Power is paramount in the era of Valueless politics! मूल्यविहीन राजनीति के दौर में सत्ता सर्वोपरि!

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देश की आजादी की लड़ाई नित नई करवट ले रही थी। जवाहर लाल यूरोपियन पोशाक में रहते थे। हैरो और कैम्ब्रिज का तौर तरीका उन पर हावी था। गांधी ने खुद लिखा है कि “उन दिनों वे थोड़े घमंडी थे”। बहराल, गांधी जिनसे जुड़ते थे, बिल्कुल निजी तौर पर दिल से। 1924 के साल में महात्मा गांधी, पंडित मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू की तिकड़ी स्वराज की लड़ाई का पर्याय बन गई थी। इस तिकड़ी को मजाकिया लहजे में ‘फादर, सन एंड होली घोस्ट’ (पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा) कहा जाता था। जहां पंडित जवाहर लाल नेहरू उग्र तेवर वाले पूर्ण स्वराज के हिमायती थे, वहीं पिता मोतीलाल और महात्मा गांधी सिर्फ स्वराज की बात कर रहे थे। गांधी ने जवाहर को काम में ऐसा लगाया कि वह खुद को भूल गये और देश के लिए जीना-मरना उनका लक्ष्य बन गया। गांधी ने उन्हें तथ्यान्वेषण दल और फैक्ट फाइंडिंग टीम का जिम्मा देकर कई यात्राएं कराईं। कई विवादों में भी नेहरू को आगे किया, नतीजतन जवाहरलाल की जेल यात्रायें शुरू हो गईं। वह पिता के घर के सभी ऐशो-आराम छोड़ राष्ट्र को समर्पित हो गये। उन्होंने अपनी जगह अपने बूते बनाई। वह कुछ कंजरवेटिव थे, तो कुछ समाजवादी, कुछ वामपंथी थे, तो कुछ दक्षिणपंथी भी। इसके कारण उनका अपने पिता और गांधी से भी कई बार वैचारिक मतभेद होता था। कई लोगों से टकराव भी। वह मूल्यविहीन राजनीति के विरोधी थे, जो उन्हें गांधी के करीब लाती थी। गांधी और जवाहर के रिश्तों का बड़ा प्रमाण दो सितंबर, 1924 को मोतीलाल नेहरू को लिखी गांधी की एक चिट्ठी है, जिसमें वह लिखते हैं कि “प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी तरह से मैं आपके (पिता-पुत्र) इस अद्भुत प्रेम-संबंध में बाधक नहीं बनना चाहता”।

आप सोचेंगे आखिर हम इस प्रकरण का जिक्र क्यों कर रहे हैं! यह विचारों और उद्देश्य के लिए समर्पित होने का एक अनूठा उदाहरण है, जहां कुछ पाने के लिए नहीं बल्कि खोने के लिए राजनीति में प्रवेश करने की जीवंत गाथा है। ऐश ओ आराम और शाहखर्ची के जीवन को छोड़कर यह तिकड़ी देशवासियों को स्वराज दिलाने के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने निकली थी। यह राजनीति के मूल्य होते थे। आजादी के बाद भी तमाम नेताओं ने सत्ता और पद के लिए नहीं देश, समाज और मानवता के लिए काम किया। इसका एक उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई भी हैं, जिन्होंने कई बार दलगत और नैतिकताविहीन राजनीति को अपनाने के बजाय राष्ट्र और जनहित की नीति अपनाई। राजनीति में मूल्यों को संरक्षित रखने के लिए उन्होंने एक वोट से अपनी सरकार गिर जाने दी मगर ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे उनके दामन पर कोई दाग लगा सके। इसी तरह का एक उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने प्रस्तुत किया था, जब 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस ने 195 सीटें जीतीं और सरकार बनाने का आमंत्रण यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया था कि जनादेश हमें नहीं मिला। हम अनैतिक सरकार नहीं बना सकते। नतीजतन 142 सीटों वाली जनता दल ने 89 सीटों वाली भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। मूल्यों को ताक पर रखकर बनी उस सरकार में ही दो बड़ी घटनायें हुईं थीं, पहली कश्मीर से पंडितों का उत्पीड़न, पलायन और दूसरा समाज को बांटने वाली मंडल आयोग रिपोर्ट लागू करना।

इस वक्त मूल्यों की हत्या करके सत्ता हथियाने के कई उदाहरण सामने आ रहे हैं। बिहार में हम देख चुके हैं कि किस तरह से नितीश कुमार के साथ सत्ता में काबिज होने का खेल हुआ। कर्नाटक हो या फिर गोवा दोनों जगह सत्ता लोलुपता में क्या किया गया? महाराष्ट्र में सत्ता पर काबिज होने के लिए कैसे कैसे खेल किये गये। भ्रष्टतम नेताओं में सुमार बीएस यदुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने अपनी पवित्र परंपरा को खत्म कर दिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सत्ता में रहने के लिए अपने पिता माधवराव द्वारा तय किये गये नैतिक मूल्यों को दरकिनार कर भाजपा का दामन थाम लिया। इसमें कोई बुराई नहीं थी कि वह अपनी पसंद के सियासी दल में जायें मगर मुद्दा यह है कि जिन लोगों और नीतियों के खिलाफ वह आवाज बुलंद करते थे, उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है, तब भी वह वहीं शरण लेने पहुंच गये। हालांकि इस परिवार की देश के प्रति वफादारी सदैव सवालों में रही है। हमने अटलजी की नजरों से भाजपा को देखा है। उनकी साफगोई, हर तरह के सवालों का आमंत्रण और सटीक जवाब। राष्ट्रीय मुद्दों और मूल्यों को लेकर संजीदगी भाजपा की पहचान थी, जिसे हम प्रेम करते थे। कुछ देर लगी मगर उसी पहचान ने भाजपा को दूसरों से अलग बनाया। बीते कुछ सालों में वह भाजपा बदल गई है। अब वह नैतिकता और मूल्यों को हासिये पर रखती है। जो बुराइयां कांग्रेस में थीं, उससे अधिक बुराइयों को उसने सत्ता के लिए अपना लिया है। इस वक्त लोकतंत्र का मतलब नफरत और खरीद फरोख्त हो गया है। सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए लाशों को भी कुचला जा रहा है। दिल्ली का सांप्रदायिक दंगा और मध्य प्रदेश में सत्ता पलट का खेल इसका मौजू उदाहरण है।

जो भी देश से प्यार करते हैं, उनके लिए इस वक्त सत्ता नहीं बल्कि सत्ताजनित दोष समस्यायें होनी चाहिए थीं। आर्थिक संकट से जूझ रहे भारत का आर्थिक सामाजिक ढांचा चरमरा रहा है। जरूरत उस पर ध्यान केंद्रित करके समस्या का समाधान निकालने की है। जो कांग्रेस या दूसरे अन्य दलों ने सत्ता के नशे में किया, वह भाजपा और उसकी सरकार न दोहराये बल्कि सुधार कर आदर्श प्रस्तुत करे। किसी नागरिक में भेद किये बिना उसको सक्षम और तार्किक बनाने पर जोर दिया जाये। कोरोना वायरस से हाहाकार मचा हुआ है, उससे निपटने के लिए प्रभावी कार्ययोजना बनाई जाये, न कि दिखावा किया जाये। युवाओं को अच्छी-सस्ती शिक्षा और रोजगार दिलाने के लिए काम किया जाये। किसानों को सामाजिक सुरक्षा का अहसास दिलाने के साथ ही कृषि उपज बढ़ाने पर जोर हो। नारी कहने को देवी न हो बल्कि उसके अंदर देवी होने का मान हो, इसके लिए उसे सुरक्षा-सम्मान सरकार की नैतिक जिम्मेदारियों में शामिल की जाये। कोई बच्चा कुपोषित न रह जाये, इसके लिए व्यापक योजना पर पहल हो। आवश्यक नागरिक जरूरतें पूरा करना सरकार का पहला दायित्व है, जो वह पूरा करे। मगर दुख के साथ कहना पड़ता है कि यही नहीं हो रहा है। सरकार बनिया की दुकान की तरह लाभ-हानि को सामने रखकर काम कर रही है, न कि लोककल्याणकारी राज्य की तरह। यही कारण है कि 32 डालर प्रति बैरल पर क्रूड आयल होने के बावजूद देश की जनता को कोई लाभ नहीं दिया जा रहा है जबकि दाम बढ़ते ही उसकी जेब काटने को सरकार तैयार रहती है।

इस वक्त देश जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है, उस वक्त में सर्वधर्म संभाव से काम करने की जरूरत है। नैतिक और सामाजिक मूल्यों को न सिर्फ खुद अपनाने की जरूरत है बल्कि भावी पीढ़ी को भी समझाने की आवश्यकता है। सत्ता के लिए कुछ भी करेंगे, जैसी नीति देश के लिए आत्मघाती है। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास कहने मात्र से कुछ नहीं होने वाला, जरूरत इसके लिए जमीनी तौर पर काम करने की है, जो नहीं हो रहा। उम्मीद करता हूं कि जिम्मेदार लोग नैतिक मूल्यों के राजनीति में होते क्षरण को रोकेंगे और जन मुद्दों पर सियासत करेंगे, न कि सिर्फ सत्ता के लिए।

जयहिंद

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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)