Prabhuta pie kahu mud nahi: प्रभुता पाई काहु मद नाहीं

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जैसे कोरोना का प्रकोप काफ़ी नहीं था। मिनीयापोलिस नाम के एक अमेरिकी शहर में एक आदमी सिगरेट ख़रीदने पहुँचा। दुकानदार को लगा कि नोट नक़ली है सो पुलिस को फोन कर दिया। फटाफट चार हट्ठे-कट्ठे हूटर-साइरन बजाते पहुँच गए। पहले तो उसे हथकड़ी पहनाई। फिर ज़मीन पर दे मारा। आगे पता नहीं क्या सूझा एक अपने घुटने से उसका गर्दन दबाने लगा। बाक़ी देखते रहे। बेचारा गिड़गिड़ाता रहा कि वो साँस नहीं ले पा रहा। जैसा कि कोई लाचार करता है, माँ-माँ  पुकारने लगा। आख़िर में दम तोड़ गया। कोई बड़ी बात नहीं थी। अमेरिका की आधुनिक पुलिस हर साल हज़ार-पाँच सौ को आत्मरक्षा के नाम पर वैसे ही गोलियाँ से उड़ा देती है।
लेकिन यहाँ पर एक गड़बड़ हो गई। किसी ने मोबाइल फोन पर पूरे प्रकरण का विडीओ बना लिया। वो भी ज़ूम करके। बंदा वहीं नहीं रुका। झटपट उसे सोशल मीडिया पर चला भी दिया। पुलिस वाला गोरा था। मरने वाला अश्वेत अफ़्रीकन-अमेरिकन। देखते-देखते विडीओ वाइरल हो गया। कोरोना वाइरस  के ख़तरे के बावजूद हज़ारों सड़कों पर उतर आए। दोषी पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ हत्या का  मुक़दमा दर्ज हो गया है। घुटने का ज़ोर दिखानेवाला जेल में है। उसकी बीवी ने तलाक़ की अर्ज़ी दे दी है, उसका आख़िरी नाम अपने नाम से मिटा दिया है। पुलिस की बर्बरता की सर्वत्र निंदा हो रही है। मानवाधिकार के नाम पर दूसरे देशों पर आँखे तरेरने वाले अमेरिका में मचे इस बवाल से इसके विरोधियों की बाछें खिल गई हैं। ख़ासकर ईरान और चीन ने अमेरिकी लोगों से चुहल की – हम कहते थे न कि तुम्हारी सरकार किसी की सग़ी नहीं है। अमूमन चुप रहने वाले पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति एक-एक कर के इस घटना की निंदा कर रहे हैं। पुलिस सुधार की बात कर रहे हैं। बराक ओबामा ने अपने चिर-परिचित अन्दाज़ में कहा कि लोगों का ग़ुस्सा जायज़ है लेकिन वे उम्मीद बनाए रखें और पुलिस के काम करने के तौर-तरीक़े में आमूलचूल परिवर्तन की ज़िद ठाने रखें।
मुझे कोई हैरानी नहीं है। कहते हैं कि खुदा जब हुस्न देता है, नज़ाकत आ ही जाती है। पुलिस कोई अपवाद नहीं है। जब बल प्रयोग की छूट और भले-बदमाश में भेद करने का अधिकार हो तो इसका दुरुपयोग होना ही है – प्रभुता पाई काहु मद नाहीं। गर्दन मरोड़ने और टेंटुआ दबाने की धमकी वैसे आम बकवास की भाषा है। लेकिन घुटने से गर्दन को नींबू की तरह निचोड़ना और जान ही निकाल देना एक ब्रांड न्यू  आईडिया है। बेशक मरने वाला लूट-पाट के लिए पाँच साल की क़ैद काट आया था लेकिन नक़ली नोट से सिगरेट ख़रीदने की कोशिश पर एक छियालिस साल के आदमी  पर इस तरह पिल पड़ना एक अलग ही लेवल का वहशीपना है।
अमेरिका में आत्मरक्षा के नाम पर कोई भी कितना भी बड़ा हथियार ख़रीद सकता है, इसे लेकर चल सकता है। कोई लाइसेन्स नहीं चाहिए। पुलिस मान कर चलती है कि कोई भी कभी भी उसपर गोली चला सकता है। सो इसकी हमेशा कोशिश रहती है कि सामने वाले को इस लायक़ छोड़ा ही ना जाए। कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि वहाँ मुँहज़ोर क़िस्म के लोग ही पुलिस में भर्ती होते हैं। ट्रेनिंग भी उसी हिसाब से होती है। एक तरह से देखें तो होना भी यही चाहिए। आख़िर लोहा ही लोहे को काटता है। लेकिन बखेड़ा तब खड़ा हो जाता है जब लोहा लगे हाथ हर किसे को काटने लगता है। लोगों के सामने आगे कुआँ पीछे खाई वाली स्थिति हो जाती है। बदमाशों से बचने के लिए खड़ी की गई पुलिस अपनी सुविधा और बचाव के चक्कर में सबको बदमाश समझने लगती है, एक ही लाठी से हांकने लगती है। स्थिति तब विस्फोटक हो जाती है जब लोगों को ये लगता है कि पुलिस दुर्भावना से प्रेरित है और भेदभाव कर रही है। ग़रीबों और अल्पसंख्यकों क़ो कमजोर समझकर टार्गेट कर रही है। बदमाश और पुलिस एक जैसी हो गई है। प्रजातंत्र हो तो लोग सड़कों पर आकर सरकारों पर दवाब बनाते हैं कि अपने गुर्गों को लगाम दो। तानाशाही व्यवस्था में  बर्दाश्त करने के अलावा कोई चारा नहीं होता। सिर उठाया नहीं कि नाप दिए जाते हैं।
हमारे देश में स्थिति थोड़ी भिन्न है। यहाँ हथियार रखने के लिए लाइसेन्स चाहिए सो हर किसी से पुलिस को जान का ख़तरा नहीं है। पुलिस के बड़े अफ़सर पढ़े-लिखे, ऊँचे सामाजिक रसूक वाले होते हैं। अपने क्षवि को लेकर चिंतित रहते हैं। शुरू-शुरू में बदमाशों से सींग भिड़ाए रखते हैं। लेकिन इनके सिर पर दुनियाँ भर के लोग और दर्जन-भर संस्थाएँ सवार होती हैं। ऐसा नहीं कि इनमें से सारे लोगों के भले की चिंता में दुबले हुए जाते हैं। ज़्यादातर तो पावरफ़ुल दिखने  चक्कर में टांग भिड़ाते रहते हैं। इनकी सोच होती है कि लोग पुलिस से डरते हैं और अगर पुलिस इनसे डरेगी तो लोग इन्हें बड़ा आदमी मानेंगे, बिना हील-हुज्जत के इनसे दबंगे। अफ़सरों का प्रतिरोध कुछ दिन चलता है। फिर कैरियर की चिंता में और अन्य असुविधाओं से बचने के लिए कहीं बीच रास्ते अपने तौर-तरीक़े बदल लेते हैं। व्यावहारिक हो भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं।
अधीनस्थ पुलिसकर्मी की साख और अंग्रेज़ी जैसी भी हो, अपने काम में वे पक्के होते हैं। विपरीत परिस्थितियों में परिणाम देने में ये हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी में लेक्चर दे सकते हैं। हालात के हिसाब से खुद को ढालने में इनका कोई जवाब नहीं  है। शायद ही ऐसा काम है जो ये नहीं कर सकते। लॉक्डाउन को ही लीजिए। हुक्म हुआ कि लोग घरों से बाहर नहीं दिखने चाहिए। फ़ौरन जो घूमता-फिरता मिला उस पर जो हाथ में था उसे ही लेकर पिल पड़े। कहा गया कि ऐसे नहीं, लोगों को प्यार से समझाना है। फ़ौरन सुरीले गीत सुनाने लगे। जब चिंता जताई गई कि कहीं गरीब भूखा न रह जाए तो फटाफट पूड़ियाँ तलने लगे।
हमारे देश में सुधार जब होगा तब होगा। वर्तमान नियम-क़ायदे के तहत भी अगर इसको अपना काम करने दिया जाय तो पुलिस लोगों की उम्मीद पर खरा उतर सकती है। दिन-रात एक करने की बात तो छोड़िए, 1947 से अब तक देश भर में छत्तीस हज़ार से भी अधिक पुलिसकर्मी ड्यूटी पर अपनी जान दे चुके हैं। इन्हें थोड़ी प्रेरणा और थोड़ा विश्वास चाहिए। वैसे ये बात उन पर लागू नहीं है जो बनते पुलिसकर्मी हैं और उलझे खुदगर्जी में रहते हैं।