सात अप्रैल को हर साल विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। कोरोना के प्रसार के कारण इस साल पूरी दुनिया के लिए स्वास्थ्य एक चुनौती बन गया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस समय पूरा देश घरों में कैद है। देश में लाखों लोग भूखे सो रहे हैं और करोड़ों डरे हुए हैं। इस डर के पीछे कोरोना नाम का एक ऐसा वैश्विक संकट है, जिसने बाकी सब कुछ भुला दिया है। तमाम रोक के बावजूद शहरों से हुजूम की शक्ल में पलायन हो चुका है और तब्लीगी जमात जैसे संगठनों ने भी अराजक कदाचार से कोरोना के प्रसार में महती भूमिका का निर्वहन किया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में कोरोना के इलाज से ज्यादा इसका विस्तार रोकने पर चर्चा हो रही है। विस्तार रुकना भी चाहिए, क्योंकि हम न्यूनतम स्तर के इलाज के लिए भी तैयार नहीं हैं। कोरोना के तमाम लक्षण ऐसे हैं जो टीबी या श्वांस संबंधी कई बीमारियों में भी आम माने जाते हैं। हम टीबी या अन्य श्वसन संबंधी बीमारियों के गंभीर मरीजों के लिए ही पूरी तरह तैयार नहीं हैं, फिर कोरोना तो महामारी जैसी आपदा के शक्ल में हमारे बीच आया है। इतना तय है कि यदि हमने गंभीर टीबी या अन्य श्वास संबंधी रोगियों के लिए पर्याप्त तैयारी कर ली होती, तो कोरोना से ल़ड़ाई थोड़ी आसान हो जाती।
यह संयोग ही है कि सात अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस पर इस बार पूरी दुनिया औपचारिक आयोजनों के स्थान पर कोरोना से जूझ रही थी। भारत में भी हर साल 24 से 31 मार्च के सप्ताह को राष्ट्रीय स्तर पर टीबी सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। टीबी दुनिया भर में हौ रही मौतों के शीर्ष दस कारणों में शामिल है। हर साल दुनिया में एक करोड़ से अधिक टीबी के मरीज सामने आते हैं और लगभग इतने ही टीबी के मरीज अपनी जान गंवा देते हैं। टीबी वैसे तो शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकती है किन्तु श्वसन तंत्र की टीबी फेफड़े छलनी कर देती है। इस कारण श्वसन तंत्र से जुड़ी अन्य बीमारियां भी सिर चढ़कर बोलने लगती हैं। टीबी के साथ भारत पिछले कुछ वर्षों में क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मनरी डिसीज (सीओपीडी) का अंतर्राष्ट्रीय केंद्र बनता जा रहा है। सीओपीडी व दमा जैसी बीमारियों के मामले में भारत दुनिया में सबसे आगे हैं। दुनिया में दमा से होने वाली कुल मौतों में से 40 प्रतिशत भारतीय होती हैं। दुनिया भर से 25 करोड़ सीओपीडी मरीजों में साढ़े पांच करोड़ से अधिक भारतवासी हैं।
कोरोना के प्रमुख लक्षणों में तेज सांस फूलती है, खांसी आती है, बुखार आता है और थकान लगती है। टीबी व श्वसनतंत्र से जुड़ी अन्य बीमारियों के लक्षण भी कमोवेश ऐसे ही होते हैं। टीबी के गंभीर मरीजों को इलाज के लिए सघन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) और कई बार वेंटिलेटर की जरूरत होती है। कोरोना के गंभीर मरीजों के लिए भी आईसीयू व वेंटिलेटर की जरूरत बताई जा रही है। यहां दुर्भाग्यपूर्ण पहलू ये है कि आईसीयू व वेंटिलेटर सहित सघन चिकित्सा के मामले में भारत की तैयारियां बिल्कुल फिसड्डी जैसी ही हैं। फोर्ब्स की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दस लाख की आबादी पर महज 23 बेड ही सघन चिकित्सा के लिए उपलब्ध हैं। इनमें सरकारी व निजी क्षेत्र, दोनों शामिल हैं। इस मामले में अमेरिका प्रति दस लाख आबादी पर 347 आईसीयू बेड्स के साथ सबसे आगे है। कोरोना की शुरुआत वाले चीन से लेकर भयावहता का दंश झेल रही इटली और जर्मनी, फ्रांस, दक्षिण कोरिया, स्पेन, जापान व इंग्लैंड जैसे देश तो भारत से आगे हैं ही। जब ये सारे देश श्रेष्ठ स्वास्थ्य सुविधाएं होने के बावजूद कोरोना से नहीं निपट पाए तो हमारे लिए स्थितियां चिंताजनक तो बनी ही हुई हैं।
ये आंकड़े गवाही देते हैं कि एक लाख की आबादी पर आईसीयू के तीन बेड भी उपलब्ध न करा पाने वाला भारत कोरोना से निपटने के लिए लोगों को घरों में कैद न करता, तो क्या करता? इस समय हमारे लिए घरों में रुक कर कोरोना वाइरस का प्रसार चक्र तोड़ना ही सर्वाधिक उपयुक्त महामंत्र जैसा है। हमें बहुत जरूरी काम के समय भी घर से निकलते हुए यह ध्यान रखना होगा कि यदि हम कोरोना की चपेट में आए और स्थिति गंभीर हो गयी तो हमारे पास पर्याप्त आईसीयू बेड्स तक नहीं हैं। कोरोना हमें यह सीख भी दे रहा है कि जनता को मुद्दों पर आधारित आवाजें भी उठानी होंगी। सराकर को ध्वनि व प्रकाश जनित सकारात्मक ऊर्जा के साथ स्वास्थ्य क्षेत्र में ढांचागत उन्नयन पर गंभीर प्रयास करने होंगे। ऐसा न हुआ तो स्थितियां भयावह होती रहेंगी और हर बीमारी हमारे लिए चुनौती बन जाएगी। भारत के लिए इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस पर उपचार की श्रेष्ठ सुविधाएं मुहैया कराने का संकल्प ही श्रेयस्कर होगा।