Punishment-a-death case: Supreme Court ready for hearing on petition related to the right of victims of Center: सजा-ए-मौत केस: केंद्र की पीड़ितों के हक से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तैयार

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नई दिल्ली। केंद्र सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि मौत की सजा के मामलों में पीड़ित और समाज केंद्रित दिशा निर्देश बनाए जाएं। केंद्र की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट विचार करने के लिए तैयार हो गया है। बता दें कि घृणित अपराध में संलिप्त लोगों के ”न्यायिक प्रक्रिया का मजाक” बनाने पर गौर करते हुए केंद्र ने 22 जनवरी को उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और ब्लैक वारंट जारी होने के बाद फांसी की सजा की समय सीमा सात दिन करने की मांग की। 2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले में चार दोषियों की फांसी की सजा में विलंब को देखते हुए केंद्र ने उच्चतम न्यायालय में यह अर्जी दायर की थी। प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने उन सभी पक्षकारों से जवाब मांगा है जिनकी याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने 2014 में दोषियों को मौत की सजा देने संबंधित दिशा निर्देश बनाए थे। पीठ में न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत भी शामिल रहे। 2014 में शत्रुघ्न चौहान मामले में दिशानिर्देश बनाए गए थे। पीठ ने स्पष्ट कर दिया कि केंद्र की याचिका पर सुनवाई करते हुए शत्रुघ्न मामले से संबंधित दोष सिद्धि और मौत की सजा का मुद्दा यथावत रहेगा। पीठ ने शत्रुघ्न चौहान मामले में नामित प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया। पीठ ने प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया जिन्हें शत्रुघ्न चौहान मामले में प्रतिवादी के तौर पर नामित किया गया था। इसने कहा, ‘नोटिस जारी किया जाए। पीड़ित केंद्रित और समाज केंद्रित दिशानिदेर्शों को देखते हुए यह अदालत मामले में दोष सिद्धि या सजा को नहीं बदलेगी।” केंद्र की तरफ से पेश हुए सोलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि भारत सरकार ने आवेदन देकर मौत की सजा के मामलों को दिशानिर्देश पीड़ित और समाज केंद्रित बनाने की मांग की है। उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने 2014 में शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत सरकार मामले में ऐसे दिशानिर्देश बनाए जो मौत की सजा के मामलों में आरोपी केंद्रित हैं। मेहता ने कहा कि मौत की सजा उन मामलों में दी जाती है जो अदालत की सामूहिक चेतना को झकझोर दें और इसलिए भारत सरकार अदालत से अपील करती है कि ऐसा दिशानिर्देश बनाएं जो पीड़ित और समाज केंद्रित हों और उसमें इस तरह की समय सीमा नहीं हो कि मौत की सजा पाए व्यक्ति को कब फांसी पर लटकाया जाएगा।