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Rajinikanth Award and Tamil Politics: रजनीकांत को अवॉर्ड और तमिल सियासत

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हर बात और हर काम में राजनीति अच्छी नहीं लगती। इस तरह के हालात को देखकर यह प्रतीत होता है कि सरकारों व पार्टियों का काम सिर्फ चुनाव जीतने के लिए प्रयास करना ही रह गया है। यदि इसी भाव से काम हो रहा है तो यह ठीक नहीं। आपको बता दें कि बीते दिनों केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने फिल्म अभिनेता रजनीकांत के लिए दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की जैसे ही घोषणा की, बंगाल और असम में मतदान का लाइव दिखा रहे न्यूज चैनल और वहां मौजूद विश्लेषकों में दो खेमे बन गये। एक इस घोषणा को राजनीतिक बता रहा था तो दूसरा इस पर राजनीति नहीं करने की सलाह दे रहा था। सबके सुर इस बात पर एक जैसे जरूर दिखे कि रजनीकांत को यह सम्मान मिलना ही चाहिए। सवाल सम्मान पर नहीं, सम्मान के राजनीतिक इस्तेमाल पर है। किसी हद तक यह सम्मान के अपमान से भी जुड़ा है। इसे समझना जरूरी है। यूं कहें कि रजनीकांत अवॉर्ड मिलना चाहिए, पर राजनीतिक लाभ के लिए नहीं। लेकिन यहां कुछ यही हो रहा है।
जानकार मानते हैं कि कोरोना ने अगर रजनीकांत को उनकी ढलती उम्र और उम्र पर हावी थकान का अहसास न कराया होता, तो रजनीकांत आज तमिलनाडु में वोट मांग रहे होते, अपनी उस पार्टी के लिए, जिसकी घोषणा से वे पीछे हट गये। राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि नयी पार्टी की घोषणा नहीं करने के पीछे बीजेपी-एआईएडीएमके गठबंधन है। सत्य हिन्दी में प्रेम कुमार ने कहा है कि केंद्र की सियासत में रजनीकांत की धमक की संभावनाएं भी जतायी जाती रही हैं। मगर, इन बातों को वक्त ही साबित कर पाएगा। फिलहाल सच यह है कि तमिलनाडु में 6 अप्रैल को वोट पड़ेंगे और उससे पांच दिन पहले रजनीकांत को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया गया है।
जरा सोचिए। जिस प्रेस कान्फ्रेन्स में केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की घोषणा करते हैं, उसी प्रेस कान्फ्रेन्स में वे बंगाल की राजनीति से जुड़े सवालों के जवाब भी देते हैं तथा ममता बनर्जी को बुरा-भला कहते हैं। ऐसा करते हुए एक मंत्री और एक बीजेपी नेता का फर्क या यूं कहें कि सरकार और सत्ताधारी पार्टी का फर्क मिटा रहे होते हैं। इसी मायने में यह पहचान पाना भी मुश्किल हो जाता है कि दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड की घोषणा एक मंत्री कर रहा है या फिर मंत्री वेषधारी सत्ताधारी दल बीजेपी का नेता। ऐसे में कह सकते हैं कि यह स्थिति 51 हस्तियों के नाम के आगे जुड़ने वाले दादा साहेब फाल्के के लिए भी कतई सम्मानजनक नहीं है।
रजनीकांत को दादा साहब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा के बाद बीजेपी के नेता यह कहते सुने जा सकते हैं कि हिम्मत है तो कांग्रेस या डीएमके विरोध करके दिखाएं। जाहिर है कि रजनीकांत के स्टारडम से टकराने के लिए बीजेपी अपने राजनीतिक विरोधियों को ललकार रही है। बीजेपी जानती है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए रजनीकांत के स्टारडम से टकराना आसान नहीं है। चुनाव के मौसम में तो ऐसा जोखिम कोई पार्टी ले ही नहीं सकती। रजनीकांत को सम्मानित करने का दंभ और इस सम्मान के बहाने रजनीकांत बनाम राजनीतिक दल की स्थिति तैयार करना ही इस घोषणा का निहितार्थ लगता है। स्वयं रजनीकांत भी नहीं चाहते होंगे कि उनको दिए जा रहे सम्मान पर किसी किस्म का सवाल उठे। ऐसे में केंद्र सरकार ने यह फिक्र क्यों नहीं की कि पश्चिम बंगाल और असम में मतदान के दिन और तमिलनाडु में मतदान से पांच दिन पहले फिल्म जगत का सर्वोच्च सम्मान देने की घोषणा से खुद दादा साहेब फाल्के सम्मान पर आंच आ सकती है! यहां तक कि सम्मानित होने वाले कलाकार भी इस फैसले से असहज हो सकते हैं!
यह सर्वविदित है कि रजनीकांत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के घोर प्रशंसक रहे हैं। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का उन्होंने समर्थन किया था और मोदी सरकार को इस बात के लिए बधाई भी दी थी। ये वही रजनीकांत हैं जिन्होंने नरेंद्र मोदी को श्रीकृष्ण और अमित शाह को अर्जुन बताया था। दादा साहेब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा के बाद पीएम मोदी ने जो ट्वीट किया है उसमें उन्होंने रजनीकांत के व्यक्तित्व की तारीफ भी कुछ उसी अंदाज में की है कि मानो वे खुद को श्रीकृष्ण कहे जाने का कर्ज उतार रहे हों। हालांकि दादा साहेब फाल्के मिलने पर रजनीकांत के लिए स्वाभाविक प्रतिक्रिया और उसमें अतिश्योक्ति कोई अपराध कतई नहीं है। मशहूर गायक भूपेन हजारिका और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न देने की घोषणा भी असम और बंगाल में होने वाले चुनाव और सियासत को ध्यान में रखकर की गयी थी। तब भी इन हस्तियों की योग्यता या पात्रता को लेकर सवाल नहीं उठे थे लेकिन जिन प्रदेशों में चुनाव प्रस्तावित हों सिर्फ उन्हें ध्यान में रखकर भारत रत्न तय किए जाएं, तो इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर चुप कैसे रहा जा सकता है।
आपको बता दें कि कमल हासन भी रजनीकांत की ही तरह प्रतिभावान कलाकार हैं। उन्होंने भी तमिलनाडु की राजनीति में कदम बढ़ाए, मगर रजनीकांत की ही तरह संकोच भी दिखाया। रजनीकांत-कमल हासन दोनों पद्म भूषण हैं। एक मोदी सरकार के आलोचक हैं तो दूसरे प्रिय। मोदी सरकार को एक प्रिय नहीं है तो दूसरा बेहद प्रिय है। एक से बीजेपी की राजनीतिक जरूरत पूरी नहीं होती है तो दूसरे से हो सकती है। क्या यही राजनीतिक उपयोगिता रजनीकांत को कमल हासन पर वरीयता नहीं दिला रही है? वैसे, दो कलाकारों के बीच इस किस्म की तुलना को जायज नहीं मानी जाती। लेकिन, जिस तरह से इन दोनों कलाकारों ने लगभग एक ही समय में फिल्म से आगे राजनीति में अपने कदम बढ़ाए और खुद को संयत भी रखा, उसे देखते हुए यह तुलना नजरअंदाज भी नहीं की जा सकती। खासकर तब जब एक को दादा साहेब फाल्के सम्मान दिया जा रहा हो और दूसरे को नहीं। तमिलनाडु की राजनीति में रजनीकांत की धमक है और उनके इशारे भर से प्रशंसक चुनावी सियासत का रुख मोड़ सकते हैं। रजनीकांत की इसी सियासी उपयोगिता का इस्तेमाल भाजपा करती दिख रही है। बहरहाल, यह कह सकते हैं कि हर बात में राजनीति ठीक नहीं। कभी कभार राजनीति से परे भी बातें और काम होना चाहिए।