किसी सड़क से ही ले गया होगा। और वह सड़क ऐसी ही होगी जिसके दोनों तरफ खूब हरियाली रही होगी। इससे एक तथ्य तो एकदम साफ है कि सड़क के दोनों ही किनारों पर फलदार व ऊंचे-ऊंचे वृक्ष लगाने की परंपरा पुरानी है।
आम, इमली, नीम, शीशम और जामुन के पेड़ों के बीच से गुजरा करते थे राजमार्ग। इन्हीं वृक्षों के नीचे गाड़ी रोककर लोग बाग दरी नीचे बिछाते और पूरा दस्तरखान सज जाया करता। मगर अब देखिए तो पाएंगे राजमार्ग वृक्षविहीन हैं। सड़कें चौड़ी और आलीशान तो हुई हैं पर उनके किनारों पर से वृक्ष खत्म कर दिए गए हैं। फोरलेन राजमार्गों में दो सड़को के बीच में हेज जरूर लगाई जाती है पर वह पांच फिट से अधिक ऊंची नहीं होती। वह हेज न तो राहगीरों के विश्राम के काम आती है न दस्तरखान सजाने के। अब गाड़ी वहीं रोकी जाती है जहां होटल या मोटेल होते हैं। वृक्ष सड़कों के किनारे का कटान भी रोका करते थे। तब बारिश में जब सड़क के किनारे कटने लगते थे। मगर ये किनारे वहीं पर कटते थे जो इलाका वनस्पति विहीन होता था। जहां पर पेड़ होते थे वह क्षेत्र जस का तस बना रहता था। साइकिलों और मोटर साइकिलों पर चलने वाले वाहन चालकों के लिए ये पेड़ छाया का काम भी करते थे और अक्सर सड़क के किनारे आम, जामुन या इमली बिखरी रहती थी। कहीं-कहीं नीबू या अमरूद के पेड़ भी होते थे। सड़क किनारे के ये पेड़ इतने ऊंचे होते थे कि दूर क्षितिज पर ऐसा प्रतीत होता था मानों सड़क के किनारे के इन पेड़ों की फुनगियां परस्पर एक-दूसरे के गले मिल रही हों। खासकर जब सूर्यास्त के वक्त यह दृश्य तो अन्यंत मनोभावन हुआ करता था। तब दूर की सारी थकान मिट जाया करती थी। मगर अब सिवाय दूर तक चली गई तारकोल की सड़क के कुछ नहीं दिखता। दोनों तरफ बस बियाबान ही बियाबान। अब सड़क के किनारे अगर पेड़ लगाए भी जाते हैं तो सिर्फ यूकोलिप्टस या सफेदे के। ये पेड़ जमीन के अंदर के पानी को भी सोख लेते हैं। वृक्षों के बारे में अफसरशाही का यह आकलन पर्यावरण के लिए तो नुकसानदेह है ही।
हाई वे के किनारों से फलदार और छतनार पेड़ों को हटवाने के पीछे राष्टÑीय राजमार्ग प्राधिकरण का तर्क है कि इससे हाई वे सुरक्षित रहते हैं और उन पर किसी जानवर के आने का खतरा नहीं होता और न ही किसी दुर्घटना की गुंजाइश बचती है। उनका मानना है कि चूंकि टोल रोड पर वाहनों की स्पीड अक्सर सौ से ऊपर की होती है और इस वजह से अगर कोई भी जानवर उससे टकरा गया तो भीषण दुर्घटना घटित हो सकती है। रात के समय पेड़ों के कारण अंधेरा रहेगा और आड़ से आने वाला जानवर नहीं दिखेगा। खासकर बंदर या अन्य कोई छोटा पशु। यूं भी अगर वृक्ष फलदार हुए तो बंदर के आने की संभावना बनी ही रहती है। इसके अलावा यह भी हो सकता है कि फल देखकर कोई पैदल यात्री वहां रुका और वृक्ष के नीचे से फल उठा रहा हो या तोड़   रहा हो और तब ही अचानक कोई डाली टूट गई तो हादसे हो सकते हैं। ये सब आशंकाएं हैं और उनको दूर करने के उपाय हेतु ये तरीके अपनाए गए। लेकिन इन सबके बावजूद वृक्ष लगाने के और तरीके निकाले जा सकते हैं। मसलन नीम या सीसम के पेड़ों को तरजीह दी जाए। दूसरे चूंकि राष्ट्रीय राजमार्गों के दोनों किनारों की 220 फीट दूरी तक का रास्ता राजमार्ग प्राधिकरण का होता है। इसलिए ये वृक्ष इस दूरी पर लगाए जा सकते हैं। इसके दो फायदे हैं। एक तो इस दूरी पर कोई अतिक्रमण नहीं होने पाएगा। जब इस दूरी पर पेड़ लगा दिए जाएंगे तो जो भी अतिक्रमण करेगा वह इस दूरी के आगे ही करेगा। तब अतिक्रमण किए लोगों को सड़क के किनारे से हटाना भी आसान हो जाएगा।
योरोप और अमेरिका में भी हाई वे के किनारे-किनारे पेड़ लगाने की परंपरा पुरानी है। यह अलग बात है कि फलदार वृक्ष वहां नहीं लगाए जाते। पर वृक्षों के कारण हाई वे की सुरक्षा भी रहती है। अतिवृष्टि या अनावृष्टि के समय ये वृक्ष ही सड़क की रक्षा करते हैं। जहां-जहां सड़क वृक्षों के झुरमुट के बीच से निकलती है वहां उसमें न तो गड्ढे पड़ते हैं न दरारें। इसकी वजह यह है कि बारिश का पानी तारकोल से बनी सड़क को फौरन उखाड़ देता है। मगर जब वृक्षों की ओट होती है तो यह पानी सीधे सड़क पर नहीं पड़ता। इसी तरह सूखे में धूप का तीखापन उसमें दरारें ला देता है पर जब छतनार पेड़ों की आड़ में होने के कारण तीखी धूप सड़क पर आएगी ही नहीं तो उसका भला क्या बिगड़ेगा। दूसरी तरफ यूकेलिप्टस न तो बारिश रोक पाते हैं न धूप तो उन्हें लगाने का कोई मतलब नहीं होता। वृक्ष राजमार्गों की शोभा भी बढ़ाते हैं और उन्हें सुरक्षा भी प्रदान करते हैं।
शंभूनाथ शुक्ल