लोकसभा आम चुनाव के बाद कांग्रेस अचानक पुनर्जीवित हो चली है। सोनभद्र के उम्भा गांव में हुए आदिवासियों के सामूहिक नरसंहार कांड के बाद प्रियका गांधी वाड्रा की सक्रियता से कांग्रेस एक बार फिर चर्चा में हैं। मीडिया में विलुप्त कांग्रेस और प्रियंका गांधी पर बहस छिड़ गई है। बदले हालात में यह सवाल फिर सतह पर है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी क्या नया गुल खिला पाएंगी। रणछोड़ कर भागने वाले भाई राहुल गांधी के नेतृत्व की कमान क्या खुद संभालेंगी। सवाल तो बहुत हैं, लेकिन जबाब भविष्य की कोठरी में बंद है।
लेकिन सोनभ्रद कांड पर प्रियंका गांधी वाड्रा की अचानक सक्रियता ने राज्य की योगी आदित्यनाथ की सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। प्रियंका की तरफ से कानून-व्यवस्था पर उठाए गए सवाल लाजमी हैं। आधुनिक संदर्भ में आदिवासियों का नरसंहार हमारी सामंती सोच को दर्शाता है। उम्भा गांव की घटना मानवीयता को बेशर्म करने वाली है। जमीन हथियाने के लिए 10 आदिवासियों को गोलियों ने भून देना कानून-व्यवस्था पर बड़ा सवाल उठाता है। हालांकि इसके लिए हम सरकार को गुनाहगार नहीं ठहरा सकते, लेकिन स्थानीय प्रशासन इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार और जबाबदेह है।
घटना पर राजनैतिक दल खुल कर सियासी रोटियां सेकने में जुुट गए हैं। जिसकी वजह से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ रविवार को सोनभद्र पहुंच पीड़ितों से मुलाकात कर घटना के संबंध में जानकारी ली। घटना पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दीदी खुद बंगाल के हालात नहीं देखती। आदिवासी राजनीति को हवा देने के लिए टीएमसी सांसदों का दल सोनभद्र भेजती हैं। फिलहाल सोनभद्र नरसंहार जैसे जघन्य अपराध पर आदिवासी राजनीति की आड़ में उत्तर प्रदेश में खोई सियासी जमीन को तलाशन की प्रियंका की कवायद कितना कामयाब होगी, यह तो वक्त बताएगा।
मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की वापसी से ऐसा लगा था कि राहुल गांधी राजनैतिक रुप से परिपक्व हो चुके हैं। जिसकी वजह से तीनों राज्यों में वर्षों बाद कांग्रेस की वापसी हुई है। 2019 का लोकसभा चुनाव मोदी बनाम राहुल गांधी के बीच लड़ा गया, लेकिन राहुल गांधी वापसी नहीं कर पाए और कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई। फिर इसके बाद गोवा और कर्नाटक के साथ मुबंई में कांग्रेस विधायकों ने जिस तरह पाला बदला उससे यह साफ हो गया कि कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व का खालीपन एंव कुशल अधिनायकत्व के अभाव इसकी मूल है। राहुल गांधी पार्टी की हार के बाद खुद में बिखर गए और अपने राष्टÑीय अध्यक्ष पद के दायित्व से मुंहमोड़ लिया। हालांकि उनका यह फैसला कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता।
क्योंकि पार्टी जिस संकट के दौर से गुजर रही है उसमें खुद को संजोने के साथ कार्यकर्ताओं के मनोबल को बनाए रखने की आवश्यकता हैं। लेकिन राहुल गांधी उस जिम्मेदारी पर खरे नहीं उतर पाए। राहुल गांधी की यह सबसे बड़ी राजनैतिक भूल और कमजोरी कही जाएगी। यह समय की मांग है कि वह बहन प्रियंका को अपना गुरु मान लें। अब समय आ गया है जब कांग्रेस पार्टी में आम राय बनाकर प्रियंका गांधी वाड्रा के हाथों राष्टÑीय अध्यक्ष की कमान सौंप देनी चाहिए। प्रियंका को उत्तर प्रदेश तक सीमित करना उचित नहीं होगा। प्रियंका के अंदर परस्थितियों से लड़ने की अजब की क्षमता हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं को बांधने और तत्काल निर्णय लेने का साहस भी देखा गया है। सोनभद्र सामूहिक नरसंहार कांड के बाद जिस तरह प्रियंका सक्रिय हुई और पीड़ितों से मिलने के लिए डेरा कूच कर दिया। इसकी कल्पना किसी भी राजनैतिक दल को नहीं रही होगी कि डूबती कांग्रेस यूपी पर इतनी सक्रियता दिखा सकती है। प्रियंका की तेजी ने योगी सरकार को सांसत में डाल दिया।
मिर्जापुर प्रशासन ने प्रियंका को सोनभद्र के घोरावल के उम्भा गांव जाने से रोक दिया। लेकिन वह अडिग रही और अपनी बात पर अड़ी रही। प्रदेश के आला अधिकारी कानून-व्यवस्था का हवाला देकर उन्हें वापस लौटाना चाहते थे लेकिन उनकी रणनीति फेल हो गई। 26 घंटे की जद्दोजहद के बाद आखिरकार प्रशासन को झुकना पड़ा और घटना के पीड़ित परिजनों से मुलाकात करानी पड़ी। उन्होंने कहा भी कि उनका मकसद पूरा हो गया। राहुल गांधी ने ट्वीट कर आरोप लगाया कि चुनार किले की बिजली-पानी आपूर्ति को ठप कर दिया गया, लेकिन प्रियंका पराजित नहीं हुई। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस आरोप का भी जबाब दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि उम्भा गांव में हुई घटना की नींव 1955 में पड़ गई थी।
जिस पर प्रियंका ने पलटवार किया कि मुख्यमंत्री आप हैं। घटना आपकी सरकार में हो रही है और 1955 की कांग्रेस सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं। आप मुख्मंत्री हैं और अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोप रहे हैं। प्रियंका का त्वरित दौरा सरकार सियासी गलियारों में जहां हलचल पैदा कर दिया वहीं राज्य की कानून-व्यवस्था को कटघरे में भी खड़ा किया। प्रियंका गांधी दोबारा उम्भा गांव का दौरा कर सकती हैं। मीडिया में भी खबरें आई हैं कि वह पार्टी की तरफ से घोषित 10 लाख की सहायता राशि पीड़ित परिवारों को देंगी। प्रियंका की इस अलग किस्म की पहल से कार्यकर्ताओं में भी उम्मीद जगी है। दूसरी तरफ पार्टी सोनभ्रद की घटना को आधार बना उत्तर प्रदेश में खोए जनाधार को पुनर्स्थापित करना चाहती है। यूपी की राजनीतिक में प्रियंका की इस सक्रियता ने नई बहस छेड़ दी हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं में नया जोश आ गया है। लेकिन प्रियंका इस तरह की सक्रियता से मीडिया की सुर्खियां तो बटोर सकती हैं, लेकिन पार्टी और संगठन को कितना खड़ा कर पाती हैं यह कहना मुश्किल हैं। क्योंकि पार्टी के पास जनाधार के साथ जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं का आधार भी नहीं हैं।
लोकसभा चुनाव में खुद राहुल गांधी अमेठी की सीट नहीं बचा पाए। सिर्फ सोनिया गांधी रायबरेली की सीट पर जीत दिला पाई। कांग्रेस को जमीनी स्तर पर संगठन तैयार करना होगा। युवाओं को अधिक से अधिक जोड़ना होगा। गांधी परिवार के आसपास जो भक्तों की पीढ़ी है उसे किनारे लगा युवाओं को आगे लाना होगा। संगठन को जमीनी रुप दिलाने के लिए कांग्रेस को भाजपा जैसी रणनीति अपनानी होगी। उसे हर वक्त पार्टी के बारे में सोचना होगा। बहुत दिनों पर राष्टÑीय अध्यक्ष के पद को खाली नहीं रखना चाहिए। सवाल यह भी कि कांग्रेस की कमान नेहरु-गांधी परिवार से दूसरे के हाथों जाने के बाद भी कोई परिर्तन या करिश्मा होगा ऐसा संभव नहीं है। उस स्थिति में पार्टी में गुटबाजी और अधिक बढ़ जाएगी। जिसकी वजह से और अधिक नुकसान उठाना होगा।
गांधी परिवार के इतर जिन हाथों में हाल के सालों में कमान रही वह बहुत कुछ नहीं कर पाए। राष्टÑीय स्तर पर कांग्रेस का नेतृत्व ऐसे हाथों में होना चाहिए जो निर्विवाद और साफ सुधरी छवि के साथ सर्वमान्य नेता हो। विषम स्थिति में फैसला लेने की ताकत हो। यह सब प्रियंका ही कर सकती हैं। ऐसी स्थिति में अब समय की मांग को देखते हुए कांग्रेस की कमान प्रियंका गांधी के हाथों में सौंप देनी चाहिए या फिर गांधी परिवार से अलग किसी युवा नेता को पार्टी की कमान सौंपनी चाहिए।
प्रभुनाथ शुक्ल
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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