गैंगस्टर विकास दुबे के मारे जाने के बाद, पुलिस के राजनीतिकरण और माफियाओं के खिलाफ पुलिस कार्यवाही पर लगातार सवाल उठ रहे हैं। पुलिस जो लम्बे समय से एक सुधार की आवश्यकता से जूझ रही है, को लेकर पुलिस के बड़े अफसरों, वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों और समाज के प्रबुद्ध वर्ग में फिर यह बहस शुरू हो गई है कि आखिर, पुलिस में राजनीतिक दखलंदाजी को दूर करने के उपाय क्या है और कैसे देश की पुलिस को एक प्रोफेशनल पुलिस बल बनाया जाय। सवाल पुलिस की प्रोफेशनल दक्षता, न्यायिक सुधारों, पुलिस में अपराधी तत्वो की पैठ पर भी उठ रहे हैं। पर इसका समाधान क्या हो, इस पर अभी पूरी तरह से चुप्पी है।
एक गम्भीर सवाल उठाया जाता है कि, कैसे एक सामान्य अपराधी छोटे मोटे अपराध करते हुए फिर एक दिन अंडरवर्ल्ड डॉन या माफिया बन जाता है ? सरकार की सारी लॉ इन्फोर्समेंट एजेंसियों को धता बताते और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की ऐसी तैसी करते हुए एक दिन खूबसूरत गोल इमारत में उसी संविधान की शपथ लेकर विधिद्रोही से विधि निमार्ता बन बैठता है, जिस संविधान की वह सरेआम धज्जियां उड़ाता रहता है। कभी उसी माफिया को,चाकू या कट्टा रखने के आरोप में बंद किये हुए पुलिसजन, उसी के आगमन पर शहर में भीड़ नियंत्रित करते नजर आते हैं।
फिर राजकीय ककून से सुरक्षित वह माफिया आदेशात्मक भाषा बोलता है और पुलिस पर ही आरोप लगता है कि वह तो राजनीति की चेरी है। यह सुनी सुनाई कथा नही बल्कि भोगा हुआ यथार्थ है। ऐसा ही एक और महत्वपूर्ण सवाल है कि, यातायात उल्लंघन या लॉक डाउन की अवहेलना या मास्क न लगाने पर एक सामान्य व्यक्ति पर पुलिस का अनावश्यक बल प्रयोग क्यों पुलिस के क्रोध की सारी सीमाएं तोड़ देता है? एक लफंगे से माफिया बनने में समय लगता है और उस समय मे निश्चय ही जो नजरअंदाजी होती है उसकी जिम्मेदारी पुलिस पर ही आती है। चाहे वह नजरअंदाजी किसी लोभ या स्वार्थ के वशीभूत होकर की गयी हो या राजनीतिक सिफारिश से प्रेरित होकर। राजनीति के अपराधीकरण के बजाय बेहतर शब्द होगा इसे अपराध का राजनीतिकरण कहा जाय। राजनीतिक नेता जो किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित होते हैं, वे राजनीति में आने के बाद किसी प्रत्यक्ष अपराध कर्म की ओर उन्मुख नहीं होते हैं, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ कर वे अपराधी पालते जरूर हैं।
कुछ अपराधी भी, अपराध से धन कमाने और कुछ सुविधा भोगने के बाद राजनीति की शरण ले लेते हैं। राजनीतिक दल भी ऐसे आपराधिक राजनेताओं को प्रश्रय देते है और ऐसे लोग,बदले में, नौकरशाही और पुलिस से कुछ न कुछ फेवर पाते रहते है। इस प्रकार अपराध, राजनीति और पुलिस का एक ऐसा गठजोड़ विकसित हो जाता है जिससे समाज की कानून व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ना तय है। अब एक जिज्ञासा उठ सकती है कि आखिर पुलिस के पास अधिकार या कानूनी शक्तियां कम है क्या कि, वह ऐसे उभरते माफिया के खिलाफ शुरू में ही कोई कार्यवाही नहीं कर पाती है? पुलिस के पास न तो कानूनी शक्तियां कम हैं और न ही अधिकारों का अभाव, पर व्यवहारत: ऐसा करना, अनेक कारणों से संभव होता भी नही है, विशेषकर उन मामलों में जिनमे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त रहता है। पुलिस एक तंत्र है जो सरकार के अधीन कानून लागू करने के लिये गठित है। पुलिस को फिल्मी सिंघम टाइप पुलिस के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वे अपराधी जो राजनीतिक प्रश्रय से खुद को सुरक्षित महसूस समझते हैं उनके खिलाफ अक्सर कार्यवाही करने में स्थानीय पुलिस को दिक्कतें आती हैं। लेकिन जब सरकार का इशारा मिलता है तो माफिया कितना भी बड़ा और असरदार क्यों न हो, वह कठघरे में ही नजर आता है।
फिर, यहीं यह सवाल भी उठता है कि क्या सरकार का इशारा कुछ चुने हुए माफियाओं के खिलाफ ही होता है या सबके खिलाफ ? तो इसका उत्तर होगा कि अक्सर यह पोलिटिकल एजेंडे के अनुरूप होता है। यह बात कड़वी लग सकती है पर यह एक सच्चाई है। पूर्व आईपीएस अफसर, जेएफ रिबेरो ने अपने एक लेख में, पुलिस में राजनीतिक दखलंदाजी के बढ़ते प्रभाव का उल्लेख किया है। उन्होने लिखा है कि तबादलो और पोस्टिंग में राजनैतिक दखल से कहीं अधिक, पुलिस की जांचों और विवेचनाओं में, बढ़ती राजनीतिक दखलंदाजी घातक है। रिबेरो सर की बात कुछ हद तक सही है। अब इस दखलंदाजी को दो भागों में बांट कर देखते हैं।
यह बात सही है कि पुलिस द्वारा मनचाही मांगे न माने जाने के कारण अक्सर राजनीतिक हित टकराते हैं और जहां तक चल सकता है यह खींचतान चलती भी रहती है, पर एक स्टेज ऐसी भी आती है कि नेता, अफसर पर भारी पड़ता है और वह अफसर को हटवा देने में सफल हो जाता है। सरकार की प्रशासनिक भूमिका की परख यहीं होती है कि वह राजनैतिक दबाव और प्रशासनिक जरूरतों में किसकी तरफ झुकती है। पर अनुभव यही बताता है कि अक्सर सरकार अपने दल के लोगों के राजनीतिक हित स्वार्थ के खिलाफ नहीं जा पाती है और तब जो तबादले होते हैं वे पुलिस के लिये एक संकेत होते हैं कि पोलिटिकल एजेंडे की तरफ ही झुकाव रखना श्रेयस्कर है। फिर जैसी सरकार होती है, वैसे ही पोलिटिकल एजेंडे बदलते हैं और वैसे ही पुलिस ढलती जाती है। कानून की व्याख्या भी तदनुसार बदलती रहती है। घोड़ा सवार को पहचानता है और उसके इशारे समझता है। बहुत पुराने उदाहरणों की खोज में न जाकर इधर हाल ही में पुलिस जांचों में प्रत्यक्ष राजनीतिक दखलंदाजी की चर्चा करते हैं। फरवरी 2020 में ही हुये दिल्ली दंगो की जांच पर राजनीतिक दखलंदाजी के आरोप शुरू से ही उठ रहे हैं। यह आक्षेप किसी मीडिया, या आरोपी ने ही नहीं बल्कि अदालतों ने भी लगाया है। यह भी शायद पहली बार ही है कि किसी दंगे की तफतीश पर राजनैतिक दखलंदाजी के खिलाफ राष्ट्रपति महोदय से गुहार लगायी गयी हो। राष्ट्रपति को चिट्ठी लिख कर, कई पूर्व नौकरशाह, पुलिस अफसरों, और सिविल सोसाइटी के महत्वपूर्ण सदस्यों ने इन दंगों की जांच में, दिल्ली पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए हैं। पत्र में दिल्ली पुलिस की भूमिका को संदिग्ध और गैर पेशेवर बताया गया है। यह एक सामान्य आरोप नहीं है।
राष्ट्रपति को भेजे गए पत्र मे साफ साफ कहा गया है कि ” इन दंगों में पुलिस की मिलीभगत थी, कई जगहों पर पुलिस वालों ने ही पत्थर फेंके थे और हिंसा की थी, पुलिस ने भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया, पुलिस हिरासत में यंत्रणाएं दी गईं और यह सब करने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ सबूत होने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई।”
राष्ट्रपति को लिखी गई चिट्ठी में यह आरोप भी लगाया गया है कि ” उत्तर पूर्व दिल्ली में मौजपुर मेट्रो के पास जमीन पर पड़े युवकों को पुलिसकर्मी बेहरमी से पीटते हुए देखे गए। एक वीडियो सामने आया जिसमें पुलिस वाले इन युवकों से राष्ट्रगान गाने को कहते हैं और फिर बुरी तरह पीटते हैं।” इसी प्रकार के अनेक उदाहरणों से, उक्त पत्र में, यह साबित किया गया है कि दंगो के दौरान कानून व्यवस्था बनाये रखने के दायित्व का निर्वहन पक्षपातरहित भाव से नही किया गया है। एक और उदाहरण देखें।
चिट्ठी में कहा गया है कि ” इनमें से एक 23 वर्षीय फैजान को गैरकानूनी तरीके से 36 घंटे तक पुलिस हिरासत में रखा गया, यंत्रणाएं दी गईं, जिससे उसकी मौत हो गई। पुलिस ने उसके इलाज का कोई इंतजाम तक नहीं किया। इस मामले की प्राथमिकी यानी एफआईआर में फैजान की पिटाई की कोई चर्चा नहीं है, न ही किसी पुलिसकर्मी का नाम है, न ही किसी को अभियुक्त बनाया गया है।”
राष्ट्रपति को लिखी गई चिट्ठी में पुलिस पर हिंसा का आरोप भी लगाया गया है और उनपर प्रत्यक्ष हिंसा में भाग लेने के भी दृष्टांत दिए गए हैं। कहा गया है कि, ” पुलिस वाले हिंसा में शामिल हुए थे, उन्होंने पत्थर फेंके थे और मारपीट की थी।
(लेखक यूपी कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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