- पत्रकारों के हितों की रक्षा करने के लिए 76 सालों में नहीं बन पाई कोई निकाय
- पत्रकारों को आजादी के बाद से आज तक नहीं मिला संवैधानिक दर्जा
- पत्रकार के परिवार को सामाजिक सुरक्षा देने वाला कोई नहीं
- प्रेस दिवस पर इन सभी चुनौतियों का मंथन करने की जरूरत
Press Day Celebrated, करनाल,16 नवम्बर (प्रवीण वालिया):
सात दशकों से देश में सरकार और पत्रकार प्रेस दिवस मना रहे हैं। प्रेस कौंसिंल आफ इंडिया के गठन के बाद से अभी तक पत्रकारों के हितों की रक्षा के लिए काई निकाय नहीं बन पाया है। यदि देखा जाए तो विश्व में भारत के पत्रकार सबसे प्रतिकूल परिस्थितियों में काम कर रहे हैं। देश में स्ट्रीट वैंडर तक को संवैधानिक दर्जा मिल गया है लेकिन आजादी के 76 साल बाद भी सरकार पत्रकारों की परिभाषा तय नहीं कर पाई है।
देश में आम पत्रकार को सरकार की तरफ से सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है। पूरे देश में राष्ट्रीय स्तर पर आज तक मीडिया पालसी नहीं बन पाई है। समय समय पर सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों की सेवा शर्तों तथा उनकी कार्य स्थिति को लेकर कई बार दिशा निर्देश जारी किए। समय समय पर पत्रकारों के लिए आयोग का गठन किया गया। लेकिन कोर्ट के दिशा निर्देश आयोगों की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दिए। पत्रकारों के लिए 76 सालों में चुनाँतियां बढ़ी हैं। ट्रेडल से मेाबाइल तक के दौर में कई परिवर्तन दिखाई दिए।
हरियाणा तक राज्य में पत्रकारों को आज तक सेहत की सुविधा नहीं दी है। सरकार पत्रकार को ना तो असंगठित क्षेत्र का श्रमिक मानती है और ना ही कोई कामगार। आज पत्रकारों के सामने निष्पक्षता और साख सबसे बड़ी चुनौति है। पत्रकारों के लिए ना तो कोई शैक्षणिक योग्यता है और ना ही अनुभव। आखिरकार किसको पत्रकार माने इसका कोई पेरामीटर नहीं है। भारत में पत्रकार एक असंगठित क्षेत्र के रूप में विकसित हो रही है। मोबाइल और सिटीजन पत्रकारिता के कारण पत्रकारो की संख्या में बाढ़ सी आ गई है। किसे पत्रकार माने या नहीं यह सरकार के सामने बड़ी चिंता है। देश और प्रदेशों में पत्रकारों के लिए ना तो कोई प्राधिकरण है। कौंसिल भी सात दशकों में मात्र एक सफेद हाथी साबित हुई है।
विदेशों में पत्रकारों को पंजीकृत करने के लिए एक सरकारी निकाय होती है। जो पत्रकारों के मानदंड निर्धारित करती है। उसके बाद उन पत्रकारों की सेवा शर्तें तय की जाती हैं। वहां सरकार पत्रकारों को मानदेय तय करती है। भारत में आज तक पत्रकारो को मिलने वाला मानदेय तय नहीं है। सुप्रीम कोर्ट तो पत्रकारों को बौद्धिक श्रम करने वाला श्रमिक मानती है और उसके योगदान को श्रेष्ठ मानती है। लेकिन भारतीय संसद ने आज तक पत्रकार को अस्तित्व विहीन माना है। संविधान में पत्रकार का कोई अस्तित्व नहीं है। ना तो वह श्रमिक है और ना ही बौद्धिक कर्मी है।
पत्रकार को महिमा मंडित करने के लिए संविधान के चौथे स्तंभ का झूठा दर्जा दे दिया है। वास्तव में पत्रकार भी देश का सामान्य नागरिक है। उसके कोई विशेष अधिकार नहीं हैं। उस के बचाव का कोई रास्ता नहीं है। पिछले सालों में राजनीतिक, न्यायिक और माफिया के साथ सरकारी व व्यावसायिक हमले पत्रकारों पर हुए हैं। उन्होंने पत्रकार को दोयम दर्जे का बनाकर रख दिया। कोरोना काल में अनेक पत्रकारों की मौत हुई। हजारों पत्रकारों की रोजी रोटी छिन गई। उनकी सहायता के लिए ना तो कोई सरकार सामने आई और ना ही कोई राजनैतिक संस्था और ना ही कोई सोनू सूद। प्रधान मंत्री ने सभी के लिए पैकेज घोषित किया लेकिन पत्रकारों के लिए कोई पैकेज नहीं।
आज के दौर में पत्रकार बने रहना किसी दुष्कर सपने से कम नहीं है। एक पत्रकार की औसत आयु पचास साल से ज्यादा नहीं है। लेकिन सरकार ने पैंशन के लिए साठ साल उम्र तय कर दी। पत्रकार चालीस साल से ज्यादा काम नहीं कर पा रहा है। लेकिन पत्रकार के परिवार को सामाजिक सुरक्षा देने वाला कोई नहीं हैं। प्रेस दिवस पर इन सभी चुनौतियों का मंथन करने की जरूरत है।
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