पिछले दिनों महाराष्ट्र के पालघर में जूना अखाड़े के दो संन्यासियों- कल्पवृक्ष गिरि तथा सुशील गिरि व उनके ड्राइवर नीलेश को घेर कर गाँव वालों ने मार डाला। पुलिस बचाने भी आई, लेकिन ग्रामीणों की अराजक भीड़ पर वे काबू नहीं पा सके। और वे निर्दोश साधु मारे गए। इस घटना के बाद बवाल मचना ही था, और खूब मचा। हर एक ने इसे अपने एंगल से देखा। चूंकि महाराष्ट्र में विपक्ष की साझा (शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस की मिली-जुली) सरकार है, इसलिए भाजपा ने मोर्चा साधा, और कहा, कि जहां-जहां गैर-भाजपा सरकारें हैं, वहां हिंदू धर्म के प्रतीक खतरे में हैं। हालांकि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे शिव सेना से हैं, जो कुछ महीने पहले तक भाजपा की सहयोगी पार्टी थी। और वह एक कट्टर हिंदूवादी पार्टी है। उधर कुछ सेकुलर खिलाड़ियों ने मामले को और भड़का दिया, कि अतीत में जो भाजपा करती रही है, उसी का नतीजा है।
ये दोनों बातें कहीं न कहीं आग लगाती हैं। भाजपा केंद्र में सत्ता में है, और अधिकांश राज्यों में उसकी या सहयोगी दलों की सरकारें हैं। इसलिए उसे कुछ भी बोलने के पहले सोचना चाहिए कि उसके बयानों से कितना हंगामा बरपा होगा। उधर सेकुलर बुद्धिजीवी भी यह मान कर चल रहे हैं, कि हिंदू समाज साम्प्रदायिक है, और वह भाजपा का वोटर है। इसलिए उन्होंने भी बिना सोचे समझे बोल दिया, कि सरकार तो साधुओं की है, इसलिए साधुओं को क्यों मारा जा रहा है। इससे एक मेसेज तो यह गया ही, कि यह सरकार हिंदू साधुओं की है, इसलिए जो भी गड़बड़ी हो रही है, उसके जिÞम्मेदार यही साधु लोग हैं। तीसरा राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रवक्ता प्रवीण कुंटे ने बयान दिया, कि साधुओं की हत्या आदिवासी समुदाय ने की है, जो उसी धर्म के अनुयायी हैं, जिसके कि ये साधु लोग थे। अब इन सब बयानों से हंगामा मचा और एक-दूसरे पर खूब हमले हुए। लेकिन जूना अखाड़े के महा मंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद महाराज ने बहुत ही सुलझा हुआ और संयमित बयान दिया, कि वे महाराष्ट्र पुलिस की कार्रवाई से संतुष्ट हैं। वे बस यह चाहते हैं, कि महाराष्ट्र अन 110 लोगों के नाम उजागर करे, जिनकी गिरफ़्तारी इस कांड में की गई है।
दरअसल हम लोग न तो इन नागा संन्यासियों के बारे में जानते हैं, न जूना अखाड़े के बारे में। दशनामी नागा संन्यासियों की संस्था हजार साल से ऊपर से चली आ रही है। आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में हिंदू मंदिरों की सुरक्षा के लिए दशनामी नागा संन्यासियों की फौज बनाई थी। ये अस्त्र-शस्त्र से लैस होते थे तथा हमलावरों से हिंदू मंदिरों की रक्षा करते थे। आज अगर हिंदू मंदिर सुरक्षित हैं, तो इनके बूते ही। अठारहवीं शताब्दी में जब मुगल शासक कमजोर पड़े, तो दिल्ली में कलह शुरू हो गई। छोटे-छोटे क्षत्रप गुट बनाकर लड़ने-झगड़ने लगे। ऐसे समय में मुगल बादशाह शाह आलम के वजीर-ए-आजम सफदर जंग ने इन संन्यासियों का पूरा इस्तेमाल किया था। हिम्मत गिरि नाम का एक अखाड़े का महंत अपनी पचास हजार संन्यासियों की फौज लेकर उनके साथ रहा। बाद में संन्यासियों का भी पतन हुआ। अंग्रेज सरकार के समय ये लोग शांत हो गए। संन्यासी विद्रोह को दबा दिए जाने के बाद इन लोगों का युद्ध-कौशल खत्म हो गया। आजादी के बाद इनके अस्त्र-शस्त्र सरकार ने रखवा लिए। अब ये बस शास्त्रार्थ तक सीमित हो गए हैं। इसलिए इनका लड़ाई-झगड़े से कोई मतलब नहीं। इनको समझने के लिए इन्हें करीब से समझा जाए। मुझे इन संन्यासियों के साथ समय बिताने का काफी अवसर मिला है।
आज से लगभग तीस वर्ष पहले, मैं इन संन्यासियों के सम्पर्क में आया था। 1991 की बात है। मेरे पिताजी के मोतियाबिंद का एम्स में हुआ था। जब 40 दिन का क्वारंटाइन पूरा हो गया, तो बोले कि ‘लाला हरिद्वार घुमा लाव’। मैंने कहा, ठीक है। मेरे एक मित्र वीर सिंह गुर्जर वहीं बैठे थे। उन्होंने फौरन कहा, कि ‘पंडित जी जब कहो चल देते हैं’। उनके पास मारुति जिप्सी थी। अगले रोज का प्रोग्राम बना। पिताजी ने कहा, कि रामासरे (उनके परम स्नेही मित्र स्वर्गीय रामाश्रय शुक्ल) अपनी बिटिया के घर हैं, उन्हूं का बुला लेव। मैंने कहा, ठीक है। अगले दिन मैं, पिताजी, और रामासरे चाचा तथा मेरी तीनों बेटियां उस जिप्सी में सवार होकर चले। बेटियां छोटी थीं, इसलिए खुली तिरपाल वाली जिप्सी में वे परेशान और बेहाल हो गईं। दोपहर दो बजे हम हरिद्वार पहुंचे। वहां पर सुनीलदत्त पांडे ने सुझाव दिया, कि हम पहले नीलकंठ महादेव चलें, फिर कल लौट कर हर की पैड़ी जाएंगे। नीलकंठ ऋषिकेश से 25 किमी ऊपर पहाड़ पर है। तब वह स्थान निर्जन था। तथा उसकी देख-रेख पंचायती महानिवार्णी अखाड़ा करता था। सुनील ने हरिद्वार की कनखल स्थित महानिवार्णी अखाड़े के मुख्यालय के सचिव महंत से नीलकंठ के महंत के नाम चिट्ठी लिखवाई और हम चल दिए। शाम सात बजे नीलकंठ पहुंचे। करीब 5000 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह स्थान वाकई अद्भुत था। चैत्र मास की शीतल बयार हल्की-सी ठंडक पैदा कर रही थी। वहाँ एक धर्मशाला थी और एक संस्कृत विद्यालय। एक पुजारी था, जो पूजा-पाठ कराता था। लेकिन मंदिर महानिवार्णी अखाड़े के तहत था। अखाड़े के महंत और साधुओं के लिए ब्राह्मण होना अनिवार्य नहीं हैं। उस समय इसके प्रमुख धोबी जाति से थे, किंतु पुजारी ब्राह्मण होता है। जहां ब्राह्मण नहीं मिलता वहां अखाड़े के साधु ही पूजा करते हैं। इनकी व्यवस्था अद्भुत होती है। पाई-पाई का हिसाब। लेकिन ये लोग किसी से कुछ मांगते नहीं। पुजारी को वेतन ये अखाड़े ही देते हैं।
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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