Pollution of rivers: नदियों का प्रदूषण

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अबुल फजल ने आइने अकबरी में लिखा है कि मुगल बादशाह अकबर के पीने के लिए गंगा जल ही लाया जाता था और बाकी इस्तेमाल के लिए जमना का पानी। जब बादशाह आगरा में होते तो गंगा जल सोरों (वर्तमान में मान्यवर कांशीराम जिले के अंतर्गत गंगा तट पर बसा कस्बा) और जब दिल्ली या लाहौर में होते तो हरिलार से गंगाजल लाया जाता। बाकी उनका भोजन बनाने के लिए यमुना का जल प्रयोग में लाया जाता था जो दिल्ली और आगरा में सहज सुलभ था। मुगल बादशाहों के लिए गंगा जल लाए जाने की यह परंपरा जहांगीर तक चली और बाकी के बादशाह अपने पूर्ववर्तियों के लिए यमुना का जल ही प्रयोग करते रहे। यही नहीं देश के दूसरे हिस्सों में वहां के राजा या नवाब अथवा सुल्तान अपने पीने के लिए स्थानीय नदियों के जल पर अधिक भरोसा करते थे। तब कुआं, बावड़ी, झीलों व तालाब का पानी बाकी काम के लिए ही प्रयोग होता था। यही नहीं जॉब चार्नाक सन 1699 में बंगाल के तट पर उतरा और उसने कोलकाता नगर बसाया तो पीने के पानी के लिए हुगली नदी का जल इस्तेमाल करता था। इस जल को उबाल कर पिया जाता था। अभी कुछ वर्षों पहले तक कोलकाता में हुगली पर जब भी रात को ज्वार आया करता तो सड़क किनारे के नल अपने आप बहने लगते और सड़कें स्वत: ही साफ हो जाया करतीं।
अब सभ्यता के विकास के साथ ही नदियों का जल कहीं भी पीने लायक नहीं बचा है। हर नदी प्रदूषित है। गंगा का हाल तो यह है कि हरिद्वार तक आते-आते गंगा का जल इतना प्रदूषित हो जाता है कि उस जल से आचमन तक करने की हिम्मत नहीं पड़ती। अगर गंगा की ही बात करें तो पाएंगे कि गंगा में बांध बनने और औद्योगिक कचरा लगातार इस नदी में गिराए जाने के कारण यह नदी आज दुनिया की सातवीं सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में गिनी जाने लगी है। 1854 में गंगा में पहला बांध हरिद्वार में बना और एक अपर गंगा कैनाल नाम से एक नहर निकाली गई। इसके बाद बना फरक्का और गंगा की धारा अवरोधित होती गई। जाहिर है कि अगर नदी की मुख्य धारा को अवरोधित किया गया तो जलीय जीव-जंतु तो प्रभावित होते ही हैं साथ में गाद के जमने की तीव्रता भी बढ़ जाती है। नतीजा यह हुआ कि गंगा को स्वत साफ करने वाली धारा बाधित होती गई और फिर शहरों के किनारे का कचरा और गंदगी तथा औद्योगिक वेस्टेज ने इसकी हालत एक नाले की तरह कर दी। आज गंगा में गंदगी गोमुख से ही शुरू हो जाती है और गंगोत्री तक आते-आते गंगा इतनी प्रदूषित हो चुकी होती है कि इसका पानी पीने लायक नहीं रहता। गंगोत्री से महज 40 किमी की दूरी पर ही एनटीपीसी के बांध ने इसका रास्ता बाधित कर दिया है। आज गंगोत्री से चंबा के बीच गंगा में इतने अधिक बांध और बैराज हैं कि नदी की धारा कहीं भी अपने मूल स्वरूप में बह नहीं पाती और यही कारण है कि 2013 में ऐसी तबाही मची कि गंगोत्री से ऋषिकेश तक पूरा पवर्तीय इलाका अस्त-व्यस्त हो गया। अभी तक सरकार की परियोजनाओं के तहत अकेले उत्तराखंड में ही 300 बांध बनने प्रस्तावित हैं।
हमारी नदियों की देखरेख का अभाव और उनके जल के लगातार दोहन का यह नतीजा यह है कि निकट भविष्य में पीने के लिए भी पानी पाने के लिए तरसना पड़ेगा। शायद लोग इस हकीकत से रूबरू नहीं हैं कि हमारी पृथ्वी पर जो भी जल स्रोत हैं उनमें से 97 प्रतिशत तो खारे पानी के हैं और सिर्फ तीन प्रतिशत जो हैं वे जमे हुए हैं और इन्हीं जमे हुए स्रोत से ही नदियां निकलती हैं जो हमारे लिए पेयजल उपलब्ध कराती हैं। अब अगर ये नदियां भी प्रदूषित होती गईं तो पीने के लिए भी पानी कहां से लाया जाएगा? यमुना के दाएं किनारे और बाएं किनारे दोनों तरफ आठ-आठ किलोमीटर तक खारा पानी हो गया है। यहां कुएं, बावड़ी और जमीन के अंदर के जल स्रोत भी खारे हैं, इसीलिए यमुना किनारे बसने वालों के लिए पानी गंगा के पानी ट्रीट कर लाया जाता है। दिल्ली, नोएडा व गाजियाबाद इसके उदाहरण हैं। आज भी गंगा और नर्मदा ही दो ऐसी नदियां मानी जाती हैं जिनका पानी सबसे अधिक पीने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। भले इस पानी को ट्रीट करना पड़ता हो क्योंकि इन दोनों ही नदियों का पानी कहीं भी खारा नहीं है। लेकिन क्या यह दुर्भाग्यशाली नहीं है कि गंगा लगभग 2500 किमी के कुल बहाव क्षेत्र की शुरुआत में ही इतनी अधिक प्रदूषित हो जाती है कि समुद्र तक जाते-जाते वह एक गंदा नाला बनकर पहुंचती है। गंगा उत्तराखंड में करीब 450 किमी बहती है और इस क्षेत्र में ही 14 नाले इसमें 450 मिलियन घन लीटर गंदा पानी इसमें उड़ेलते हैं। इसके बाद यूपी के 1000 किमी का बहाव इसे और प्रदूषित करता है। फिर बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल। कुल मिलाकर इस नदी में करीब 3 हजार मिलियन घन लीटर प्रदूषित पानी फेकते हैं। जबकि यह वह नदी है जिसके सहारे देश की 50 करोड़ आबादी पलती है। 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की थी। इसके बाद 2009 में यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथारिटी बनाई। और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नमामि गंगे योजना की रिपोर्ट बताती हैं कि गंगा सफाई तो दूर उसके जल में विषैले तत्व और अधिक बढ़े हैं। आज हालत यह है कि गंगोत्री से डायमंड हार्बर तक यह नदी निरंतर प्रदूषित हो रही है और सरकार ने अभी तक कोई सार्थक पहल नहीं की है।
एक   सरकारी अध्ययन में पाया गया था कि नदियों के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण औद्योगिक और शहरी वेस्टेज को बगैर ट्रीट किए नदियों के जल में बहा देना है। बड़ी औद्योगिक इकाइयों को तो सरकार अपनी निगरानी में रखती है लेकिन हजारों छोटे कल कारखाने और नगर निगम अपने नालों को ट्रीट नहीं करती। नगर निगमों के पास जहां ट्रीटमेंट प्लांट हैं उनमें से ज्यादातर तो काम कर ही नहीं रहे। इस वजह से यह सारा कचरा नदियों में गाद जमा करता रहता है और उसकी धारा प्रभावित होती है। इससे एक तरफ तो बाढ़ जैसी महामारी आती है और दूसरी तरफ नदी जल लगातार प्रदूषित होता है। नदियों में आजकल बायो आक्सीजन डिमांड की लगातार बढ़ रही मात्रा एक और खतरा है। इससे बीमारियां और जीवन रक्षक बैक्ट्रीरिया का ह्रद्दास हो जाता है। यह देश की तमाम बड़ी नदियों में बढ़ रही है। खासकर काली नदी और  मर्कण्डा नदी में। खतरनाक बात तो यह है कि चंबल, बेतवा, घाघरा और राप्ती जैसी नदियां तो इस कदर प्रदूषित होती जा रही हैं कि अब उनके किनारे की हरियाली भी नष्ट होती जा रही है। इस वजह से बाढ़ का खतरा भी हर साल बना ही रहता है।
नदियों में प्रदूषण का असल खामियाजा तो कृषि क्षेत्र पर पड़ता है। प्रदूषित नदियों के जल से सिंचाई होती है और इससे प्रदूषण उस कृषि भूमि पर पहुंच जाती है जहां से सीधे खाद्यान्न आता है। अब एक तरफ तो पैदावार बढ़ाने के लिए किसान खतरनाक उर्वरक इस्तेमाल करते हैं और दूसरी तरफ प्रदूषित नदियों का जल उसे और अस्वास्थ्यकर बनाता है।  इसका एक उदाहरण पंजाब है जहां पर लगातार प्रदूषण की वजह से पूरे फिरोजपुर और भटिंडा के लोगों में कैंसर के रोगी बढ़ते जा रहे हैं। यही वजह है कि वहां पर अब उर्वरकों से बचने की कोशिश की जा रही है। दरअसल हरित क्रांति के दौर में पंजाब में गेहूं, मक्का, सरसों व धान की खेती को खूब बढ़ावा दिया गया और अधिक उपज के लिए अत्यधिक मात्रा में खादों का इस्तेमाल हुआ। नतीजन पंजाब में उपज तो बढ़ी मगर इसी के पीछे-पीछे बीमारियां भी चली आईं और जब तक सरकार चेतती  कैंसर ने पंजाब को गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया। एक और वजह है कैश क्रॉप्स यानी नकदी फसलों के चक्कर में लोगों ने जमीन की जैविक विविधता ही नष्ट कर दी। किसान ने सिर्फ वही फसलें बोनी शुरू कर दीं जिनकी बिक्री से उसे फायदा है। एक तरह से किसान अन्नदाता की बजाय जहर का उत्पादन करने लगा। लेकिन इसके लिए अकेले किसानों को दोष देना फिजूल है। खुद सरकारों ने भी न तो उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल करने पर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया और न ही नदियों के जल स्रोत निर्मल बने रहने पर जोर दिया। नतीजा यह है कि आज न पानी पीने योग्य बचा है न खाद्यान्न खाने योग्य।
सरकार और लोग अगर आज नदियों को बचाने के लिए वाकई कटिबद्घ हैं तो नदी जल को साफ करने का बीड़ा धार्मिक भाव से नहीं बल्कि वरीयता में रखकर उठाया जाए। जितनी गंगा को स्वच्छ करने की जरूरत है उतनी ही जरूरत काली, गंडक, सरयू और घाघरा को करने की भी जरूरत है। मगर होता यह है कि सरकारें प्रतिद्वंदिता में आकर नदी जल सफाई योजना को फिजूल में विवादास्पद बना देती हैं। आज जरूरत इस बात की है कि नदियों को बचाया जाए। उन्हें प्रदूषण मुक्त किया जाए मगर इस पूरे मामले को विकास विरोधी न बनाया जाए न प्रचारित किया जाए। हर कारखाने को अपना ट्रीटमेंट प्लांट बनाना होगा और वह अवशोषित पानी भी नदियों में बहाने की बजाय उसे रिसाइकिल कर अपने ही इस्तेमाल में जाया जाए तथा फालतू के बैराज बनाकर नदी की धारा को अवरुद्घ  न किया जाए।

शंभूनाथ शुक्ल