Police encounter and our double-edged sword: पुलिस का एनकाउंटर और हमारी दोधारी तलवार

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हैदराबाद पुलिस द्वारा गैंगरेप के आरोपियों का एनकाउंटर करने के बाद कम से कम स्थानीय पुलिस ने तो अपनी खोई प्रतिष्ठा वापस पा ली है। दूसरे राज्यों की पुलिस पर भी दबाव है कि वो इस तरह के आरोपियों को किसी कीमत पर नहीं बख्से। पर इस तरह के न्याय का प्रावधान हमारे संविधान में नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एसए बोबड़े ने भी कहा है कि न्याय कभी भी हो सकता है, तत्काल भी होना चाहिये लेकिन यदि यह प्रतिशोध के भाव से भरा है तो ऐसा नहीं होना चाहिये। यदि न्याय बदला लेता है तो वह अपने चरित्र को भी खो देता है।
अब जरा पुलिसिंग की चुनौती पर थोड़ा मंथन करिए। अधिकतर लोगों के मन में एनकाउंटर को लेकर भारतीय सिनेमा ने ऐसा कूड़ा कचरा भर दिया है कि पुलिस का हर एनकाउंटर फेक और प्लांड ही लगता है। कुछ ऐसा ही हैदराबाद केस में भी हो रहा है। लोग इस एनकाउंटर को फेक मान रहे हैं फिर भी खुश हैं कि चलो जो हुआ अच्छा हुआ। पुलिसकर्मियों को राखी बांधी जा रही है, फूल बरसाए जा रहे हैं। पर दूसरी तरफ एनकाउंटर में शामिल सभी पुलिसकर्मी सवालों के घेरे में है। कुछ सवालों का जवाब खोजिए फिर मंथन करिए क्या एनकाउंटर फर्जी ही है?
जरा सोचिए…क्या अगर सच में पुलिसकर्मियों ने फर्जी एनकाउंटर किया है तो एनकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मी क्या इस बात को नहीं जानते थे कि इस तरह का काम करके वो अपना कॅरियर दांव पर लगा रहे हैं?
क्या वहां के पुलिस आयुक्त इतने मुर्ख हैं कि उन्होंने यह नहीं सोचा कि जिस तरह दस साल पहले उनके द्वारा एनकाउंटर किया गया था उसी पैटर्न पर यह एनकाउंटर क्यों हुआ, इस पर सवाल नहीं पूछे जाएंगे?
और हां, यह भी मत भूलिए कि इस एनकाउंटर में दो पुलिसवाले भी घायल हुए हैं। एक के सिर में गोली लगी है। वह जिंदगी और मौत से जंग लड़ रहा है। यह घायल पुलिसकर्मी दबंग फिल्म वाले चुलबुल पांडेय की गोली से घायल कांस्टेबल मिश्रा जी तो नहीं हो सकते, जो सिर में गोली खाने का रिस्क लेंगे।
भगवान न करे कि उन घायल पुलिसकर्मियों में से कोई शहीद हो गया तो क्या एनकाउंटर पर से फर्जी का लेबल हट जाएगा? क्या आप यही चाहते हैं? या वो पुलिसवाले ऐसा चाहेंगे कि अपने ही साथी की हत्या कर वो एनकाउंटर को फर्जी बनने से रोक दें।
हद है हमारे समाज की दोहरी मानसिकता की। एक सच्ची घटना आपको बताता हूं। एक शहर में गर्ल्स कॉलेज के बाहर हर दिन दो चार मवाली टाइप के लड़के कॉलेज आने जाने वाली लड़कियों को घूरते और कमेंट पास करते थे। एक दिन सिंघम, दबंग और सिंबा टाइप के एक दरोगा की पोस्टिंग उस एरिया के थाने में होती है। सीविल ड्रेस में वह इलाके की खोज खबर लेने निकलता है तो उसे यह नजारा देखने को मिलता है। थोड़ा और जानने की कोशिश करता है तो पता चलता है कि आज शनिवार है इसलिए मवाली कम हैं। सोमवार से शुक्रवार तो यहां भरमार रहती है। अगले सोमवार को वह दरोगा बावर्दी अपने सिपाहियों के साथ वहां पूरी घेराबंदी के साथ पहुंचता है। आॅन स्पॉट उन मजनुओं की जबर्दस्त खबर लेता है। जमकर पीटता है। मजनुओं को मुर्गा बनाता है। लड़कियों के सामने परेड करवाता है और सरेआम माफी मंगवाता है। इसके बाद उस गर्ल्स के सामने से हमेशा हमेशा के लिए मजनुओं का मजमा गायब हो जाता है। मजनुओं में पुलिस का ऐसा खौफ पैदा होता है कि हर लड़की उन्हें अपनी बहन दिखने लगती है।
इस कांड के एक महीने बाद किसी ने मजनुओं की जबर्दस्त पिटाई की वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर दी। कैप्शन लिखा, पुलिस का वहशीपन। मामला सीनियर अधिकारियों के पास पहुंचता है। दरोगा जी सफाई देते रहे, पर उन्हें सस्पेंड कर दिया जाता है। तर्क यह दिया गया आपके पास कोई लिखित कंप्लेन था? आपके पास किसी लड़की ने गुहार लगाई थी? आपने अपने सीनियर्स को बताया था? आदि…आदि…
अब जरा मंथन करिए। क्या उस दरोगा ने गलत किया? क्या वह पहले लड़कियों से उन मजनुओं के खिलाफ कंप्लेन लेता? और क्या गर्ल्स कॉलेज की लड़कियां कंप्लेन दे देतीं। फिर दरोगा जी न्यायिक प्रक्रिया के तहत उन लड़कों को कोर्ट में पेश करते और फिर अदालती कार्रवाई के जरिए जो होता सो होता। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि पुलिसिंग सिर्फ ज्ञान देने के लिए नहीं, बल्कि सबक सिखाने के लिए भी जरूरी है। हां इतना जरूर है कि पुलिस न्याय का देवता नहीं बन सकती, लेकिन इतना भी जरूर है कि कठोर पुलिसिंग न्याय का ही एक रूप होना चाहिए।
जरा मंथन करिए क्यों आज तेलांगना पुलिस पर फूल बरसाए जा रहे हैं। उन्हें कंधे पर उठाया जा रहा है, राखियां बांधी जा रही हैं। पुलिस को भी इस फूलों की बारिश और राखी के धागे में लोगों की भावनाओं को समझने और सहेजने की जरूरत है। पुलिस ने अपनी छवि खुद ही खराब कर रखी है। अगर वो सही काम भी करती है तो उसे गलत दृष्टि से देखा जाता है। पुलिस का हर एक काम हमेशा शक ही पैदा करता है। पूरे भारत में पुलिस की छवि ऐसी बन चुकी है कि एक आम आदमी पुलिस के पास जाने से पहले सौ बार सोचता है। महिलाएं तो सपने में भी पुलिस के पास जाना नहीं चाहती हैं। शायद यही कारण है कि हैदराबाद की बेटी ने भी पुलिस को फोन न करके अपने परिजनों को फोन किया। पुलिस को कठोर बनने से पहले सहयोगी बनने की जरूरत है। आज पूरे भारत में पुलिस के प्रति असम्मान और असुरक्षा की बात सिर्फ इसलिए होती है क्योंकि उन्होंने अपनी छवि इस प्रकार बना ली है। शायद यही कारण है कि आज तेलांगना पुलिस का एनकाउंटर सवालों के घेरे में है। पुलिस पूरे विश्वास के साथ कह रही है कि आरोपियों ने पहले उनपर हमला किया। उनके हथियार छीन लिए। गोलियां चलाई। इसीलिए पुलिस को अपने बचाव में गोली चलानी पड़ी, जिसमें सभी आरोपी ढेर हो गए। यह पूरी तरह सच भी हो सकता है।
एक और बात पर मंथन करिए.. सोचिए अगर वो आरोपी किसी तरह फरार हो जाते तो क्या स्थिति बनती। पूरा देश यही कहता पुलिसकर्मियों ने पैसे लेकर इन्हें भगा दिया। क्या जरूरत थी रात के अंधेरे में वहां लेकर जाने की? क्या जरूरत थी बिना हथकड़ी डाले सीन रिक्रिएट करने की। क्या जरूरत थी सिर्फ दस पुलिसवालों को लेकर जाने की। यकीन मानिए आज वो आरोपी भाग गए होते तो पूरे तेलांगना में पुलिसकर्मियों के खिलाफ एक ऐसा उबाल आता कि थाने के थाने फूंक दिए गए होते। पुलिसकर्मियों पर हमले हो रहे होते।
यही दोधारी तलवार है, जिस पर पुलिसकर्मी चलते हैं। आरोपी भाग गए तो पैसे लेकर भगा दिया गया। फरार होते आरोपियों पर पुलिस ने गोली चला दी तो वह इनकाउंटर फर्जी बन गया। हजारों केस ऐसे हैं जिसमें कोर्ट ले जाते वक्त अपराधी पुलिस को धक्का देकर फरार हो गए। पुलिस के पास हथियार होने के बावजूद उन्होंने गोली सिर्फ इसलिए नहीं चलाई कि अगर वो फरार होता अपराधी पुलिस की गोली से मारा गया तो इनकाउंटर का जवाब देते-देते पूरी उम्र सलाखों के पीछे ही कट जाएगी।
आप भी मंथन करिए कि आप दोहरी मानसिकता में क्यों जी रहे हैं। पुलिस वाले भी मंथन करें कि आखिर आम लोगों में पुलिस के प्रति दोहरी मानसिकता क्यों पनपती है? तेलांगना पुलिस सवाल देने को तैयार है। उनका जवाब सुनते रहिए और उम्मीद करिए कि बच्चियों के साथ दरिंदगी करने वालों में एनकाउंटर का भय अधिक से अधिक हो।

कुणाल वर्मा
kunal@aajsamaaj.com
(लेखक आज समाज के संपादक हैं।)