देश जब अंग्रेजी हुकूमत से लड़ रहा था , उसी दौरान 1942 में महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ अंदोलन चलाया, तब हिंदू महासभा के नेता वीडी सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मुस्लिम लीग के प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना और भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर अंग्रेजों के साथ खड़े थे। उन सभी को अंग्रेजी हुकूमत से लाभ और पद मिल रहा था। महात्मा गांधी राष्ट्रवादियों के सबसे बड़े नेता थे मगर उन्होंने किसी को भी गद्दार या देशद्रोही नहीं कहा। अंग्रेज जब भारत से गये तब प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डा. भीमराव अंबेडकर को अपने मंत्रिमंडल में स्थान दिया। जब डा. अंबेडकर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े तो पंडित नेहरू के दूधवाले काजरोलकर ने उन्हें चुनाव में हराया था। माना जाता था कि पंडित नेहरू ने डा. अंबेडकर को जिताने के लिए कमजोर उम्मीदवार उतारा था, फिर भी वह जीत नहीं सके। हार का एक बड़ा कारण अंबेडकर समर्थकों का मराठी में लगाया वह नारा बना ‘कुथे तोघटनाकर आंबेडकर, आनी कुथे हा लोनिविक्या काजरोलकर?’ इसका मतलब था- ‘कहां संविधान निर्माता आंबेडकर और कहां ये मक्खन बेचने वाला काजरोलकर?’ इस नारे से जनता में यह संदेश गया कि डा. अंबेडकर दूधवाले को नीचा और खुद को श्रेष्ठ बता रहे हैं। बाद में पंडित नेहरू ने डा. अंबेडकर को राज्यसभा सदस्य बनवाया था। तब राजनीति की गरिमा यह होती थी।
इस वक्त तमाम बड़े नेता अपने शब्दों की गरिमा खो रहे हैं। वह डा. अंबेडकर की हार का कारण बने नारे से भी सबक नहीं ले रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में कहा कि शीर्ष फ़ार्मा कंपनियों ने डॉक्टरों को रिश्वत के तौर पर लड़कियां उपलब्ध कराईं। इस पर आईएमए ने उनसे माफी मांगने की मांग की है। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने तो संसद में ही कोरा झूठ बोलते हुए कहा कि राहुल गांधी ने भारत में आकर बेटियों से बलात्कार का आमंत्रण दिया है। दिल्ली से सांसद हंसराज हंस की हालत यह है कि वह एक तरफ कहते हैं कि उन्हें ज्ञान कम है मगर दूसरी तरफ जेएनयू जैसे शीर्ष विश्वविद्यालय पर भी टिप्पणी करते हैं कि उसका नाम एमएनयू रख देना चाहिए। कर्नाटक से सांसद तेजस्वी सूर्या कुछ भी अनाब-शनाब बोल देते हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की पहचान ही विवादित शब्दों के प्रयोग से है। पश्चिम बंगाल में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने तो हद ही कर दी, उन्होंने कहा कि हमारी सरकार ने उत्तर प्रदेश, असम और कर्नाटक में प्रदर्शनकारियों को कुत्तों की तरह मारा। आतंकी होने का मुकदमा झेल रही भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने शहीद पुलिस अफसर हेमंत करकरे के लिए अपशब्द प्रयोग करते हुए कहा कि उनके श्राप ने उनकी जान ले ली। उन्होंने महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे को देशभक्त बता दिया। केंद्रीय मंत्री राव दानवे पाटिल ने ऐसे शब्द प्रयोग किये कि उनकी चर्चा भी नहीं की जा सकती। यूपी से सांसद सच्चिदानंद हरि साक्षी और निरंजन ज्योति तथा बिहार से सांसद गिरराज सिंह बलात्कारियों के समर्थन से लेकर तमाम आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं। हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज कुछ भी बोल सकते हैं।
हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1938 में बताया था कि कैसे राष्ट्रवाद भी एक बीमारी बन जाती है। जो प्रतिक्रियावादी हैं। फांसीवाद, साम्राज्यवाद और नस्लीय कट्टरता में शरण ढूँढते हैं, ऐसे लोगों ने ही यूरोप को बरबादी और बदनामी दी। इस सोच के हमले के आगे संस्कृति झुक जाती है और सभ्यता का पतन होता है। जैसे बीमार आदमी अपनी बीमारी से बाहर नहीं सोच सकता, एक राष्ट्र, जो अभी आजाद नहीं है, राष्ट्रवाद से बाहर नहीं सोच सकता। मगर एक बार यह आजाद हो जाए तो वह बीमारी, जो राष्ट्रवाद है, हर हाल में खत्म होनी चाहिए। आज आजादी के 73 साल बाद जब हम राष्ट्रवाद के नाम पर अपने ही देशवासियों में अलगाव करते हैं। उनके लिए अशिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं, तब भूल जाते हैं कि यह देश उन सब ने मिलकर बनाया है। आज जो सुविधाभोगी बनकर कर्मयोगियों और बुद्धिजीवियों पर तीखी प्रतिक्रिया देते हैं, वह लोग यह नहीं समझते कि फांसीवाद को अपनाने वाले राष्ट्र छिन्न-भिन्न हो गये। देश को इस वक्त महान और अधिक जरूरी लक्ष्यों की प्राप्ति पर ध्यान देने की जरूरत है, न कि उनसे ध्यान भटकाने के लिए ऊल जुलूल हरकतें करने की। हालात इतर हैं, अंग्रेजी नीति “फूट डालो राज करो” को जब हमारी अपनी ही सरकार अपनाने लगे तो हम विकास पथ पर नहीं घोर अंधेरे की तरफ बढ़ते जाएंगे।
भाजपा सांसद अमिताभ सिन्हा सार्वजनिक मंच पर दूसरे वक्ता को दोगला और गोडसे को अपना आदर्श बताते हैं। हरियाणा के एक विधायक तो यहां तक कहते हैं कि हमें एक घंटे की छूट मिले तो हम सीएए के विरोधियों को खत्म कर देंगे। यूपी में एक मंत्री मुस्लिम समुदाय के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है कि जैसे वह कहीं बाहर से आया दुश्मन हो। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह भी टुकड़े-टुकड़े और खान मार्केट गैंग कहकर अपनी कट्टर विचारधारा स्पष्ट कर देते हैं। जब जनता द्वारा चुने गये नुमाइंदे ही इस तरह की शब्दावली प्रयोग करेंगे, तो दूसरों से क्या उम्मीद की जा सकती है? भारतीय संस्कृति-सभ्यता तो दुश्मन से भी प्रेम भाव करना सिखाती है। इसका उदाहरण सिकंदर और पोरस युद्ध का वृत्तांत है, जब हार के बाद शब्दों की गरिमा से देश का सम्मान हुआ था। यहां तो सब अपने ही हैं। अपनों के बीच संघर्ष को विराम देने पर चिंतन होना चाहिये, न कि उनकी आवाज कुचलने का। उनकी मनोभावना को समझना सत्ता पर बैठे नेताओं का काम है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने अपने उद्बोधन में स्पष्ट किया था कि सत्ता पाने के लिए सस्ती और मर्यादा को खत्म करने वाली राजनीति नहीं होनी चाहिए। उन्होंने अपने लिए बार-बार अपशब्द प्रयोग किये जाने के बावजूद कभी शब्दों की गरिमा नहीं खोई। हालांकि उनकी पार्टी के नेता मणिशंकर अय्यर कई बार हिंदी बोलने के चक्कर में गलत शब्दों का प्रयोग कर जाते हैं, उन्हें पार्टी ने इसके लिए सजा भी दी थी।
देश इस वक्त गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है। महंगाई दर ऐतिहासिक रूप से आगे बढ़ रही है, तो विकास दर दिन प्रतिदिन नीचे और नीचे जा रही है। बेरोजगारी चरम पर है। करोड़ों युवा सड़कों पर भटक रहे हैं। आत्महत्या दर लगातार बढ़ रही है। किसान से लेकर कामगार तक संकट में है। सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण हो रहा है जिसके विरोध में प्रदर्शन चल रहे हैं। उद्योग धंधे बरबादी का रोना रो रहे हैं। सरकार वोट बैंक बनाने के चक्कर में कभी राष्ट्रवाद का शिगूफा छोड़ती है, तो कभी सीएए और एनआरसी-एनपीआर के जाल में जनता को उलझा देती है। कभी पाकिस्तान का डर दिखाया जाता है। कड़कड़ाती ठंड में भी महिलायें बच्चे सड़कों पर रात गुजारने को विवश हैं। ऐसे हालात में बात संभालने की नहीं होती बल्कि धमकी भरे लहजे में डराकर घरों में दुबकने की होती है। शब्दों की मर्यादा वह लोग खोते दिखते हैं, जो खुद को संस्कारी विचारधारा का बताते थे। यह कैसी सियासत है। देश जोड़ने के बजाय तोड़ने की बात की जाती है। कुछ चुनिंदा विश्वविद्यालयों को टारगेट करके उन पर पुलिस तंत्र से हमला करवाया जाता है। वहां पहुंची पुलिस विद्यार्थियों को पाकिस्तानी कहकर उनका दमन करती है। देश के जिम्मेदारों को पहले खुद और फिर पूरी व्यवस्था को यह समझाना होगा कि राष्ट्र भौगोलिक सीमाओं से नहीं, हम सबसे बनता है। उसमें सभी महत्वपूर्ण हैं। यह देश विभिन्न विचारधाराओं का है और सभी का सम्मान होना चाहिए। किसी को डराने या अपशब्द बोलने से देश का उपहास ही होता है।
जयहिंद
ajay.shukla@itvnetwork.com
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)