- खुद सांसदों ने ही फंसाया है कई सीटों पर
Rajasthan Politics, अजीत मेंदोला, (आज समाज), जयपुर: राजस्थान में अगले महीने विधानसभा की सात सीटों पर होने वाले उप चुनाव में कांग्रेस फंसती हुई दिखाई दे रही है। फंसाने में बड़ा योगदान जीते हुए सांसदों ने दिया है। भाजपा ने जहां लोकसभा चुनाव में 11 सीटों पर हार से सबक लेकर इस बार प्रत्याशियों के चयन में कोताई नहीं बरती तो वहीं कांग्रेस में आपस में ही अपनों को टिकट दिलाने के चक्कर में खेला होता दिख रहा है।
झुंझुनू, दौसा और देवली—उनियारा सीट को यदि कांग्रेस जीतती है तो उसे बड़ा बोनस माना जाएगा। जहां तक बाकी चार सीटों का सवाल है तो उनमें सलूंबर और रामगढ़ में टककर बताई जा रही है। चौरासी और खींवसर में कांग्रेस के लिए कोई जमीन दिखाई नहीं दे रही है, क्योंकि क्षेत्रीय दलों को भाजपा कड़ी टक्कर दे रही है।
सात सीटों में परिणाम अगर गड़बड़ होंगे तो प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के लिए बड़ी परेशानी खड़ी हो जाएगी। पार्टी में उनके विरोधी उन्हें हटाने के लिए अभियान चला सकते हैं। हालांकि डोटासरा को राहुल गांधी ने सीधे दूसरी बार अध्यक्ष बनाया है, लेकिन कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का कुछ भी भरोसा नहीं होता कि कब क्या फैसला कर ले।
केंद्रीय नेतृत्व के सामने ही महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों के चुनाव बड़ी चुनौती बने हुए हैं। उत्तर प्रदेश के उप चुनावों में कांग्रेस ने हार के डर से पहले ही मैदान छोड़ दिया है। इसके बाद हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला राजस्थान में ही है और सीधे मुकाबले में कांग्रेस कम ही जीत पाती है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने रीजनल पार्टियों से गठबंधन करने के साथ सोशल इंजियरिंग कर अच्छा चुनाव लड़ा था। ऐसे में कांग्रेस ने 9 तो 2 सीट क्षेत्रीय पार्टियों ने जीती थी। अब उप चुनाव में सीधा मुकाबला है।
सीधा मुकाबला हुआ तो हरियाणा में भी हार गई कांग्रेस
हरियाणा में अभी हुए चुनाव में कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी से सीधे मुकाबले में हार गई। इस हार से भी कांग्रेस के मनोबल पर असर पड़ा है। कांग्रेसी हार से सबक नहीं लेते हैं। यह बात कई बार साबित हो चुकी है। राजस्थान का उप चुनाव कई लिहाज से महत्वपूर्ण है, लेकिन कांग्रेसी बाज नहीं आए। एक—एक सीट को देखें तो दौसा कांग्रेस जीत सकती थी, लेकिन सांसद मुरारीलाल मीणा की सिफारिश पर जो टिकट दिया गया उसको लेकर किस्से शुरू हो गए हैं। कांग्रेसियों से बात करो तो वह कहते हैं कि सेटिंग हो गई।
भाजपा में किरोड़ी लाल मीणा के हिसाब से टिकट मिला है। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के चलते ब्राह्मण वोट बीजेपी को मिलना तय है। इसलिए बीजेपी के लिए दौसा की सीट इस बार जीतती हुई नजर आ रही है। इसी तरह देवली—उनियारा में सांसद हरीश मीणा ने टिकट ऐसा टिकट दिलवाया है, जो बहुत मजबूत नहीं माना जा रहा है।
हरीश मीणा पुलिस अफसर थे और फिर राजनीति में आए। कांग्रेस से टिकट नहीं मिला तो पहली बार भाजपा से सासंद बने, लेकिन मंत्री बनने की जल्दबाजी में बिना सोचे—समझे दल—बदल लिया। कांग्रेस में विधायक तो बन गए थे, लेकिन मंत्री यहां भी नहीं बने। अब फिर वापस सांसद जरूर बन गए हैं। इन 10 साल में हरीश मीणा राजनीति जरूर सीख गए। इसलिए अपने करीबी को टिकट दिलवाने में सफल रहे। ऐसे में प्रत्याशी को जितवा दिया तो फिर और मजबूत हो जाएंगे।
झुंझुनूं मानी जाती है ओला परिवार की सीट, अब असली परीक्षा
जहां तक झुंझुनूं का सवाल है तो यह ओला परिवार की पारंपरिक सीट मानी जाती रही है। जानकार कह रहे हैं कि भाजपा ने प्रबंधन कर जिस तरह टिकट बांटे हैं, उसमें झुंझुनूं की राह कांग्रेस के लिए कठिन हो गई है। कांग्रेस की यह मुश्किल निर्दलीय प्रत्याशी राजेंद्र गुढ़ा और दो मुस्लिम प्रत्याशियों ने बढ़ाई है। सासंद बृजेंद्र ओला अपने बेटे अमित ओला को जिताने के लिए जो रणनीति अपनाते है, वह कितनी सफल होगी यह तो परिणाम के दिन ही पता चलेगी। इधर, कांग्रेस के लिहाज से चौरासी पर चर्चा का कोई मतलब नहीं है।
यहां भारत आदिवासी पार्टी बहुत मजबूत दिख रही है। रामगढ़ में सहानुभूति के चलते कांग्रेस प्रत्याशी आर्यन जुबेर खान टक्कर देते दिख रहे हैं, लेकिन पूरी संभावना है कि चुनाव का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा। इस ध्रुवीकरण में कांग्रेस फंस सकती है। वैसे भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ का दिया नारा ‘बटोगे तो कटोगे’ इस समय टॉप पर है। संघ ने भी मोहर लगा दी। महाराष्ट्र और झारखंड में योगी का दिया नारा जमकर चलेगा तो ऐसे में राजस्थान अछूता नहीं रहेगा।
हनुमान बेनीवाल को झटका देने की कोशिश में है भाजपा
इस बार भी खींवसर में कांग्रेस लड़ाई में नहीं है। वहां पर भाजपा इस बार हनुमान बेनीवाल की पार्टी को झटका दे सकती है। सलूंबर में जरूर कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर है। लेकिन कांग्रेसी आपसी लड़ाई से बाज आते नहीं है, उनकी रुचि अपनों को जिताने से ज्यादा हराने में रहती है। ऐसे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी।
राजस्थान और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को गैरों ने नहीं अपनों ने हराने में ताकत लगाई थी। जिसका खामियाजा कांग्रेस भुगत रही है और आगे भी भुगतेगी, लेकिन हार का ठीकरा तो फोड़ने को लेकर कांग्रेसी जरूर सक्रिय होंगे। ऐसे में कई नेताओं की नजर प्रदेश अध्यक्ष पद पर लगी हुई है।
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