- उठता जीवन स्तर, गिरते नैतिक मूल्य – विचारणीय विषय
Aaj Samaj (आज समाज),Principal Pratima Sharma, पानीपत : एक तरफ आधुनिक भौतिकवादी समाज में मानव सभी क्षेत्रों में तीव्रगामी होता जा रहा है, वहीं दूसरी और मानव का एक पहलू ऐसा भी है जो निरंतर अधोगामी होता जा रहा है। वह पहलू है नैतिकता का। नैतिकता मानव का वो आभूषण है जो उसे मानव होने का एहसास कराती है। लेकिन आज नैतिकता का आभूषण कहीं खो गया है, तभी आज मानवता भी खोती जा रही है। आज ईमानदारी को मूर्खता, करुणा को कमज़ोरी, सबके भले की भावना को फालतू बात व भाईचारे को ढोंग माना जाता है। इसका कारण है कि आज मानव का ध्येय है उन्नति, प्रगति और आगे बढ़ना जिसका एकमात्र मापदंड है-पैसा। उक्त विचार जीटी रोड स्थित राजकीय मॉडल संस्कृति सी.से. स्कूल की प्रधानाचार्या प्रतिमा शर्मा ने ‘उठता जीवन स्तर, गिरते नैतिक मूल्य’ विषय पर संबोधित करते हुए कहे।
माता -पिता के पास बच्चों को संस्कार देने का वक्त ही नहीं
प्रधानाचार्या प्रतिमा शर्मा ने कहा कि धन-संपत्ति को केंद्र में रखने वाला व्यक्ति न प्रेम को महत्व देता है और ना ही भाईचारे को। आज धन कमाने में लोग इतने व्यस्त हैं कि अपने बच्चों को संस्कार देने का उनके पास वक्त नहीं है। वे सफलता के लिए नकल चोरी सब सहन कर रहे हैं। इस डिजिटल युग में इन नैतिक मूल्यों का ह्रास भी डिजिटल होता जा रहा है। साइबर अपराध इसका सर्वोचित उदाहरण हो सकता है। नैतिक मूल्यों का प्रभाव हमारे समस्त क्रियाकलापों पर होता है। अपने प्रस्फुटन, उन्नयन व क्रियान्वयन से यह क्रमशः अंतयक्तिक, सामाजिक व सार्वभौमिक होते जाते हैं।
नैतिक मूल्यों के पतन के लिए कौन जिम्मेदार
युगों पूर्व “वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ जैसे आदर्श मानक स्थापित करने वाले भारत देश में नैतिक मूल्यों के हास की स्थिति अकल्पनीय है। विचार इस बात पर हो कि इन नैतिक मूल्यों के पतन के लिए कौन जिम्मेदार है। इस सवाल का जवाब गूढ नहीं है। आज असंतोष, अलगाव, उपद्रव, असमानता, असामंजस्य, अराजकता, आदर्श विहीनता, हिंसा और अपराध से समाज घिरा हुआ है। इन समस्याओं के मूल में उत्तरदायी कारण है मनुष्य का नैतिक और चारित्रिक पतन, नैतिक मूल्यों का क्षय एवं अवमूल्यन। मानव अपने निहित स्वार्थों के लिए जब गिरने लगता है, तो यह गिरावट उसे पाताल से भी नीचे गिरा देती है।
संयुक्त परिवार प्रथा लुप्त हो गई
आज संयुक्त परिवार प्रथा लुप्त हो गई है। संयुक्त परिवार से जो सामाजिकता और संस्कार बच्चो को मिलता था वह आज एकल परिवार में संभव नहीं हो या रहा है। जीवन यापन की भाग दौड़ भरी जिन्दगी मे माता-पिता के पास समय नहीं है कि वे अपने बच्चों पर ध्यान दे पाएं और उन्हें अच्छे संस्कार दे सकें। आज से 20-30 साल पहले, छोटे बच्चे खुले आम देर रात तक बाहर खेलते थे। समाज में संयम और परस्पर सहायता के भाव थे।
मनोरंजन के नाम पर परोसी जा रही गंदगी को बंद करने की मांग क्यों नहीं करते ?
आज इंटरनेट और सिनेमा से मन भड़काने वाले वीडियो, अश्लीलता की हद पार करने वाले दृश्यों ने सामाजिक मूल्यों के पतन में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अश्लील और फूहड़ सामग्री का कुप्रभाव समाज पर, विशेषकर बच्चों के बाल मन पड रहा है। सीखने की उम्र में सही दिशा, सही परिवेश मिलना चाहिए, मगर हम चुप रह कर इस नैतिक और चारित्रिक पतन को अपनी मौन स्वीकृति दे रहे हैं। हम मनोरंजन के नाम पर परोसी जा रही गंदगी को बंद करने की मांग क्यों नहीं करते ?
लोग अपनों से दूर और गैरों के करीब होते जा रहे है
सोशल मीडिया भी इसके लिए जिम्मेदार है। लोग अपनों से दूर और गैरों के करीब होते जा रहे है सामाजिक बदलावों ने लोगों को अकेला और उपेक्षित किया है। सांप्रदायिक सौहार्द से लेकर पारिवारिक और भावनात्मक लगाव तक खत्म हो गए हैं। एक ही समाज में विभिन्न कालों मे नैतिक संहिता भी बदल जाती है, जिसके आधार पर सत्य-असत्य, अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित का निर्णय किया जाता है और यह विवेक के बल से संचालित होता है।
नैतिकता से सामाजिक जीवन सुगम बनता है
नैतिकता के पर ही मनुष्य जानवर नहीं मनुष्य कहलाता है। नैतिकता से सामाजिक जीवन सुगम बनता है और समाज में अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रहता है। मानवीय भावनाओं जैसे विश्व बंधुत्व, मानवतावाद, समता, भाव, और प्रेम और त्याग जैसे नैतिक गुणों के अभाव में विश्व शांति, अंतरराष्ट्रीय सहयोग, मैत्री आदि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए परिवेश में परिवर्तन अपेक्षित है राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत- भारती में मर्मान्तक वेदना अनुभव करते हुए लिखा- “हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी। आओ विचारे आज मिलकर, ये समस्याएं सभी।”