सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रह चुके मार्कंडेय काटजू ने इस चुनाव पर टिप्पणी करते लिखा कि अधिकतर लोगों के लिए गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, कुपोषण, भ्रष्टाचार और बदहाल स्वास्थ एवं शिक्षा व्यवस्था मुद्दा नहीं हैं बल्कि जाति और धर्म हैं। उनकी बात अक्षशः सत्य है। बिहार पिछले तीन दशक से बदहाली का शिकार है। इस दौरान सबसे अधिक समय तक सत्ता नितिश कुमार की अगुआई में जदयू और भाजपा के हाथों में रही। सत्ता के इस काल को यह लोग सुशासन कहते हैं मगर बिहार की हालत यह है कि इस दौरान बिहार में न कोई उद्योग लगा और न कोई विश्वविद्यालय बना। न कोई बड़ा अस्पताल और न कोई विद्यालय ही मिला। शिक्षा और समृद्धि के लिए पहचान बनाने वाले बिहार की पहचान अब मजदूरों से होने लगी है। इसे बीमारू राज्य बना दिया गया। कोरोना काल में सड़कों पर चलते और भूख से मरते अधिकतर मजदूर बिहारी ही थे। बावजूद इसके, वहां के अधिकतर लोगों ने धर्म-जाति को महत्व दिया, शिक्षा-स्वास्थ और रोजगार को नहीं। वजह, विपक्षी दल जनता को यह यकीन नहीं दिला सके कि जदयू-भाजपा की सुशासन वाली सरकार असल में बदहाली वाली रही है, जो अगली पीढ़ी का भविष्य भी बरबाद कर देगी। निश्चित रूप से राजद को खुश होना चाहिए कि उसको न सिर्फ अपना नेता मिल गया है बल्कि वह सबसे अधिक जनाधार वाली सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। वहीं वामपंथी दलों के लिए खुशी का मौका है कि वह अपनी खोई जमीन हासिल करने की दिशा में आगे बढ़े हैं। सबसे बुरी गति कांग्रेस की हुई है। वह 70 सीटों पर लड़ने के बाद भी सिर्फ 19 सीटें जीत सकी। सीमांचल की 24 सीटों पर उसे बहुत भरोसा था मगर वहां के मुसलमानों ने ओवैसी को तरजीह दी। राहुल गांधी चुनावी सभाओं में जीडीपी, नोटबंदी और विकास की बातें करते रह गये मगर मतदाताओं को नहीं जोड़ पाये।
जदयू ढलती उम्र वाली पार्टी बनती दिखी, उसके नेता भाजपा की बैसाखी के सहारे के बाद भी सिर्फ 43 सीट जीत सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रणनीति के तहत नितिश को ही मुख्यमंत्री बनाने की बात दोहरा दी है। 2015 में नितिश जब राजद कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े थे, तब जेडीयू ने 71 सीटें हासिल की थीं। भाजपा की दया से नितिश एक बार फिर सीएम भले ही बन जायें मगर उनकी हैसियत रोबोट जैसी होना तय है। रिमोट उस मोदी के हाथ होगा, जिनको वह कभी देखना भी नहीं पसंद करते थे। वहीं कांग्रेस की हालत यह है कि न तो वह बिहार में कोई नेता पैदा कर सकी और न ही तेजस्वी के तेज को संभाल सकी। शरद यादव की बेटी हो या शत्रुघ्न सिन्हां का बेटा, कोई भी कांग्रेस का खाता नहीं खोल सके। उसके प्रत्याशी अपने बूते जीत हासिल करने के बजाय राजद की बैसाखी पकड़े नजर आये। सभी इसी उम्मीद में दिख रहे थे कि सत्ता विरोधी लहर का फायदा मिलेगा। वह मुस्लिम समुदाय को भी यह संदेश नहीं दे सके, कि वही उनके सच्चे हितैषी हैं। जिनके कारण कांग्रेस ने बहुत कुछ खोया है। इस समुदाय का यकीन हासिल न होने के कारण सीमांचल में बुरी हालत हुई। वहां के दो उदाहरण, एआईएमआईएम ने 55 फीसदी वोटों के साथ पूर्णिया की अमौर सीट 36 साल से कांग्रेस के विधायक अब्दुल जलील मस्तान से छीन ली। पिछले 16 साल से बहादुरगंज से कांग्रेस के विधायक रहे तौसीफ आलम को एआईएमआईएम के अंजार नईमी ने 47 फीसदी मतों के साथ शिकस्त दी। वजह साफ है, जमीनी हकीकत से दूर आरामतलबी, काहिली और रणनीति का अभाव कांग्रेस को इस हाल में ले आया है। हालात यह हैं कि जब भाजपा बिहार जीतने की रणनीति बना रही थी, तब कांग्रेस सिर्फ फिलॉसपी बता रही थी। जब काम करने की बारी थी, तब कांग्रेसी घरों में बैठे थे। कांग्रेस का हाथ गरीबों के साथ, का नारा सिर्फ नारा ही रह गया।
लॉकडाउन की आफत से कराहते बिहारियों के लिए कुछ न करने के बाद भी भाजपा नेता जोश में थे, क्योंकि उन्होंने अपने एजेंडे को किसी भी मुद्दे पर भारी बना दिया था। कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता अपने किये काम, भविष्य की योजनाओं को ही मतदाताओं को नहीं समझा पाये। भाजपा ने रणनीति के तहत प्रबंधन संभालने के लिए अपने तमाम राज्यों के नेताओं को बिहार में लगा दिया था। बिहार के नेताओं को जमीन पर काम करने के लिए मुक्त कर दिया था। सभी दल बिहार का चुनाव सिर्फ बिहार में लड़ रहे थे मगर भाजपा के नेता पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, दिल्ली और यूपी में भी लड़ रहे थे। इन राज्यों के भीतर भाजपा की प्रवासी टीमें बिहारियों से मिलकर उनके दुख-दर्द सांझा कर रही थीं। वह प्रवासियों से उनके गृह राज्य में फोन करवा रही थीं। अधिक प्रभाव रखने वालों को उनके गांव भेजा जा रहा था। हिंदू-मुस्लिम और जातिवादी नेताओं को भी गांव-मोहल्लों में प्रचार के लिए भेजाने का जिम्मा प्रदेशों की इकाइयों पर था। हर सीट के जातिगत गणित के मुताबिक वहां, उस जाति के कार्यकर्ताओं की फौज तैनात थी। स्थानीय पकड़ रखने वाले नेता अपने क्षेत्र में जमें थे। हमारे मित्र फिल्म सिटी बोर्ड, मुंबई के उपाध्यक्ष अमरजीत मिश्र और चंडीगढ़ भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष संजय टंडन, अपने खर्चे से बिहार में मतदान तक टीम के साथ डेरा डाले रहे। दूसरी तरफ, कांग्रेस तो इस स्तर तक सोच भी नहीं सकी। कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता घर में बैठे सोशल मीडिया पर कमेंट करके ही खुश होते रहे। उनकी कोई प्रबंधन टीम किसी राज्य से बिहार नहीं पहुंची। स्थानीय कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाने और हाथ बंटाने को कोई इंतजाम नहीं था। पहुंचे बड़े नेता, स्थानीय नेताओं से ही सेवा करवा रहे थे। नतीजा, कांग्रेस सबसे बड़ी लूजर बन गई।
भाजपा नेता बिहार चुनाव खत्म होने का इंतजार किये बिना ही पश्चिम बंगाल चुनाव के मोर्चे पर डट गये हैं। कांग्रेस सहित तमाम दल अभी बिहार के शोक से ही नहीं उबर पाये हैं। भाजपा की टीम पिछले एक साल से वहां जुटी हुई है। यही हाल रहा तो तय है कि इस बार पश्चिम बंगाल से कांग्रेस पूरी तरह साफ हो जाएगी। अभी भी वक्त है, कांग्रेस तत्काल चुनाव रणनीति बनाकर काम शुरू करें। बंगालियों को भरोसा दिलाये कि वही सच्चा विकल्प है। देश की सबसे पुरानी और आजादी दिलाने वाली कांग्रेस को बेहतर प्रबंधन और जमीनी रचनात्मक काम के जरिए ही बचाया जा सकता है।
जय हिंद!
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)