पिछले एक सप्ताह हम शंघाई की अध्ययन यात्रा पर थे। शंघाई मीडिया ग्रुप ने चीन के सूचना प्रसारण मंत्रालय के माध्यम से हमें आमंत्रित किया था। वहां जाते वक्त हमारे मन में कई भ्रांतियां थीं, जो हमारे देश के सियासी लोग नियमित फैलाया करते हैं। शुक्रवार को हम जब वापस दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुंचे तो अनायास ही मुंह से निकला ‘थैंक यू ग्रेट चाइना’। यह शब्द हमारे मुंह से कभी किसी देश के लिए नहीं निकला था। इस शब्द के मुंह से निकलने के पीछे वजह एक नहीं सैकड़ों हैं। हमारे यहां चीन पर लांछन लगता था कि वहां लोकतंत्र नहीं है मगर वहां पहुंचकर हम गलत साबित हुए। वास्तव में वहां के लोगों को जो सरकार मिली है, वह लोकतंत्र की मूल भावना से कई कदम आगे है। वहां किसी व्यक्ति को सरकार या व्यवस्था का विरोध करने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि आमजन की जो जरूरतें हैं, उनसे कहीं बढ़कर व्यवस्थाएं सरकार दे रही है। विश्व की आधुनिक सुविधाओं और तकनीक से लेकर आगे बढ़ने तक का अवसर योग्य व्यक्ति का इंतजार करता है। वहां बेरोजगारों की फौज नहीं बल्कि कामगारों की जमात दिखती है। जहां किसी तरह का प्रदूषण नहीं है, न धर्म का, न जाति का, न लिंग का और न ही पर्यावरण का प्रदूषण। वहां के राष्ट्राध्यक्ष की फोटो सरकारी दीवारों को गंदा करते नहीं दिखी।
हुंगपु नदी पर मछली मारने वालों के गांव से विश्व के सबसे उन्नत शहर बनाने में शंघाई की उस सरकार का योगदान है, जिसको वामपंथी कहकर हमारे सियासी लोग लांछन लगाते हैं। विश्व के सबसे अधिक आबादी वाले इस शहर में वहां के नागरिक और प्रवासी, भीड़ का हिस्सा नहीं हैं बल्कि उनको वहां वो सब मिल रहा है जिसकी उन्हें जरूरत है। वहां के निवासी सियासी और धार्मिक चर्चाओं में वक्त बर्बाद नहीं करते बल्कि काम करते हैं, खुद के लिए, समाज के लिए, देश के लिए और विश्व के लिए। वहां के नेता बयानों और भाषणों में अपने गणराज्य को नहीं उलझाते बल्कि रचनात्मक काम करते हैं, जो विश्व देखता है। उनके एक झटके में विश्व की अर्थव्यवस्था हिल जाती है। वहां के लोग और सत्तानशीन यह चर्चा भी नहीं करते कि पिछले शासनाध्यक्ष ने क्या किया, वो तो भविष्य की सोचते और वर्तमान में करते हैं। वहां मंदिरों की घंटियां या मस्जिदों में अजान नहीं गूंजती, गिरजाघर की प्रार्थना भी नहीं सुनाई देती और बौद्ध मठों में भी शांति नजर आती है, क्योंकि वहां के निवासी और सरकार, देश और नागरिकों को समृद्ध बनाने के लिए काम करते हैं, पूजा-अर्चना के ड्रामे नहीं। वहां यह सोचा जाता है कि पांच सौ साल पहले शंघाई कैसा था और भविष्य के पांच सौ साल बाद कैसा होगा, उस वक्त क्या व्यवस्थाएं होंगी और उसके लिए क्या करना होगा? हमारे यहां 70 साल पहले बनाए गए देश के पहले नियोजित स्मार्ट सिटी चंडीगढ़ को बंदरंग बनाने का खेल खेला जा रहा है, क्योंकि ऐसा शहर बना नहीं सकते तो पिछले शासकों को श्रेय क्यों मिले।
हम दिल्ली लौटे तो फिर से सोशल मीडिया चालू हो गया। निकम्मे-बेकार लोगों की तरह हमने भी पोस्ट पढ़नी शुरू कर दी। चीन में कोई काम न होते हुए भी इस बारे में सोचने का वक्त नहीं मिला था क्योंकि वहां लोगों के पास फालतू ज्ञान के लिए वक्त ही नहीं होता। वहां की सरकार भी सोशल मीडिया से अपने प्रचार नहीं करती बल्कि पारंपरिक मीडिया पर सच दिखाती है और जनता सरकारी दावों को प्रमाणित करती है। मीडिया ज्ञान-विज्ञान से लेकर आपकी जरूरतों की बात करता है। वह सिर्फ वैश्विक रूप से प्रमाणित-भूगोल पर ही चर्चा करता है, न कि गढ़े गए इतिहास को दिखाता है। भारत के मीडिया में देखा तो न विकास की बात, न काम की चर्चा और न समाज को सकारात्मक दिशा में आगे ले जाने की चिंता। यहां सदन से लेकर मीडिया और जनता तक में सिर्फ एक ही बात हो रही थी कि सपा सांसद आजम खान ने लोकसभा में सदन की पीठासीन सभापति रमादेवी के लिए किस तरह के शब्द प्रयोग किए। जबकि सत्य इससे काफी इतर है क्योंकि जब रमादेवी ने मुस्कुराते हुए कहा कि आप इधर-उधर नहीं उनकी तरफ देखें तब आजम ने हास्य में कुछ शब्द बोले और साथ ही कहा कि वह उनकी बहन की तरह हैं, वह उनका सम्मान करते हैं। यह इतना बड़ा विषय बन गया कि देश, सियासतदां और संसद इसी में उलझ गया। हमारे देश की समस्या यही है कि हम लोग किसी के बयानों को अपने मुताबिक वर्णित करते हैं और फिर सियासत की रोटी सेकने लगते हैं। हम देश के विकास और समाज के उत्थान को भूलकर संकीर्ण मानसिकता की राजनीति में लग जाते हैं। हमारे देश के नागरिक भी उसी भंवरजाल में उलझे रहते हैं। वो भी अपने काम को सर्वश्रेष्ठ बनाने के बजाय सियासी चश्में में वक्त बर्बाद करते हैं। बेरोजगारों और निकम्मों की फौज उन बयानों को सोशल मीडिया पर अपने-अपने व्याख्यानों सहित परोसने लगती है। हमारे कथित समझदार लोग बड़े बनने के बजाय छोटे बनने की होड़ में लग जाते हैं। खुद को बड़े हृदय और दिमाग का बनाकर छोटी-छोटी बातों को नजरांदाज करने की सोच को शायद हम ताले में बंद कर आए हैं। पारंपरिक मीडिया की हालत यह है कि वह भी छोटी बातों और सोच को सियासी नफे-नुकसान के रूप में परोसने लगते हैं। हमने घर पहुंचकर कई न्यूज चैनलों को खंगाला कि शायद देश और नागरिकों को उन्नत दिशा में ले जाने वाली कोई खबर मिले मगर मायूसी ही हाथ लगी। समाज को जोड़ने वाला कोई कार्यक्रम देखने के इरादे से जब खंगाला तो समाज को तोड़ने वाले भाषणों के सिवाय कुछ हाथ नहीं लगा। हमारे देश का संविधान हमें विश्व के श्रेष्ठ लोकतांत्रिक कल्याणकारी गणराज्य बनाने की बात करता है। ब्रितानी हुकूमत ने जब भारत को छोड़ा तो कंगाल करके चले गए। उन्होंने इस देश को बहुत कुछ दिया भी मगर उसके बदले में सबकुछ लूटने का काम किया था। देश की पहली हुकूमत ने हमें उस कंगाली के दौर से निकालकर विकास के पथ पर खड़ा किया था। विकास और समृद्धि के आयाम स्थापित होने लगे मगर संकीर्ण मानसिकता वाली सियासत ने उसे ध्वस्त करना शुरू कर दिया। बयानों-भाषणों और आरोप-प्रत्यारोपों की सियासत ने हमारे देश को घुन की तरह खोखला बना दिया। हम कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति-लिंग के आधार पर भेदभाव करने लगे। हालात यह हो गए कि माहौल से लेकर पर्यावरण तक निहित स्वार्थों की सियासत में प्रदूषित हो गया। अब सिर्फ विकास की बातें रह गई हैं, जो निजी स्वार्थों और पूंजीवादियों के लाभ तक सीमित हैं। गरीब का कल्याण भी सिर्फ वोट लेकर सत्ता हासिल करने तक के लिए ही है। सभी को सुयोग्य बनाकर भारत गणराज्य में सबको साथ लेकर चलने और विकास की गाड़ी को वैश्विक मानदंडों पर दौड़ाने की सोच नहीं दिखती। यही कारण है कि हम तुक्ष्छ विचारों लक्ष्यों के लिए लड़ रहे हैं और चीन में मछुआरों का गांव विश्व का सर्वाधिक समृद्ध व्यवस्थित शहर बन जाता है। अब आप सोचिये कि आप कहां जा रहे हैं?
जयहिंद!
अजय शुक्ल
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं )
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