Pushpam Priya is the heroine of politics’s new Peepli Live! राजनीति की नई ह्णपिपली लाइवह्ण की नायिका हैं पुष्पम प्रिया!

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14 फरवरी, 2019 को एक नई मलयालम फिल्म आई थी, ह्यऔरू अदार लवह्ण बाद में इस फिल्म को तेलुगू, तमिल और कन्नड़ में भी डब किया गया. जाहिर है फिल्म सुपर हिट हुई लेकिन यह फिल्म पूरे देश में एक खास वजह से चर्चा में रही. फिल्म की सहनायिका प्रिया प्रकाश वरियर की आंखें मारती एक वीडियो वायरल हुई. इस वीडियो का असर भारतीय संसद के भीतर भी दिखा जब कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी को उसी स्टाइल में आंखें मारी थी. आज एकबार फिर उसी स्टाइल से मिलता-जुलता बिहार की राजनीति(या कहें देश की राजनीति में) में दूसरी प्रिया का इन्ट्री हुआ है- नाम है पुष्पम प्रिया चौधरी. मीडिया को मिली शुरूआती जानकारी के अनुसार मूल रूप से दरभंगा, बिहार की रहने वाली यह मोहतरमाजदयू के पूर्व एमएलसी विनोद चौधरी की सुपुत्री हैं जो फिलवक्त लंदन में निवास करती हैं. उनकीदावों पर यकीन करें तो विश्व के ख्यातिप्राप्त कई संस्थाओं से शिक्षा अर्जित करने के बाद इस युवा नेत्री ने बिहार बदलने की ठानी है. काबिलेतारीफ है इनकी यह घोषणा. इस उम्र में जब कोई भी युवक-युवती जीवन के रंगों का आनंद लेना चाहता है, उन्मुक्त जीवन जीना चाहता है, पुष्पम प्रिया ने बिहार को बदलने का बीड़ा उठाया है और निशाने पर रखा है बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी को.
तो क्या वास्तव में बिहार या देश की राजनीति में इन्ट्री और सीधी दावेदारी केवल मुख्यमंत्री पद की, इतना आसान है. यह कई मूल प्रश्नों को जन्म देता है. पिछले एक दशक से देश की राजनीति का मूल मिजाज बदला है. देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां जमीनी स्तर पर काम करने की प्राथमिकता छोड़ कर किसी आसान हथकंडे को अपनाते हुए सत्ता हासिल करने की कोशिश करती हैं. पार्टियों में संगठन के नाम पर व्यक्ति या परिवार विशेष पर बल दिया जाना परम्परा सी बन गई है. यह बातें राष्ट्रीय पार्टियों के साथ-साथ क्षेत्रीय पार्टियों पर भी लागू होती है. पार्टी और उनके नेताओं के पास किसी भी दृष्टि का अभाव होना कोई नई बात नहीं है. नेता, नीयत और नारों की जगह मतदाताओं को सीधे, सस्ते और सटीक तरीके से कैसे रिझाया जा सकता है, इस पर काम किया जाता है. जाहिर है, इसके लिए प्रोफेशनल हायर किए जाते हैं और पार्टियों की पूरी व्यवस्था कॉरपोरेट स्टाइल में काम करने में जुट जाती है. यह पूरी प्रक्रिया उसकी खुद की जमीन से दूर कागजों या यूं कहें नए गजेट्स में सिमट जाती है. कुल मिलाकर राजनीति की यह पूरी कवायद वास्तविकता की सफेद-स्याह से दूर होकर रंगीन हो जाती है. नतीजा होता है कि सत्ता मिलने के बाद भी नेता जब रहनुमा की भूमिका में आते हैं तो उनकी योजनाओं में जमीनी हकीकत का अभाव होता है. मतदाताओं और सत्तासीन नेताओं के बीच दीर्घकालिक योजनाओं की जगह उनके बीच लेन-देन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है. राजकीय कोष का इस्तेमाल स्थायी विकासशील योजनाओं की जगह तात्कालिक लाभ उठाने वाली बेकार की योजनाएं ले लेती है. इसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना होता है. आखिर क्या कारण है कि आजादी के बाद के 3-4 दशक को छोड़ दें तो देश में कोई भी बड़ा औद्योगिक केन्द्र सरकार की ओर से नहीं खड़ा किया जा सका है. देश में खड़े किए गए कई रिफायनरी केन्द्र, उर्वरक की फैक्टरी, दर्जनों स्टील प्लांट या फिर कोई दूसरा एचईसी क्यों नहीं खड़ा किया जा सका. क्या हमारी आवश्यकता कम हो गई या फिर बेरोजगारों को रोजगार की जरूरत नहीं रही. सच्चाई इसकी उलट है. चुनाव जीतने से लेकर सरकार बनाने और शासन करने की प्राथमिकताओं में भारी बदलाव देखा जा रहा है. यह मूल रूप से हमारी राजकोषीय धन का बेजा इस्तेमाल है.
जाहिर है, जब वर्षों से तपी-तपायी पार्टियां अपनी मूल लाइन से भटकर नई आधुनिक लाइन अख्तियार करती है तो इसका असर कई जगह दिखने को मिलता है. बिहार में इसी साल नवम्बर में विधानसभा का चुनाव होना है. इसके लिए मोटे तौर पर चुनावी बाजार अब सजने लगी हैं. कई तरह की नई पैंकिग के साथ नए-नए उत्पाद चुनावी बाजार में दस्तक देने लगे हैं. पुष्पम प्रिया चौधरी इसी राजनीतिक सोच से लवरेज उत्पाद की नई ब्रांड एम्बेसडर हैं. दावा है सबसे महंगे उत्पाद होने का और इसके लिए पूरी तैयारी कर ली गई है. पटना से प्रकाशित होने वाले तमाम दैनिक समाचार पत्रों में दो पन्नों में सबसे महंगे विज्ञापन के माध्यम से पुष्पम प्रिया चौधरी को राजनीति मार्केट में उतारने का एलान कर दिया गया है. अखबारी विज्ञापन के साथ-साथ पटना शहर के सभी कीमती चौक-चौराहों पर इनसे जुड़ीं शानदार होर्डिंग्स लग गई हैं. विज्ञापन में विशुद्ध रूप से केवल बिहार को नम्बर वन बनाने की बात की गई है मगर अंग्रेजी में. उनकी पार्टी का नाम प्लुरल्स है जिसका उच्चारण ही आम बिहारियों के लिए पहली चुनौती जान पड़ता है. लम्बे मगर सटीक शब्दों से सजे इनकी पार्टी का दावा है कि बिहार का अगला मुख्यमंत्री पुष्पम प्रिया होगी और जिनके हाथों में आलादिन का चिराग होगा जिसके जलते ही पिछड़ेपन जैसे अंधेरे से सूबे को राहत मिल जाएगी. यह सीधे तौर पर बिहार के मतदाताओं का एकतरह से अपमान है. पुष्पम प्रिया को इस बात का तनिक भी अहसास नहीं है कि हवा-हवाई कागजी वायदों से कुछ भी नहीं होना है. जमीन पर उतरकर जमीनी हकीकत को समझना होगा और जनता से सीधे संवाद करना होगा. मानता हूं कि प्रचार के आधुनिक हथकंडों की बड़ी भूमिका होती है लेकिन यह सिर्फ चुनावी भोजन को स्वादिष्ट बना सकता है, चुनावी भोजन और जीत का आवश्यक अवयव नहीं माना जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य देखिए, सभी मीडिया हाउस पुष्पम प्रिया के खुशफहमी को ह्यपिपली लाइवह्ण करने में जुट गए हैं. अब देखना दिलचस्प होगा कि इस ह्यपिपली लाइवह्ण का अंत कैसा होता है या वास्तव में यह गरीबी और तंगी झेलते बिहार के साथ एकऔर मजाक साबित होगा. फिलवक्त इंतजार करना होगा.

सुनील पांडेय
( लेखक एमिटी शिक्षण संस्थान से जुड़े हैं)