मुंशी प्रेमचंद की कहानी ईदगाह हर ईद पर याद आती है। हर ईद इस उम्मीद के साथ आती है कि कोई हामिद अपनी दादी के जलते हाथों की परवाह कर चिमटा लाएगा। इस बार ईद तो आई पर ईदगाहों पर मेले न लगे। कोरोना के चलते इस बार ईद की नमाज भी घर मैं अदा की गई। ऐसे में न ईदगाह पर मेला लगा न हामिद वहां जा सका। हां, इतना जरूर हुआ कि हामिद ने पूरे देश को मजबूत संदेश दिया। हामिद जैसे तमाम बच्चों ने आस पड़ोस के भूखे लोगों को खाना खिलाया और उन बच्चों को ईदी दी, जिन्हें कोरोना संकट के कारण इस बार ईदीमिलने की उम्मीद न थी। यह ईद जकात का संदेश लिए आई थी। देश में एकजुटता का भाव लिए आई ईद पर आय का दसांश दान करने संबधी भारतीय मूल भाव भी था और जकात सहेजे इस्लामी परंपरा भी। ईद मुबारक के संदेशों के साथ रमजान का पवित्र माह जकात और अमन की सौगात देकर विदा हुआ। कोरोना संकट के कारण चल रहे लॉकडाउन ने ईद पर परम्परागत उत्सवधर्मिता को घरों तक सीमित कर दिया था। इसको लेकर तमाम चचार्एं भी हो रही थी। कुछ कट्टरपंथियों को पूरी उम्मीद थी कि ईद पर लोग सड़कों पर उतरेंगे और जगह जगह लॉकडाउन का उल्लंघन होगा। देश में कोरोना की शुरूआत के बाद तब्लीगी जमात के क्रियाकलापों ने इस डर को और बढ़ाया था। इसके बादइस बार ईद पर जिस तरह से देश में सकारात्मक वातावरण का सृजन हुआ है, इससे देश की विभाजनकारी शक्तियों के मुंह पर भी तमाचा लगा है। जिस तरह से ईद के पहले माहौल बना कर इस दिन को चुनौती के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था, देश के सद्भाव ने ऐसा माहौल बनाने वालों के मुंह पर तमाचा जड़ा है। पूरे देश से ईद पर दान की खबरें आ रही हैं। देश के सामने आ रहे आर्थिक संकट को देखते हुए इस समय अर्थव्यवस्था के साथ कदमताल की जरूरत है और भारतीय दान परंपरा ही इस भाव को बचा सकती है। भारतीय परंपरा में अपनी आय का दसांश यानी दसवां हिस्सा दान करने की परंपरा है। इस्लाम इस मान्यता को जकात के रूप में अंगीकार करता है। इस बार ईद पर यह परम्परा और मजबूती से प्रभावी रूप लेती दिखी। रमजान के दौरान मुस्लिम युवाओं ने रमजान और ईद पर पैसे बचाकर बेसहारा लोगों की मदद की मुहिम चलायी। लोगों ने दिखाया कि सोशल मीडिया का सदुपयोग भी किया जा सकता है। यही कारण है कि इस बार रमजान और ईद मुबारक के संदेशे दान का आह्वान भीकर रहे थे।
आय का एक हिस्सा दान करने की यह परंपरा कोरोना संकट के समय खुलकर देखने को मिल रही है। कोरोना के दौरान करुणा का भाव सहेज कर देश भर में लोग एक दूसरे की मदद को आगे आए हैं। इसमें बच्चों तक दान का संस्कार भी पहुंचा है। लखनऊ में जिस तरह बच्चों ने अपनी गुल्लकों को तोड़कर कोरोना पीड़ितों की मदद की पहल की है, उससे स्पष्ट है कि अगली पीढ़ी जुड़ाव स्थापित कर रही है। कोरोना संकट के बीच रमजान के दौरान रोजा इफ्तार की तमाम दावतें नहीं हुई और पूरे देश में मुस्लिम समाज ने इफ्तार की दावतों पर खर्च होने वाला धन कोरोना पीड़ितों को दान करने की पहल की। लोगों ने बाकायदा अभियान चलाकर ईद पर नए कपड़े के स्थान पर मदद की गुहार तक की। जिस तरह लोगों ने पहले नवरात्र में घरों तक सीमित रहकर लॉकडाउन की शुचिता बनाए रखने में मदद की, उसी तरह रमजान के दौरान भी घरों के भीतर ही इबादत को स्वीकार किया गया। जिस तरह देशवासियों ने धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठकर संकट से निपटने को तरजीह दी है, उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। कोरोना हमें बहुत कुछ सिखा भी रहा है और संकट का सामना करने के साथ उसमें अवसर ढूंढने की राह भी दिखा रहा है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया इस समय दूसरे विश्व युद्ध के बाद के सबसे बड़े संकट से गुजर रही है। भारत में जिस तरह यह परेशानी द्रुत गति से बढ़ रही है वह स्थिति चिन्ताजनक है। इसका असर रोजी रोजगार से लेकर परिवार तक पड़ रहा है। ऐसे में जरूरी है कि हम सब मिलकर अपने आस पास भी पीड़ितों की पहचान करें और उन्हें हर संभव मदद पहुंचाएं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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