Reality of Journalism | अक्षत मित्तल | कहीं दीवार पर उकेरी हुई चंद पंक्तियां देखी थीं। आज के परिवेश में वे तीर की तरह चुभती हैं लेकिन हम परिपक्व होते हैं और वह सत्य लगने लगती हैं। 8 साल पहले जब पहली बार मुझे “प्रेस” में आने का ख्याल आया था तो क्रांति लाने का भी ख्याल आया था।
दिल्ली की ही एक संस्था में मेरे सीनियर ने मुझसे कुछ बातें कही थीं जो सच प्रतीत होती हैं। वह कहते थे कि “पत्रकारिता” के शुरूआती दिनों में सब पत्रकार बनने आते हैं लेकिन अंत में “मीडियाकर्मी” बनकर रह जाते हैं। क्रांति धरी रह जाती है और पेट की जरूरतें क्रांति की आग को बुझा देती हैं।
उस दौर की कई बातें याद भी नहीं लेकिन यह बात अब तक दिमाग में चस्पा है। उस समय मैंने उनसे कहा था कि “सर कोशिश रहेगी कि क्रांति की यह आग मेरे अंदर से ना बुझे।” वह बड़े खुश हुए लेकिन आज अफसोस कि वह इस दुनिया में नहीं हैं। मेरी कोशिश रहती है कि उनसे किया वादा जरूर निभाऊं।
मैंने इस लेख की शुरूआत में कुछ पक्तियों का जिक्र किया था। ये लफ्ज “लोकतंत्र में डरा हुआ पत्रकार, एक मरा हुआ नागरिक पैदा करता है” मेरे दिमाग और दिल पर चस्पा हैं। मीडिया की पढ़ाई के समय पढ़ते थे मीडिया एथिक्स के बारे में लेकिन अफसोस यह फील्ड में काम नहीं आते।
पढ़ते थे मीडिया का काम ‘वॉचडॉग’ का होता है लेकिन असलियत इससे परे निकली। जीवन में कुछ बहुत अच्छे संपादकों संग काम किया। कुछ बागी रहे भी लेकिन कुछ के मन की क्रांति, पेट की जरूरतों के सामने घुटने टेकती दिखाई दी।
मैं एक चीज पर अब तक अडिग हूं और वह यह है कि अगर कभी मन का नहीं लिख पाया तो पेशा छोड़ दूंगा। जरूरतें कम कर लूंगा और चकाचौंद की नौकरी से दूर सम्मान की दो रोटी खाने निकल जाऊंगा। भगवान की दया कहें या मेरी किस्मत- आज तक कभी बाध्य होकर लेखनी नहीं की।
सम्मान बरकरार रहा तो मीडिया में हम भी बरकरार हैं। अपने पेशे के बारे में लिखने से पहले मन में डर आया कि लोग गाली देंगे लेकिन फिर लगा लिखना जरूरी है। अगर डर है तो पत्रकारिता कैसी। कई बार लेखों पर गाली खाने के बाद अब उनसे उतना डर नहीं लगता। एक ऐसा “पत्रकार” जो लेखन को अपना सब कुछ मानता हो उसके लिए गाली और प्रशंसा समान अवस्था बन जाती है। हर फीडबैक बेहतर करने की प्रेरणा देता है।
इस लेख की शुरूआत एक शीर्षक से हुई थी। “पत्रकार” बनाम “मीडियाकर्मी”, अब इस पर कुछ विचार रख देता हूं। पत्रकार और मीडियाकर्मी में बहुत अंतर है। उदाहरण के लिए सरकार कोई योजना लाई और इसकी जानकारी आपको देने वाला एक “मीडियाकर्मी” है लेकिन इसके पीछे की मंशा और इसका आपके जीवन में क्या असर पड़ेगा और उसे लाने के पीछे सरकार का क्या हित है, उसका विश्लेषण करने वाला एक “पत्रकार” है।
अगर कोई हादसा हुआ है तो उसकी खबर आपको देना “मीडियाकर्मी” का काम है लेकिन उसके जिम्मेदारों को सवालों के कटघरे में “पत्रकार” खड़ा करता है। “पत्रकार” का काम सरकार की तारीफ करना नहीं बल्कि एक कुशल आलोचक बनकर उससे सवाल पूछने का है। “मीडियाकर्मी” पर यह बाध्यताएं लागू नहीं होतीं।
मैं भी इस बात से सहमत हूं कि एक पत्रकार को सत्ता का “स्थाई” विपक्ष होना चाहिए। सरकार किसी की भी हो लेकिन अंकुश लगाना लोकतंत्र में “पत्रकार” का काम है। “मीडियाकर्मी” खुद को इस बाध्यता से परे मान सकते हैं। टीवी मीडिया और सोशल मीडिया के दौर में खबरों की भरमार है।
टीवी पर द्वंद दिखता है और सोशल मीडिया की बात ना ही हो तो अच्छा है। लोग एक दिखावटी जीवन जीते नजर आते हैं। टीवी पर पहले कुछ “पत्रकार” नजर आते थे, आज भी कुछ आते हैं लेकिन कुछ ने गंद मचाकर रखी है। लिखना तो कुछ और भी है लेकिन वह कई नोटिसों को दावत दे सकता है। उस पर टिप्पणी ना ही करना, फिलहाल के लिए बेहतर है।
खैर, आज भी “पत्रकार” हैं। उन्होंने जीवित रखा है उस विरासत को जो पंडित जुगल किशोर शुक्ल से हमें मिली। उन्होंने जीवित रखा है आदर्श और गैर-लाभकारी पत्रकारिता के उस मूल्य को जो गणेश शंकर विद्यार्थी से हमें मिले। उन्होंने जलाए रखी है वो मिसाल जो महात्मा गांधी, गोपाल कृष्ण गोखले और लाला लाजपत राय ने हमें दी थी। खुशी इस बात की है कि यह पेशा बेहतरीन है, बस हिम्मतदारों की थोड़ी कमी हो गई है।
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