विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भीड़तंत्र में तब्दील हो गया है? इस वक्त यह सवाल मौजूं है। जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पड़पोते तुषार गांधी और तहसीन पूनावाला की याचिका पर सुनवाई करते टिप्पणी की थी “कोई नागरिक अपने आप में कानून नहीं बन सकता, लोकतंत्र में भीड़तंत्र को अनुमति नहीं दी जा सकती”। चीफ जस्टिस दीपक मिश्र ने यह भी कहा था “लोकतंत्र में भयावह कृत्यों को मानदंड बनने की अनुमति नहीं है। इसे सख्ती से दबाया जाना चाहिए”। इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ठ जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने यूपी राज्य बनाम मोहम्मद नईम मामले के फैसले में कहा था “पुलिस अपराधियों का संगठित गिरोह है”। मार्च में राज्यसभा सदस्य अब्दुल वहाब के सवाल पर जवाब देते हुए केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी ने संसद में बताया था कि 2015 से 2019 तक यूएपीए के तहत 5128 और देशद्रोह में 229 मामले दर्ज किये गये। हाल ही में बेंगलूरू की एक अदालत ने यूएपीए सहित एक दर्जन धाराओं में पांच साल पहले गिरफ्तार आटो चालक मोहम्मद हबीब को बेकसूर मानते हुए रिहा कर दिया। पुलिस ने उन्हें शक की बिनह पर आतंकी बताकर जेल में डाल दिया था। इस दरम्यान उनका पूरा परिवार बिखर गया। इसी तरह अक्तूबर 2013 को नरेंद्र मोदी की पटना रैली में हुए विस्फोट के मामले में एनआईए ने जिन 16 मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया था, उनमें 14 के खिलाफ कोई सबूत न होने पर अदालत ने छह माह बाद जमानत दे दी थी। एनआईए ने 11 के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल किया मगर अब तक अदालत में आरोप साबित नहीं कर सकी है।
हमें याद है कि 1990 के दशक में यूपी में जब कहीं कोई पगड़ीधारी सिख युवक दिखता था, तो लोग उसे आपसी चर्चा में आतंकवादी कहते थे। कमोबेश यही स्थिति अब मुस्लिम युवकों के मामले में है। कठुआ में जब मुस्लिम बच्ची के साथ हिंदूवादी सामूहिक बलात्कार करते हैं, तो चरमपंथी उसे झूठ साबित करने में लग जाते हैं। जब उनके समुदाय की बेटी के साथ छेड़छाड़ होती है, तो आसमान सिर पर उठा लेते हैं। ऐसी घटनाएं किसी भी जाति या समुदाय के साथ हों, घृणित हैं। अपराध को धर्मांधता के चश्में से नहीं देखा जाना चाहिए। हमें जालौन के विष्णु तिवारी का मामला भी याद है, निर्दोष होते हुए भी उसे दलित उत्पीड़न और बलात्कार के मामले में 20 साल जेल काटनी पड़ी। जब उसका जीवन बरबाद हो गया, तब वह जेल से छूटा। अब उसके पास जिल्लत के सिवाय कुछ नहीं बचा। न जांच अधिकारी जिम्मेदार, न आरोप पत्र को तस्दीक करने वाला थानेदार और न आरोप पत्र को अदालत में दाखिल करने की अनुमति देने वाला वरिष्ठ पुलिस अधिकारी। सरकार गूंगी बहरी है, जो न जनता की सुनती है और न उसके हक के लिए बोलती है। आपको सीएए और एनआरसी के खिलाफ हुए आंदोलन और देश के सबसे प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का छात्र आंदोलन याद होगा। इन आंदोलनों के दौरान तमाम छात्र-छात्राओं पर देशद्रोह के मुकदमें दर्ज किये गये। दर्जनों को यूएपीए के तहत जेल में भी डाल दिया गया। असम में अखिल गोगोई को बेवजह दो साल पहले यूएपीए में गिरफ्तार कर लिया गया था। एनआईए की विशेष अदालत ने अपने 58 पेज के फैसले में साफ किया, कि उनके खिलाफ कोई सबूत या तथ्य न होते हुए भी उन्हें मुलजिम क्यों बनाया गया? गोगोई भले ही जेल से छूट गये, और जेल में रहते हुए ही विधायक का चुनाव भी जीते मगर एक बेकसूर दो साल सलाखों के पीछे, देश के संगठित अपराधियों के गिरोह यानी पुलिस के खेल में पिसता रहा।
आपको दिल्ली के प्रायोजित दंगे को रोकने की कोशिश करने वाली जांबाज बेटियां नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और बेटा आशिफ तन्हां इकबाल याद होंगे, जिन्हें जबरन देशद्रोही बना कोरोना काल में जेल में डाल दिया गया था। इस गम में किसी ने अपने पिता को खोया तो किसी ने अन्य परिवारिक सदस्य। सर्वोच्च अदालतें हैं कि ऐसे लोगों की आवाज नहीं सुनतीं, वे तो सत्ता का मुंह ताकती हैं। विधि विहीन होती ऐसी अदालतें भी आपातकाल से कम नहीं हैं। अदालतों की भाषा और कार्यवाहियों में भी कई बार धर्मांधता दिखती है। श्रीनगर के मजीद भट की एक अफसर से अनबन हुई। पुलिस गैंग ने उन्हें दिल्ली से गिरफ्तार दिखा छह साल जेल में बंद रखा, जब बरी हुआ, तब तक बहुत कुछ खो चुका था। यूपी एसटीएफ ने आतंकी बताकर रामपुर से जावेद अहमद को उठाकर जेल भेज दिया। 11 साल जेल में काटने के बाद बरी हुआ मगर उसकी जिंदगी में कुछ नहीं बचा। पत्रकार सिद्दीक कप्पन हाथरस कांड में न्याय की लड़ाई लड़ने अपने तीन साथियों के साथ जा रहे थे। यूपी पुलिस ने इन युवाओं के हौसले तोड़ने के लिए यूएपीए लगा जेल में डाल दिया। वे सत्ता और पुलिस के गैंग से लड़ाई लड़ रहे हैं मगर इंसाफ का भरोसा रखते हैं। एक मुस्लिम बुजुर्ग से जबरन श्रीराम कहलवाने के मामले को उठाने पर पत्रकार अयूब राणा, शबा नकवी, जुबैर, कांग्रेस प्रवक्ता डॉ. शमा मोहम्मद, सलमान निजामी को इस बुजुर्ग का वीडियो ट्वीट करने पर देशद्रोह और आईटी एक्ट में मुकदमा दर्ज कर लिया गया। उनका कसूर यह था कि वे मुस्लिम हैं। वही पुलिस ने पीटीआई सहित देश के तमाम बड़े अखबारों पर कोई कार्रवाई नहीं की, जो उसी तथ्य की रिपोर्टिंग करते हैं।
चंद दिनों पहले लक्षद्वीप में कलाकार आयशा सुल्ताना के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया गया। उनका गुनाह यह था कि उन्होंने प्रशासक के तुगलकी फैसले का विरोध किया था। कश्मीर में सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले हजारों युवा पिछले दो साल से देश की तमाम जेलों में बेकसूर कैद हैं। अब यूपी चुनाव के पहले एक बार फिर धर्मांधता को गरमाने के लिए धर्मांतरण का शिगूफा छोड़ा गया है। पुलिस नित रोज नई कहानियां बना रही है। कुछ समय पहले ईसाइयों के लिए इसी तरह की कहानियां बनती थीं। हमारे देश का संविधान किसी को भी अपनी मर्जी से धर्म बदलने का पूरा अधिकार देता है। मूक बधिर बच्चे हों या बड़े, पुलिस मनमानी बयान लिखकर किसी को भी मुलजिम बना देती है। ऐसे पीड़ित अदालतों से भले ही बरी हो जाएं, मगर तब तक धर्मांधता को हथियार बनाने वाले सियासी दल फायदा उठा लेते हैं। 1990 के दशक से हमने देखा है कि यूपी पुलिस और केंद्रीय जांच एजेंसियों ने जिन्हें पाकिस्तान फंडेड गतिविधि बताकर जेल भेजा, उनमें 97 फीसदी आरोपी निर्दोष साबित हुए। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि वह धार्मिक कट्टरपंथ रोकने के लिए गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम 1967 में संशोधन करके कट्टरपंथ को नये सिरे से परिभाषित करने जा रहे हैं। हमारा संविधान हर किसी को अपनी धार्मिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है, फिर भी ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे हम धर्म युद्ध लड़ रहे हों?
दक्षिण एशिया धार्मिक कट्टरपंथ का केंद्र बन रहा है। यहां के देश लोकतांत्रिक प्रक्रिया में काम करते हैं। बहुसंख्यकों को साधने के लिए वहां के सियासी दल धर्मांधता को अपना हथियार बनाते हैं। यही वजह है कि अफगानिस्तान में तालिबान की तूती बोलती है, तो नेपाल में विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस के लोग पुनः हिंदू राष्ट्र को लेकर बवाल करते हैं। श्रीलंका में भी यह लोग सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश में हैं। बांग्लादेश और पाकिस्तान में मुस्लिम कट्टरपंथ हावी हो रहा है। हमारे देश में भी कट्टरपंथी अमन चैन के लिए खतरा बन रहे हैं। कहीं मोहर्रम के जुलूस पर, तो कहीं मस्जिद की अजान और गाय के नाम पर दंगे-फसाद, मॉब लिंचिंग होती है। हमारे देश में बीते कुछ सालों में धार्मिक कट्टरता के जो बीज बोये गये हैं, उनसे देश के युवाओं का भविष्य और विविधता में एकता खतरे में है। धर्मांधता से उपजी अराजकता ने हमारे उद्योग-व्यापार, व्यवसाय के साथ ही जनहित पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं और देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। यह भी सत्य है कि सभी धार्मिक कट्टरता के पोषकों में आपसी मित्रता होती है क्योंकि जब मुस्लिम कट्टरता सामने आती है, तो हिंदू वोट एक साथ आता है। जब हिंदू कट्टरता दिखती है, तो मुस्लिम एक साथ आते हैं। यही बात जातिवादी कट्टरता पर भी लागू होती है। यहीं से सियासी दलों का वोट बैंक बनता है। वे विकास को नहीं, जाति धर्म के कट्टरपन से सत्ता सुख भोगते हैं। इसके बदले में हमें धार्मिक कुंठित संतुष्टि के सिवाय कुछ हासिल नहीं होता है।
दक्षिण एशियाई देश, खासकर भारत गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन से बदतर हाल में हैं। वैश्विक आंकड़े भारत को हर क्षेत्र में शर्मसार करते हैं। उनसे लड़ने के बजाय हमारे सियासी दल और सत्ता धार्मिक कट्टरवाद में हमें धकेलकर जीवन को अंधकारमय बना रहे हैं। राज्य का काम धर्म चलाना नहीं बल्कि धार्मांधता से बचाकर आमजन को सुरक्षा देना है। जरूरी है कि हम चिंतन करें और जाति-धर्म के नाम पर जहर बोने वालों से सावधान रहें। हम धार्मांधता और जातिवाद का शिकार वोटबैंक न बनें। जब हम इसको समझेंगे, तभी हमारे बच्चों का भविष्य बचेगा।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं।)