Opposition should be respected in democracy: लोकतंत्र में विरोध को सम्मान मिलना चाहिए

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राजनीति अब क्षुद्र होती जा रही है और राजनेता असहनशील। यह केवल नेताओं के चुनावी भाषणों में ही नहीं दीखता बल्कि उनके सामान्य शिष्टाचार में भी दिखने लगा है। प्रतिद्वंदी राजनेता को येन-केन-प्रकारेण तंग करना अब एक सामान्य प्रक्रिया हो गई है। और इसकी वजह है राजनीति अब समाज केंद्रित नहीं, अपितु व्यक्ति-केंद्रित होती जा रही है। राजनीति अब लाभ का सौदा है, उसके अंदर से सेवा भाव और राजनय लुप्त हो चला है। राजनीति में मध्यम मार्ग अब नहीं बचा है। पारस्परिक विरोध का हाल यह है कि न केवल प्रतिद्वंदी को पछाड़ने के लिए एक-दूसरे के फालोवर के सफ़ाये का अभियान चलाया जाता है बल्कि जो दल सत्ता में होता है, वह सत्ता की धमक का इस्तेमाल कर विरोधी को हर तरह से तंग करता है। पहले यह उन राज्यों तक सीमित था, जहां धुर वामपंथी या दक्षिणपंथी सरकारें थीं। क्योंकि सफ़ाया-करण की थ्योरी ही उनकी है। पर अब यह केंद्र तक आ धमका है। कोर्ट से लेकर चुनाव आयोग, सीबीआई जैसी संस्थाएँ भी केंद्र के इशारे पर काम करने लगी हैं। कहाँ तो केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी एक जमाने में लोकपाल बिल लाने की माँग करती थी और कहाँ आज वह सारी सांवैधानिक संस्थाओं को नष्ट करने पर तुली है। अब स्थिति यह है कि उसके विरोधी दलों के अंदर भी यही चिंतन हावी है।

पश्चिम बंगाल और केरल को इस तरह की राजनीति का गढ़ समझा जाता था। क्योंकि दोनों जगह धुर वामपंथी सरकारें बहुत पहले से आ गई थीं। ख़ासकर पश्चिम बंगाल में। वहाँ पर नक्सलबाड़ी आंदोलन से उपजे विचार और उसके कार्यकर्त्ताओं का मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी नीत वाममोर्चा सरकार के नेताओं ने पुलिस और अपने हिंसक कैडर की मदद से संहार किया था। पकड़-पकड़ कर मारा था। ठीक इसी तरह नब्बे के दशक में पंजाब की बेअंत सिंह सरकार ने आतंकवादियों को ख़त्म करने के नाम पर पुलिस को असीमित अधिकार दिए थे। याद करिए, वहाँ के पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल ने किस तरह नौजवानों को घर से घसीट-घसीट कर मार दिया था। युवा शक्ति का ऐसा संहार पहले कभी नहीं देखा गया था। यही हाल कश्मीर में हुआ। जिस किसी ने नागरिक स्वतंत्रता की माँग की, उसे मार दिया गया अथवा जेलों में ठूँस दिया गया। जब हमारे विपरीत विचार वाले लोगों का उत्पीड़न होता है, तब हम खुश होते हैं और सोचते हैं कि यह देश-हित में हो रहा है। नतीजा एक दिन सत्ता का कुल्हाड़ा हमारे सिर पर भी गिरता है और हम उफ़ तक नहीं कर पाते। तब हमें बचाने के लिए भी कोई नहीं होता क्योंकि व्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक आज़ादी की माँग करने वालों को तो हम खो चुके होते हैं। यही असहिष्णुता है।

दुःख है कि अब यह केंद्रीय सत्ता कर रही है और उन सब लोगों को किसी न किसी तरह जेल ठूँस रही है, जिनके साथ उसकी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता है। राज को स्थायी बनाए रखने के ये चालू नियम हैं। जो हिटलर ने अपनाए थे, इंदिरा गांधी ने अपनाए थे और आज मोदी अपना रहे हैं। अर्थात् सरकार अपनी शक्तियों का इस्तेमाल अपने विरोधियों पर करना उचित मानती है। अभी पिछले महीने हुए चुनाव में भाजपा पश्चिम बंगाल में बुरी तरह हार गई, जबकि बंगाल का क़िला फ़तेह करने के लिए उसने पूरी ताक़त लगा दी थी। ममता बनर्जी ने फिर से सरकार बना ली और वह भी प्रचंड बहुमत के साथ। उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को विधान सभा चुनाव में 214 सीटें मिलीं और भाजपा को 76 तथा कांग्रेस और माकपा को एक-एक। वहाँ विधानसभा में 294 सीटों पर चुनाव होते हैं और अब तक की परंपरा के अनुसार एक सीट एंग्लो-इंडियंस के लिए आरक्षित है। इस बार 292 सीटों पर मतदान हुआ था, क्योंकि दो सीटों पर उम्मीदवारों की कोरोना के चलते मृत्यु हो गई थी, यहाँ अब बाद में चुनाव करए जाएँगे। पश्चिम बंगाल में ममता को परास्त करने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने पूरी ताक़त लगा दी थी। पिछले विधान सभा चुनाव (2016) के बाद से ही वहाँ कैलाश विजयवर्गीय की नियुक्ति कर दी गई थी, ताकि पाँच साल बाद आने वाले चुनाव में ममता बनर्जी की सरकार को उखाड़ फेंका जाए। भाजपा ने दो साल पहले से ही सघन प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। और 2021 की फ़रवरी में जैसे ही केंद्रीय चुनाव आयोग ने वहाँ विधान सभा चुनाव की घोषणा की तत्काल केंद्र की मोदी सरकार ने कोविड के सारे प्रोटोकाल तोड़ कर सघन प्रचार अभियान शुरू कर दिया था। जबकि ममता अकेली थीं। कांग्रेस और वाम दलों ने उनसे दूरी बना रखी थी। बल्कि वे स्वयं ममता बनर्जी के विरुद्ध मोर्चा खोले थे। इसके बावजूद ममता ने इस चुनाव में भारी सफलता अर्जित कर ली।

भाजपा को यह सहन नहीं हुआ। नतीजा, उधर ममता सरकार बनी इधर केंद्र सरकार की सारी शक्तियाँ ममता के उत्पीड़न में लग गईं। पहले तो वहाँ के राज्यपाल ने हिंसा को लेकर राजनीतिक बयान देने शुरू किए। उन्होंने वहाँ के दौरे भी शुरू कर दिए, जहां हिंसा हुई और ममता को बार-बार अनावश्यक कोंचने लगे कि उन्हें हिंसा रोकने को वरीयता देनी चाहिए। इशारे-इशारे में वे ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कैडर को इस हिंसा का ज़िम्मेवार बता रहे थे। इसके बाद सरकार बने अभी एक सप्ताह भी नहीं गुजरा था कि सीबीआई ने ममता सरकार के दो मंत्रियों और कुछ बड़े नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया। अब इस पर कितनी भी लीपा-पोती की जाए, कोई भी यह नहीं मानेगा कि यह गिरफ़्तारी सीबीआई ने किसके इशारे पर की होगी। हर एक को पता है, कि सीबीआई किसका ‘तोता’ होता है। ममता बनर्जी चूँकि संघर्ष के बूते ही मुख्यमंत्री बनी हैं। 2010 में उन्होंने पश्चिम बंगाल में 34 वर्ष से सत्तारूढ़ वाम मोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंका था। यह कोई आसान काम नहीं था। वे सड़कों पर उतरीं। माकपा राज ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया। उन पर हमले करवाए और जिस कांग्रेस पार्टी में वे थीं, उसके नेताओं ने उनसे किनारा कर लिया। तब 1997 में में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस बनायी और अपने बूते उसको गाँव-गाँव फैलाया। कैडर बनाए। नतीजा सामने है, ममता बनर्जी तीसरी बार लगातार मुख्यमंत्री ही नहीं बनीं बल्कि केंद्रीय सत्ता को ही चुनौती दे दी है। यही बात भाजपा को बेचैन किए है क्योंकि उनका क़द अब केंद्र से टकराने का हो गया है।

अब जिस नारद कांड में उनके मंत्रियों को गिरफ़्तार किया गया वह दरअसल पाँच वर्ष पुराना एक स्टिंग आपरेशन है, जिसे नारद डॉट काम पोर्टल के मैथ्यू सैमुअल ने किया था और इसमें उस वक्त कुछ लोगों को पैसा लेते हुए दिखाया गया था। कहा गया था, कि ये लोग फिरहाद हाकिम, सुब्रत मुखर्जी हैं। इस पर हंगामा हुआ और मामला हाई कोर्ट पहुँचा। तब हाई कोर्ट ने जाँच सीबीआई को सौंपी। सीबीआई ने पिछले हफ़्ते 17 मई को ममता सरकार के दो क़ाबीना मंत्रियों- परिवहन मंत्री फिरहाद हाकिम और पंचायत मंत्री सुब्रत मुखर्जी तथा एक विधायक मदन मित्रा एवं पूर्व मेयर शोभन चटर्जी को गिरफ़्तार कर लिया। ममता ग़ुस्से में आकर कोलकाता के सीबीआई दफ़्तर के सामने धरने पर बैठ गईं। तब हाई कोर्ट ने इन लोगों को हाउस अरेस्ट (घर पर नज़रबंद) करने के आदेश दिए। सीबीआई हाई कोर्ट के इस आदेश को चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट पहुँची। सुप्रीम कोर्ट ने 25 मई को आदेश दिए कि हाई कोर्ट के फ़ैसले पर वह कोई टिप्पणी नहीं करेगी अतः सीबीआई को हाई कोर्ट के निर्देश मानने होंगे। अलबत्ता उसने ममता बनर्जी के आचरण की निंदा की और कहा कि मुख्यमंत्री को क़ानून की रक्षा करनी चाहिए। उन्हें सीबीआई को अपना काम करने से रोकने का अधिकार नहीं है। लेकिन साथ ही सीबीआई को यह मामला अब बंगाल में ही चलाना होगा। बंगाल से बाहर ले जाने का मामला ख़ारिज हो गया। आमतौर पर सीबीआई थुक्का-फ़ज़ीहत से बचने के लिए ऐसे मामले मनचाहे स्थानों पर ट्रांसफर करवा लेती है, ताकि स्थानीय विरोध का सामना उसे नहीं करना पड़े। लेकिन इस बार सुप्रीम कोर्ट ने इसमें दख़ल देने से मना कर दिया।

अकेले पश्चिम बंगाल ही क्यों, महाराष्ट्र और झारखंड भी केंद्र की इस भेदभाव पूर्ण और बदले की कुटिल नीति के शिकार हैं। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे को घेरने की कोशिश रोज़ की जाती है। उनके बेटे आदित्य ठाकरे के विरुद्ध जाँच का मामला है ही। इसी तरह कोरोना के मामले में केंद्र की मोदी सरकार ने ग़ैर भाजपाई सरकारों के साथ भेदभाव किया। पहले तो सारी व्यवस्थाएँ केंद्र ने स्वयं अपने हाथ में लीं, उसके बाद टीकों से लेकर लॉक डाउन तक का मामला राज्यों के मत्थे मढ़ दिया गया। तमिलनाडु, आंध्र, तेलंगाना, केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान और पंजाब तक सभी ग़ैर भाजपाई सरकारें परेशान हैं। देश में को-वैक्सीन तथा कोवि-शील्ड का उत्पादन पर्याप्त नहीं है। और उस पर भी आधी सप्लाई केंद्र अपने हाथ में रखती है। उधर ग्लोबल टेंडर निकाले जाने के बावजूद विदेशी कंपनियाँ राज्यों के साथ कोई सौदा करना नहीं चाहतीं क्योंकि उसमें तमाम तकनीकी अड़चनें हैं। इसके अलावा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को केंद्र सरकार ने इतना कमजोर कर दिया है, कि उनकी स्थिति एक नगर प्रमुख जैसी हो गई है। केंद्र की मोदी सरकार को बदले की राजनीति खूब सूट करती है।