Public welfare state and our constitution: लोककल्याणकारी राज्य और हमारा संविधान

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हाल ही में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन से जुड़ी एक खबर अखबारों में दिखी, जिसमे वे यह कह रहे हैं कि झारखंड के स्कूल दिल्ली के स्कूलों से बेहतर होंगे। अरविंद केजरीवाल ने इस खबर पर हेमन्त सोरेन को ट्वीट कर के शुभकामनाएं दीं और इस स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के लिये बधाई भी। पंजाब के मुख्यमंत्री का एक बयान आया कि उनकी सरकार अब शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देगी। महाराष्ट्र सरकार ने दिल्ली सरकार से यह जानने के लिये एक अफसर को भेजा है कि कैसे दिल्ली सरकार ने अपने नागरिकों को 200 यूनिट बिजली मुफ्त देने की योजना को लागू किया है। यह सारी खबरें इसी हफ्ते की हैं। यह दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद जिस उत्साह से जनता ने पुन: केजरीवाल को चुना है उसी का प्रभाव है।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव में एक शब्द बड़ा उछला है फ्रीबी। यानी मुफ्तखोर। और यह बात उस जनता के लिये कही गयी है जो विपन्नता की सीमा के आसपास है। जो 200 यूनिट मुफ्त बिजली, एक सीमा तक मुफ्त पानी और मुफ्त बस की यात्रा से ही अपने कठिन बजट को कुछ हल्का कर के खुश हो लेती है। यह सारी सुविधाएं कम नहीं बल्कि और बढ़नी चाहिए। विपन्नता रेखा से नीचे और उसके आसपास के लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना चाहिए। यह एक कल्याणकारी राज्य का दायित्व है। अगर दिल्ली चुनाव, लोककल्याणकारी राज्य के मुद्दों को पुन: चुनावों के केंद्र में लाने में सफल होता है तो यह एक उपलब्धि ही होगी। लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा कोई पाश्चात्य अवधारणा नहीं है। यह सोच भारतीय सोच है और हमारे प्राचीन वांग्मय और असीमित रूप से फैली लोक गाथाओं में यह हर जगह एक उद्देश्य के रूप में विद्यमान है। ऋग्वेद से लेकर स्वामी विवेकानंद के प्रवचनों तक मे मानव कल्याण या लोक कल्याण की बात कही गयी है। हमारा राजतंत्र भी यूरोपीय राजतंत्र की अवधारणा के विपरीत लोककल्याणकारी राज्य की बात करता है। जनता को जनार्दन कहा गया है। प्रजा रंजक शासक को ही श्रेष्ठ शासक माना गया है। जनता केवल कर देने वाली भीड़ ही नहीं समझी गयी है बल्कि उसे राज्य से अपनी सुख सुविधा पाने का अधिकार भी प्राप्त रहा है। जिसके राज्य में प्रजा दुखी होती है उस राजा को नर्क में ही जगह मिलती है। तुलसीदास के रामचरित मानस की यह प्रसिद्ध चौपाई पढिये, ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।’ जहां इतनी उदार और उदात्त सोच से शासन तंत्र चलाने की अपेक्षा सरकार से की जाती रही हो, वहां आज जनता को सुविधा प्रदान करने की बात सोचना भी जब कुछ लोगों को मुफ्तखोरी लग रही है तो यह एक विडंबना ही है।
भारतीय संविधान भले ही गवर्नमेंट आॅफ इंडिया एक्ट 1935 पर आधारित हो पर जब इसकी ड्राफ्टिंग का काम शुरू किया गया तो हमारे संविधान निमार्ताओं ने जिनमे डॉ भीमराव आंबेडकर प्रमुख थे ने दुनियाभर के संविधानों का अध्ययन किया और भारत की सनातन बहुलतावादी परंपरा और सोच के अनुसार संविधान की ड्राफ्टिंग की। यह भी एक झूठ बार बार फैलाया जाता है कि देश का विभाजन, धर्म के आधार पर हुआ। यह अर्द्धसत्य है। अर्द्धसत्य कभी कभी झूठ से भी घातक होता है। देश का बंटवारा धर्म के ही आधार पर हुआ यह सत्य है और इसी के साथ यह भी सत्य है कि भारत ने अपनी आजादी, अपनी शासन व्यवस्था धर्म के आधार पर नहीं चुनी। वह उसी भारतीय बहुलतावाद के सोच पर चुनी जिसमे ऋग्वेद में ही संगच्छवदम ‘सबको साथ लेकर चलें’ की बात कही गयी है। ऋग्वैदिक काल से ही बहुलतावाद हमारी संस्कृति का मूल रहा है। तब भी धर्म और दर्शन की अनेक धारायें, उपधारायें विद्यमान थी। उनमे विवाद भी था। हो सकता है कुछ विवाद हिंसक भी हुए हों पर किसी भी विपरीत धारा को शत्रु समझ कर नहीं देखा गया। वैचारिक वाद विवाद में जो वाद सर्वकालिक, बहुस्वीकृत और तार्किक रूप से सजग रहे वे शेष रहे, शेष विलीन हो गए।
संविधान निमार्ताओं ने संविधान में ही दो महत्वपूर्ण भाग जोड़े हैं जो संविधान को मूलत: लोककल्याणकारी राज्य के स्वरूप की ओर ले जाते हैं। ये हैं, मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व। मौलिक अधिकार जहां नागरिकों को राज्य के प्रति कुछ विशिष्ट अधिकार प्रदान करते हैं, वहीं राज्य का भी दायित्व है कि वह मौलिक अधिकारों के प्रयोग हेतु ऐसा वातावरण बनाएं जिससे नागरिकों को मिले ये अधिकार बाधित न हो सकें। राज्य एक शक्तिशाली संस्था है। अपार और असीमित शक्ति किसी को भी मदमस्त और पथ से विचलित कर सकती है। राज्य या सरकार चलाने वाले लोग भी अनियंत्रित होकर बहक सकते हैं। तब तक दुनिया ने लोकतांत्रिक आवरण में छुपे फासिस्ट भेड़िये का असली रूप देख भी लिया था। हमारे दूरदर्शी संविधान निमार्ताओं ने इसीलिए, इन मौलिक अधिकारों के संरक्षण का दायित्व और अधिकार संविधान में ही सुप्रीम कोर्ट को सौंपा है। यह एक प्रकार का शक्ति पृथक्करण है, जो एक नियंत्रण और संतुलन बनाये रखता है। अब एक नजर मौलिक अधिकारों पर डालते हैं। मौलिक अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के जीवन के लिये मौलिक होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और जिनमें राज्य द्वारा हस्तक्षेप नही किया जा सकता। ये ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये आवश्यक हैं और जिनके बिना मनुष्य अपना पूर्ण विकास नही कर सकता। इन नीति निर्देशक तत्वों को देखें तो यह साफ है कि राज्य अपने उन नागरिकों को जो वंचित और आर्थिक रूप से अक्षम हैं, को अनेक जनहितकारी लाभदायक योजनाओं को चला कर उनका जीवन स्तर उठाने का निर्देश सरकार को देता है। जीवन स्तर उठाने, मूलभूत आर्थिक सुविधाओं को देने और राज्य द्वारा अपने नागरिकों को विभिन्न प्रकार की सहूलियत देना जनता की मुफ्तखोरी नहीं है और न ही जनता को निठल्ला और काहिल बनाना है। यह राज्य का दायित्व है। नीति निर्देशक तत्वों को बाध्यकारी इसलिए नही बनाया गया है कि यह सारे निर्देश राज्य की योजनाओं के क्रियान्वयन से ही फलीभूत हो सकते हैं। राज्य को इन योजनाओं को चलाने के लिये धन चाहिए और धन जनता से प्राप्त करों से ही प्राप्त किया जा सकता है। राज्य का यह दायित्व है कि वह कराधान और करव्य्य ऐसा बनाये जिससे इन नीति निर्देशक तत्वों के लक्ष्य पूर्ति हो सके और सामान्य जनता पर अधिक बोझ भी न पड़े। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजस्व और लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के बारे में भी बहुत कुछ कहा है। उन्होंने राजस्व यानी राज्य का भाग छठा हिस्सा रखा था। 2014 के बाद जैसे कई चीजें बदली है, उसी प्रकार एक अजीब परिवर्तन सरकार और जनता की सोच में आया है। सरकार की सोच में यह परिवर्तन आया है कि सभी सरकारी स्कूल, अस्पताल, फैक्ट्रियां, संस्थान बेकार हैं और उन्हें बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं है। और जनता की सोच में यह परिवर्तन आया है कि सरकार जो सोच समझ और कर रही है वही जनहित है। पर यह जनहित कैसे हैं यह न सरकार समझा पा रही है और न जनता सरकार से इसपर सवाल उठा रही है। आज सरकार लगभग सभी सरकारी कंपनियों को निजी क्षेत्र में दे दे रही है। हालांकि यह शुरूआत आज की नहीं है, बल्कि इस्की शुरूआत 1998 से जब एनडीए की सरकार बनी थी तभी हो गयी थी। पहले पूंजीवाद से प्रभावित प्रचार तंत्र ने जनता के मन मे यह विचार बिठाना शुरू किया कि सरकारी क्षेत्र का मतलब मुफ्तखोरी, आरामतलबी और लूट खसोट होता है । यह सारे रोग कुछ हद तक सरकारी तंत्र में थे और आज है भी तो उसका निदान, प्रबंधन या प्रशासन सुधार कर के करने के बजाय उसे औने पौने दाम पर बेच कर पूंजीपतियों को उपकृत करने का एक नया मार्ग तो कतई नहीं है। सरकार अगर कुप्रबंधन के कारण सरकारी कंपनियों को बेच दे तो यह भी तो सरकार की अकर्मण्यता ही हुयी। लेकिन इसे ही मास्टरस्ट्रोक कहा जा रहा है। इस प्रकार देश मे राजनेता, पूंजीपति और सरकारी अफसरों का जो अपवित्र गठबंधन विकसित हुआ उसने लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को ही नेपथ्य में धकेल दिया। लोकतंत्र में जनता महत्वपूर्ण है।

यह अब्राहम लिंकन की उस परिभाषा कि जनता के लिये जनता द्वारा और जनता का शासन होता है, के बहुत पहले से ही है। संविधान के मौलिक अधिकारों का उद्देश्य ही यह है कि जनता भयमुक्त रहे। भाजपा का पुराना नारा अगर आप को याद हो तो याद कीजिए एक उद्देश्य भयमुक्त समाज का भी रहा है। अब वह ध्येय नहीं रहा। अब समाज मे धर्म को भय का आधार बनाया जा रहा है। इस्लाम खतरे में है यह तो बहुत पुरानी बात हुयी अब तो उसी के नक़्शे कदम पर हिंदुत्व भी खतरे में आ गया। संगठित होना बुरा नही पर भय की प्रेरणा से संगठित होना हिंसक और आक्रामक बनाता है। यही हिंसक और आक्रामकता धर्म आधारित राज्य ( थियोक्रेसी ) का आधार औ? स्थायी भाव बनती है। संविधान निमार्ताओं को इन खतरों का आभास था। उन्होंने विश्व का सबसे दु:खद पलायन और धार्मिक दंगो का हिंसक रूप देखा था। यह सब देखते हुए भी वे कुछ कर नहीं पाए थे। अब वे एक ऐसा प्रगतिशील और पंथनिरपेक्ष भारत चाहते थे जो सर्वांगीण उन्नति करे। जनता निर्द्वंद और निडर होकर अपनी बात अपनी सरकार से कह सके इसीलिए इन मौलिक अधिकारों के रूप में उसे एक ऐसी शक्ति दी गयी है कि राज्य अगर निरंकुश होने की कोशिश भी करे तो जनता पूरी उर्जा से राज्य या सरकार के विरुद्ध खड़ी हो सकी। दूसरी तरफ राज्य को क्या करना है इसकी भी एक गाइडलाइन के रूप में नीति निर्देशक तत्व दे दिए गए हैं कि जनता राज्य को बेपटरी न होने दे। सस्ती शिक्षा, सुगम स्वास्थ्य, विपन्नता की सीमा से नीचे रहने वाले नागरिकों को राज्य की सहायता जिसे सब्सिडी कहते हैं, रोजगार के नए नए अवसरों की खोज, लोगों का जीवनस्तर बढ़े, इस हेतु किये जाने वाले सारे सरकारी उपाय राज्य के दायित्व हैं। यह मुफ्तखोरी नहीं है। बल्कि जनता के करों का जनता के हित मे व्यय न करके चंद पूंजीपति घरानों को दे देना सरकार की मुफ्तखोरी और जनता को उसके अधिकारों से वंचित करना है। अमीरों और गरीबो के बीच बढ़ती हुई खाई और उस खाई को मूर्खता की दीवाल से ढंक देना मुफ्तखोरी है। जनता के हित के बजाय एक ऐसी आर्थिकी का निर्माण करना जिसमे सब कुछ सिमट कर चंद पूंजीपतियों की मुट्ठी में सिमट जाय जिसे गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटैलिज्म कहते हैं मुफ्तखोरी औ? जनविरोधी अश्लीलता है। हमारी परंपराएं, इतिहास तथा संस्कृति में लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा राज्य की अवधारणा के ही समय से विकसित हुयी हैं। जनहित की योजनायें बनाना, उनका त्रुटिपूर्ण क्रियान्वयन करना, जनता का जीवनस्तर सुधारना, यह राज्य का मूल दायित्व और कर्तव्य है। जो भी सरकार जनविरोधी हो उसे पलट देना ही चाहिए। इसीलिए संविधान में चुनाव के विकल्प भी दिए गए हैं। यह जनता की अपेक्षा है न कि मुफ्तखोरी।

(लेखक सेवा निवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं।)