हाल ही में राजनीतिक क्षेत्र में यह मुद्दा जोरों से उछला है कि अमेरिका और अन्य देशों की तरह भारत में भी फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म का राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया गया. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के ऐसे इस्तेमाल को लेकर देश के प्रमुख राजनीतिक दलों के बीच आरोप प्रत्यारोप का लंबा सिलसिला चला है और फेसबुक के जिम्मेदार अधिकारियों को संसदीय समिति के सामने पेश होकर सफाई तक देनी पड़ी है. लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता कि फेसबुक जैसा ही मामला भारत के अपने मुख्य मीडिया का भी है. वह भी वास्तविक सूचना और जानकारी का वाहक बनने के बजाय, एक ओर जहां भ्रामक सूचनाओं के जरिये जनमानस को प्रभावित कर रहा है वहीं परोक्ष रूप से ऐसी सूचनाओं को राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल कर सकने लायक परिस्थितियों के निर्माण में भी सहायक बन रहा है. जब हम विदेशी प्लेटफॉर्म को ऐसी स्थितियां निर्मित करने के लिए जवाबदेह मानकर उससे जवाबतलब करते हैं तो क्या हमारे खुद के मीडिया से इस तरह का कोई जवाबतलब नहीं किया जाना चाहिए?
जाने माने मीडिया विश्लेषक गिरीश उपाध्याय का कहना है कि यह बात सिर्फ इसी मामले पर लागू नहीं होती. यह पूरे मीडिया पर और मीडिया के जरिये स्वस्थ सामाजिक वातावरण को लांछित या दूषित करने तक पहुंचती है. जिस तरह एक चैनल एक खास समुदाय को टारगेट करते हुए कार्यक्रम बनाता है उसी तरह कई अन्य मीडिया प्लेटफॉर्म अपराध या अन्य घटनाओं को अपने हिसाब से अलग अलग रंग देकर प्रस्तुत करते हुए न्याय व्यवस्था और सामाजिक तानेबाने को तार तार करने में लगे हैं. किसी भी अपराधिक घटना को लेकर हमारे यहां कानून कायदे बहुत साफ हैं. अपराध होने पर मामला दर्ज करने, उसकी जांच करने, फिर मामला कोर्ट में प्रस्तुत करने और कोर्ट में सुनवाई के बाद सजा देने या न देने का फैसला होता है. लेकिन इन सारी कानूनी और संविधानसम्मत प्रक्रियाओं से इतर एक समानांतर थाना, पुलिस और कोर्ट की व्यवस्था मीडिया द्वारा स्थापित कर दी गई है. अब पुलिस में मामला दर्ज होने से पहले मीडिया में दर्ज होता है, थाने में जांच के बजाय टीवी स्क्रीन पर जांच होती है और अदालत में फैसला आने के बजाय टीवी के परदे पर ही सजा भी सुना दी जाती है.
आश्चर्य इस बात का है कि जब यह सब हो रहा होता है तो सूचना प्रसारण मंत्रालय से लेकर न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन (एनबीए), प्रेस कौंसिल, एडिटर्स गिल्ड, प्रेस क्लब जैसी तमाम संस्थाएं लगभग मौन रहती हैं. कोई यह जहमत नहीं उठाता कि ऐसा करने वालों को उनकी हद दिखाई जाए. ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब इन संस्थाओं को इतना सब कुछ होने पर भी मौन ही रहना है तो इनके बने रहने का औचित्य ही क्या है?मीडिया और पत्रकारिता पर संकट की जब भी चर्चा होती है, अकसर आपातकाल का उदाहरण दिया जाता है. लेकिन वर्तमान स्थितियां आपातकाल से ज्यादा गंभीर दिखाई देती हैं. ऐसा इसलिये कि आपातकाल में तो खबरों और सूचनाओं को सेंसर करने का काम किया गया था. लेकिन आज तो खबरों और सूचनाओं को मनमाने ढंग से इफरात में प्रचारित और प्रसारित करके, उनका अपने हितों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. यह सूचनाओं को दबाने का नहीं बल्कि असूचना या भ्रामक सूचनाओं की बाढ लाकर सत्य और तथ्य को बहा ले जाने का मामला है.
कोरोना जैसी महामारी ने वैसे भी सूचनाओं के स्रोत काफी हद तक प्रभावित किए हैं. ऐसे में सूचना या खबर के संसार का इस तरह संक्रमित होना समाज के स्वास्थ्य पर बहुत बड़ा खतरा है. हमें याद रखना होगा कि सही सूचनाएं समाज के लिए प्राणवायु का काम करती हैं, जबकि गलत सूचनाएं सिगरेट के धुंए की तरह समाज के फेफड़ों में कैंसर का कारण बन सकती हैं. एक बार समाज के फेफड़ों में गलत सूचनाओं का जहर फैला तो उसे बचाना मुश्किल होगा, क्योंकि ऐसी स्थिति के लिए अभी तक कोई वेंटिलेटर भी नहीं बना है. बहरहाल, देखना यह है कि होता क्या है?