दुनिया के बहुत सारे देशों की तरह भारत में आदिकाल से ही परिवार रिश्ते-नातों आपसी संबंधों को हमेशा से तरज़ीह देने की संस्कृति रही है, हमारे देश में आज भी अधिकांश लोग एक दूसरे के सुख-दुःख को हंसते-हंसते मिलजुल कर बांट लेते हैं। लेकिन देश में तेजी से गिरता राजनीति का स्तर कब क्या हाल दिखा दे, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। अपने स्वार्थ के लिए राजनीति करने वाले कुछ लोगों के मर्यादाविहीन आचरण की वजह से अब लोगों का राजनीति व राजनेताओं में भरोसा तेजी से कम होता जा रहा है। क्योंकि आज के दौर में राजनीति करने वाले बहुत सारे लोगों के लिए राजनीति समाज सेवा का माध्यम ना होकर के स्वयंसेवा का सशक्त माध्यम बन गया है, जिनका केवल एक ही उसूल है कि उनका जीवन में कोई उसूल नहीं है, बस किसी भी तरह से हर-हाल में पद व सत्ता उनके हाथ आनी चाहिए, चाहे इसके लिए उन लोगों को किसी भी बेहद अपने अजीज व्यक्ति की पीठ में छुरा घोपकर छल-कपट करके उसके साथ घात-प्रतिघात, षड्यंत्र और तख्तापलट ही क्यों ना करना पड़े। सभ्य समाज के लिए दुःख व अफसोस की बात यह है कि जिन हथकंडों को हमारे यहां स्वच्छ राजनीति में कभी अपवाद माना जाता था, आज के राजनीतिक दौर में कुछ नेताओं की कृपा से वह हथकंडे आम होकर अब रिवाज बन गये हैं। आज ऐसा दौर आ गया है कि अगर गलती से राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले किसी परिवार के मुखिया का किसी भी कारण से अचानक निधन हो जाये, तो जब किसी व्यक्ति को दुःख में परिवार, रिश्ते-नातेदारों व अपनों की सबसे अधिक जरूरत होती है, उस समय अधिकांश राजनीतिक परिवारों में पार्टी के लिए ताउम्र मेहनत करने वाले कार्यकर्ताओं का हक मार कर एक दूसरे की टांग खिचाई करके मृतक की विरासत हथियाने की जंग शुरू हो जाती हैं। परिवारों के द्वारा राजनीतिक विरासत को हथियाने के लिए यह स्थिति हमारे देश में ब्लॉक स्तर के नेताओं के परिवारों से लेकर के राष्ट्रीय स्तर तक के नेताओं के परिवारों में बहुत लंबे समय से रही है, पार्टी के लिए रातदिन मेहनत करने वाले विरासत के वास्तविक वारिस बनने वाले कार्यकर्ताओं के साथ हमेशा अन्याय हुआ है। विरासत हथियाने के झगड़े में सबसे अधिक शर्मनाक स्थिति तब होती है कि जिस राजनीतिक व्यक्ति ने अपना पूरा जीवन मान-सम्मान के साथ बेहद शान से जीया, उसके परिजन उसकी चिता की अग्नि ठंडी होने से पहले ही विरासत हथियाने के लिए कुत्ते-बिल्ली की तरह सड़कों पर आकर लड़ने लगते हैं, किसी को भी उस दुनिया से जाने वाले राजनेता के मान-सम्मान की परवाह नहीं होती है, जबकि उस नेता से शुरुआत से ही दिल से जुड़े मेहनतकश कार्यकर्ता यह स्थिति देखकर मानसिक व भावनात्मक रूप से बहुत परेशान रहते हैं।
“वैसे हमारे देश में किसी भी व्यक्ति को राजनीति कराने में अधिकांश उसकी अपनी मित्रमंडली व कार्यकर्ताओं का अनमोल योगदान होता है, वो ही रोजाना के अपने संघर्ष की बदोलत अपने बीच के किसी व्यक्ति को नेता बनाकर एक मुकाम पर पहुंचाते हैं, नेतागिरी करने के लिए रोजमर्रा के सड़कों पर होने वाले संघर्ष व पुलिस के लाठी डंडे खाने व जेल जाने में अक्सर परिवार का कोई योगदान नहीं होता है, लेकिन किसी नेता की मृत्यु के पश्चात सम्पत्ति की तरह पद व सत्ता हर हाल में राजनीति को वक्त ना देने वाले परिवार को ही चाहिए, परिवारवाद के इस प्रचलन की वजह से ताउम्र मेहनत करने वाले कार्यकर्ता अपने प्रिय नेता के दुनिया से चले जाने के बाद हमेशा से नेताओं के परिजनों के द्वारा भावनात्मक रूप से छले व ठगे जाते हैं, जो स्थिति उचित नहीं है।”
देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बाद भी परिवारवाद की जड़े बहुत गहरी हो गयी हैं, बहुत सारे देशों की तरह ही हमारे देश में सत्ता के रंगमंच के पीछे का खेल बहुत षड्यंत्रकारी व घात-प्रतिघात की रणनीति वाला हो गया है, अच्छे व सच्चे आदमी का राजनीति में जमे रहना बहुत दुष्कर कार्य हो गया है। देश की राजनीति में बढ़ते परिवारवाद की वजह से परिवार या नेता के प्रियजनों के बीच विरासत का विवाद होना अब एक आम बात हो गयी है, जिसकी बहुत लंबी सूची है। जिसमें आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एन टी रामा राव के पहली पत्नी के निधन के बाद उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती को लेकर के उनके बेटे, बेटी व दामाद चंद्रबाबू नायडू के बीच विवाद का मामला बेहद चर्चित रहा है। ताऊ देवीलाल के परिवार का विवाद बहुत चर्चित रहा है, वर्ष 1989 से पहले ताऊ देवीलाल ने ओमप्रकाश चौटाला को साइड लाइन करके अपने छोटे बेटे रणजीत सिंह को राजनीतिक विरासत सौंप रखी थी। लेकिन 2 दिसंबर 1989 को जब देवीलाल केंद्र सरकार में उप प्रधानमंत्री बने। तो उस स्थिति में हरियाणा में मुख्यमंत्री का पद खाली हो गया, जिसके लिए देवीलाल परिवार में सत्ता की जबरदस्त जंग छिड़ गई थी, राजनीति से साइड लाइन किए गए ओमप्रकाश चौटाला ने अचानक देवीलाल को अपने प्रभाव में लेते हुए पारिवारिक तख्तापलट करके खुद हरियाणा के मुख्यमंत्री बन गए थे। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के अपना दल के सोनेलाल पटेल की विरासत पर माँ व बेटी अनुप्रिया पटेल का विवाद बहुत चर्चित रहा है, हालांकि अब पूर्व केन्द्रीय राज्यमन्त्री अनुप्रिया पटेल माँ कृष्णा पटेल और बहन पल्लवी पटेल से आगे निकल कर पार्टी पर अपनी पकड़ बना चुकी हैं। शरद यादव व नितीश कुमार का विवाद, काशीराम के परिवार का विवाद, बालासाहेब ठाकरे व भतीजे राज ठाकरे का विवाद, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के निधन के बाद उनकी विरासत के लिए बलिया लोकसभा उपचुनाव में टिकट के लिए उनके दोनों पुत्रों का विवाद। शरद पवार व भतीजे अजीत पवार का विवाद, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की विरासत का विवाद, डीएमके प्रमुख करुणानिधि की विरासत का विवाद, मुलायम सिंह यादव के परिवार का विवाद, लालू प्रसाद यादव के परिवार का विवाद, चौधरी ओमप्रकाश चौटाला परिवार का विवाद आदि यह तो केवल राजनीति में विरासत हथियाने वाले विवादों के चंद उदाहरण मात्र हैं।
हाल ही में बिहार की लोकजनशक्ति पार्टी का अंदुरुनी विवाद इसका सबसे ताजा उदाहरण है। जब पार्टी के सर्वमान्य वरिष्ठ नेता रामविलास पासवान के चले जाने के बाद से ही बंद कमरों में चल रही चिराग पासवान और उनके सांसद चाचा पशुपति पारस की लड़ाई अब घर के बंद कमरे से निकलकर सार्वजनिक होकर एक बड़े घमासान में बदल गई है। कही ना कही रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत हथियाने के लिए और पार्टी में पद व केन्द्र सरकार में मंत्री पाने के लालच में चाचा पशुपति पारस ने अपने भतीजे चिराग पासवान के खिलाफ बिमारी के समय जबरदस्त विद्रोह कर दिया, उन्होंने चिराग को रातोंरात संसदीय दल के नेता पद व पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर पार्टी पर खुद कब्जा जमा लिया। हालांकि रामविलास पासवान ने अपने जिंदा रहते ही पार्टी की कमान अपने दल के मेहनतकश अन्य नेताओं का हक मार कर अपने बेटे चिराग पासवान को दे दी थी, लेकिन उस समय केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के रूतबे व ताकत के चलते यह विद्रोह शुरुआत में ही दब गया था। हालांकि यह विद्रोह अगर रामविलास पासवान के जिंदा रहते होता तो एकदम जायज़ था, लेकिन उस समय परिजनों को रामविलास पासवान की जनता के बीच में व मोदी सरकार में ताकत का अंदाजा था, जिसकी वजह से उनके दुनिया से चले जाने के बाद चाचा ने भतीजे के खिलाफ विद्रोह करके पार्टी पर कब्जा जमाने का कार्य किया है, जिसको सिद्धांतों के अनुसार समर्थन करना गलत है।
वैसे पार्टी पर परिजनों के द्वारा कब्जे जमाने की लड़ाई के इतिहास को देंखे तो देश में यह बहुत पुराना चला आ रहा है, हमेशा से इस परिवारवाद की लड़ाई में पार्टी व विरासत का वास्तविक हकदार कार्यकर्ताओं का देश में हक मारा गया है। देश की सम्मानित जनता के एक वर्ग के द्वारा भी प्रतीक पूजा के चलते, हमारे देश की राजनीति में परिवारवाद की जड़े दिन प्रतिदिन ओर गहरी होती जा रही हैं, जिसके चलते अपनी दिनरात की मेहनत के बलबूते पार्टी को खड़ा करने वाले दूसरी पंक्तियों के नेताओं व कार्यकर्ताओं के हक पर परिवारों के लोगों द्वारा डाका डाला जाता रहा है, जो कि देश में एक तरह से राजशाही व्यवस्था ही है, जिसका देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई स्थान नहीं होना चाहिए ।
दीपक कुमार त्यागी (हस्तक्षेप)
स्वतंत्र पत्रकार, स्तंभकार व रचनाकार
।। जय हिन्द जय भारत ।।
।। मेरा भारत मेरी शान मेरी पहचान ।।